Monday, November 9, 2015

और यूं आया दूसरा बर्थडे




बच्चों के एक साल का होने तक का अनुभव जब लिख रहा था तो एक ख्याल बार-बार मन में आ रहा था कि ये साल सबसे मुश्किल गया है, अब अगला साल इससे और आसान होगा, फिर उससे अगला साल और आसान। फिर धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर आने लग जाएगी। यह खुशफहमी इनके पहले जन्मदिन के इतने कम टाइम बाद ही चकनाचूर हो जाएगी, ऐसा तो ख्याल भी नहीं था।



वैसे यह पहले से तय था कि मम्मी एक साल तक बच्चों को साथ रहकर संभलवाएंगी। उसके बाद उन्हें भी ब्रेक लेना था क्योंकि पिछला साल जो बीता था, उसके स्ट्रेस का उन पर भी बुरा असर पड़ा था। घर का हर मेंबर तनाव से गुजरा था, गुजर रहा था। बेशक, यह फैसला तनाव कम करने की सोच के साथ लिया जा रहा था, लेकिन चाहे-अनचाहे यह फैसला तनाव को बढ़ाने वाला ही था। बिना मम्मी के एक-एक साल के दो बच्चों को अकेले संभालना उनकी मम्मी के लिए प्रैक्टिकली पॉसिबल नहीं था इसलिए तय किया कि हृदय हार्दिक कुछ वक्त के लिए अपनी नानी के पास जाएंगे। वहां संभालने के लिए दो-चार हाथ ज्यादा हैं। मम्मी-पापा पैतृक शहर लौटेंगे।

बड़ा सा हो गया घर
पहले जन्मदिन के ठीक एक हफ्ते बाद बच्चे चले गए। उसके दो दिन बाद मम्मी पापा चले गए। मैं घर में अकेला था। अकेलेपन का घोर-घनघोर अनुभव शादी से पहले वाली जिंदगी में था, इसलिए अकेलेपन से कभी डर नहीं लगा, लेकिन बच्चों के जाते ही घर अचानक बहुत बड़ा हो गया था। एक कमरे से दूसरे कमरे में जाओ तो लगता था पता नहीं कितनी दूर आ गए। खिलौने मैंने संभाल कर एक कमरे में रख दिए थे, लेकिन जब कभी उन पर नजर जाती थी तो लगता था वे मुझसे नाराज हैं, बात नहीं करना चाहते। टेडी बियर के चेहरे पर उदासी दिखती थी तो स्माइली चेहरे वाली मोटरकार की मुस्कुराहट भी बनावटी दिखती थी। मैं भी कुछ पूछता या कहता नहीं था उनसे, और अपने आप को किसी और काम में बिजी कर लेता था। बाहर वाले कमरे में नीचे बिछे गद्दे की चादर जो कभी शांत नहीं रही, उस पर अब कभी सिलवट नहीं पड़ रही थी। मैं जानता था कि अकेले घर में वक्त बिताना तनाव की वजह से 'आत्मघाती' हो सकता है, इसलिए तय किया कि बस सोने के लिए ही घर आया करूंगा। और फिर यही होने लगा।

अस्पताल
हफ्ते भर बाद ही छोटी दीदी की तबीयत बिगड़ी। 42-43 की उम्र में उन्हें प्रेग्नेंसी कॉम्पलिकेशन हो गई जिसके चलते अचानक अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। मेरे पास जब फोन आया तो ऑफिस छोड़कर मैं गंगाराम अस्पताल भागा। कुछ देर बाद दीदी को वहां लाया गया। डॉक्टर ने बताया कि ऑपरेशन करना पड़ेगा। अस्पतालों से ऐसा रिश्ता बन चुका था कि जब ऐसे मामलों में अस्पताल में होता था तो कम से कम घबराहट तो नहीं होती थी। आदत बन गई थी। ऑपरेशन के बाद दीदी को रूम में शिफ्ट कर दिया और रात को मैं घर आ गया। इसके बाद डॉक्टर ने दीदी को तीन महीने का फुल बेडरेस्ट बोल दिया। मम्मी हेल्प के लिए वहां पहुंच गई। पापा बड़े भाई के पास रुक गए।

