Friday, February 27, 2015

गुंजाइश




कभी साल-साल भर कुछ कहा नहीं जाता तो कभी हफ्ते भर में तीसरी बार ब्लॉग पर आना हो गया। इस बार तो अचानक ही हुआ। कल रात अचानक 3 बजे आंख खुल गई। बुखार था शायद। गले और बदन में दर्द भी था। अचानक ही समझ लो। लगा शायद बिना स्वेटर सुबह निकलने लगा हूं इसलिए या फिर एक नंबर पर पंखा चलाने लगा हूं इसलिए ये गड़बड़ हुई होगी। सोचा दुबारा सो लूं, आराम मिलेगा, पर आंख थी कि खुली रहकर जीरो पावर के बल्ब की हरी रोशनी निहार रही थी। घंटे भर ये कशमकाश चली और अचानक लगा कि जेहन में कुछ कुलबुला रहा है। हरी रोशनी ऐसा होता नहीं अक्सर। बहुत पहले जब लिखना शुरू किया था तो किसी ने बताया था कि मैं तो कागज पेंसिल साथ लेकर सोता हूं, क्या पता कब कोई खूबसूरत लाइन आए और सुबह तक खो जाए। मैं लिखने का उतना लालची तो नहीं, लेकिन रात को लगा कि आजकल तो सबके सिरहाने कागज पेंसिल होती है। मोबाइल चार्जर से लिपटा हुआ वहीं पड़ा था। उसे डिस्टर्ब किया। उठाया और नोटपैड पर लिखता चला गया। फिर ठीक वैसा लगा जैसे उलटी करने के बाद लगता है। उपमा बड़ी घृणा पैदा कर सकती है लेकिन सच तो यही है। मेरा क्या सबका यही सच है। खैर, ऐसा बहुत सालों बाद हुआ जब रात को कुछ लिखा हो। खैर, मेरे लिए अब इसे संजोना जरूरी हो गया है तो ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं।
और हां, पढ़ लेना बस, ज्यादा सोचना मत।


जेहन का ज़हर भी बातों में उतर आता है
मेरा ज़िक्र जो आता है, उसका चेहरा उतर जाता है

बरसों की गरमजोशी, झटके में पिघलती है
सचाइयों का खंजर जब दिल में उतर जाता है

रिश्तों में तकरीरों की गुंजाइश नहीं बची
वो जब भी घर आता है, चुपचाप ही आता है

बरसों जिसे पाला था वो लायक नहीं रहा
बेटा भी बाप को अब मुश्किल से सुहाता है

गुजरो जो सामने से दुआ सलाम तो रहे
ये मोड़ दोस्ती में कइयों को रुलाता है

ये कैसी बंदगी है ये कैसी बुतपरस्ती
खुदा का घर भी आखिर मुश्किल में याद आता है

सोहन समझ रहा था, ये सब हैं साथ मेरे
पर नाराज़गी में अक्सर मंज़र बदल जाता है


Wednesday, February 25, 2015

बच्चे

29 जनवरी को कुछ ट़वीट किए थे। उनमें से तीन निकालकर ब्लॉग पर डालने का मन किया। पिछली पोस्ट की तरह इनकी भी कोई भूमिका नहीं लिख रहा।




बच्चों के बिना सूना है मेरे कमरे का गलीचा
सोफे पे खिलौने भी गुमसुम से पड़े हैं

होती नहीं टेडी की आपस में बातचीत
नाराजगी में इनके भी तेवर से चढ़े हैं

मुमकिन है बाप कुछ खिंचे खिंचे से रहें
दिल में तो इनके भी अरमान बड़े हैं

Saturday, February 21, 2015

तकदीर का कैमरा और फ्री स्पेस




294 जीबी यादों को टटोलते हुए कभी कभी आप उलझ जाते हैं, अपने जेहन में बरसों से पड़ीं हिडन फाइलों में। कानों में लगी लीड इंस्ट्रूमेंटल बजा रही होती है लेकिन आप सुन रहे होते हैं वे धुनें जो अब मायने नहीं रखतीं, इससे ज्यादा कि वे आपके ही जीवन के संगीत का हिस्सा हैं। आप तस्वीर दर तस्वीर देख रहे होते हैं, लेकिन असल में आपकी नजरें खरोंच रही होती हैं उस तस्वीर को जो शायद ठीक से बन नहीं पाई कभी। आप देख तो रहे होते हैं कम्प्यूटर स्क्रीन पर नजरें गड़ाकर, लेकिन असल में आप वह सब देखना नहीं चाह रहे होते। आप उस बहाने से देख रहे होते हैं वे तस्वीरें जो आपने खींचनी चाहीं थीं कभी मगर खींच नहीं सके, क्योंकि तकदीर के कैमरे पर क्लिक करने वाली उंगली आपके पास होती ही नहीं। कुछ देर देखकर फिर आप अचानक देखते हैं राइट क्लिक से हार्ड डिस्क का फ्री स्पेस। नीले और गुलाबी गोले का गुलाबी स्पेस देखकर आप झूठ मूठ में खुश होते हैं। आप सोचते हैं कुछ और तस्वीरें आ सकती हैं अभी आपकी हार्ड डिस्क में। और फिर आप उन तस्वीरों की कल्पना करने लगते हैं जिन्हें खींचा ही नहीं गया है अभी तकदीर के कैमरे से।