अस्पताल फिर
महीना भर बीता। संडे का दिन घर पर बीतना होता था इसलिए पूरे हफ्ते मैं संडे को बिजी करने का सामान जुटाता था। संडे को कुछ देर से उठकर टीवी देखते हुए नाश्ता, झाड़ू, पोछा, बर्तन, कपड़े, शेविंग, नहाना धोना और खाने में शाम के 5 तो बजा ही देता था। 7 दिसंबर का संडे भी कुछ कुछ ऐसा ही था। शाम को नहाकर मैं टीवी के आगे बैठने का प्लान कर रहा था कि अचानक पत्नी का फोन आया। उठाते ही जैसी घबराई हुई आवाज सुनी, मैं सहम गया। पत्नी बस इतना बोल पा रही थी, फिर आ गया, फिर आ गया। मैं बार-बार कह रहा था कि शांत हो जाओ, आराम से बताओ क्या हुआ। फिर उन्होंने बताया कि हृदय को फिर फिट यानी दौरा पड़ गया है। घबराहट में वह उसके नाक में मिडासिप का स्प्रे भी ठीक से नहीं कर पाई। एक दो मिनट लंबा फिट बहुत डरावना होता है, लेकिन उसी वक्त अगर धैर्य से काम न करें, तो समस्या बढ़ जाती है। कायदे से, बच्चे को करवट दिलाकर उसके नाक में दो-दो स्प्रे मिडासिप के डालने होते हैं। और घबराहट में पत्नी ऐसा नहीं कर पाई। फिट अपने आप रुका तो मैंने फोन पर ही बुखार चेक करने को कहा। बुखार नहीं था। यह और ज्यादा चिंता की बात थी। इससे पहले दो फिट बुखार के साथ आए थे और ऐसे फिट को फैब्राइल सीजर कहते हैं। ये पांच साल में अपने आप ठीक हो जाते हैं, लेकिन इस बार फिट बिना बुखार आया। अफैब्राइल सीजर। ये खतरनाक संकेत होते हैं। मैंने डॉक्टर नवीन को फोन किया और बताया तो उन्होंने फिर वही ओहहो कहा। उनका कहना था कि वह पटना में हैं, लेकिन बच्चे को अस्पताल में दाखिल करना पड़ेगा। अब ईईजी और एमआरआई तो करना ही पड़ेगा। मैंने डॉक्टर तपीशा को फोन किया। उन्होंने कहा अस्पताल पहुंचो, मैं फोन कर देती हूं। मैंने पत्नी से कहा कि तुम अस्पताल पहुंचो, मैं कुछ ही देर में पहुंच जाऊंगा। पालम से मैक्स पटपड़गंज पहुंचने में कम से कम डेढ़ घंटा लगता है। मैं सर्द रात में तुरंत निकला। अस्पताल पहुंचा तो हृदय शांत था। रात 12 बजे उसे एडमिट किया गया। अगले दिन न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर रेखा मित्तल ने एमआरआई करवाया और फिर पता चला कि हृदय के ब्रेन में कुछ पैच दिखे हैं। यही फिट्स की वजह हो सकते हैं।

वेल्प्रिन
डॉक्टर रेखा ने कहा, बहुत सोच विचार के बाद तय किया है कि हृदय को वेलप्रिन शुरू की जाएगी। वेलप्रिन ब्रेन की दवाई है। इसे शुरू में दो साल के लिए दिया जाता है। दिन में दो बार। टाइम में कोई आगा पीछा नहीं। जिस वक्त देनी है, तो देनी है। एक भी डोज मिस नहीं होनी चाहिए। ऐसा हुआ, तो उसी दिन फिट आने की आशंका बन जाती है। फिर वेट के हिसाब से डोज होती है। 1.8 एमएल मतलब 1.8 एमएल। पॉइंट भर भी आगे पीछे नहीं। यह सुनकर बड़ा धक्का लगा। दो साल के लिए बच्चा और हम बंध गए। 9 बजे सुबह और 9 बजे शाम का वक्त तय हो गया। मैं बच्चों से दूर था लेकिन 9 बजे का टाइम जिंदगी में नश्तर सा घुस गया था। मैंने और मेरी पत्नी ने तय किया कि सुबह और शाम 9 बजे चाहे कहीं भी हों, बात करेंगे। कन्फर्म करेंगे कि दवाई दी कि नहीं। एक साल होने को है, कोई 9 ऐसा नहीं बजा जब मैंने कन्फर्म ना किया हो या पत्नी का मैसेज न आया हो। 10 मिनट का ग्रेस पीरियड है बस। दवाई देने का मैसेज नहीं आता तो मैं तुरंत कॉल करता हूं। 9 बजे किसी का फोन भी आ जाए तो बीच में ही काट देता हूं लेकिन यह नहीं भूलता कि दवाई कन्फर्म करनी है। पत्नी बच्चों में बिजी होने के कारण कभी मैसेज करना भूली नहीं कि हमारी खटपट शुरू।

वह काला दिन

दिसंबर का वह दिन मैं कभी नहीं भूलंगा। 9 दिसंबर को अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद भी हृदय की तबीयत ठीक नहीं हुई थी। उसे फिर बुखार ने पकड़ लिया जिससे यह डर गहराने लगाा कि कहीं फिर फिट न पड़ जाए। दो दिन से बुखार उतरा नहीं इसलिए डॉक्टर तपीशा ने कहा कि मेरे पास ले आओ। दवाई दी मगर तबीयत और बिगड़ती चली गई। चेकअप के दौरान ही हृदय उल्टियां कर रहा था। पत्नी के कपड़े उसकी उल्टी से भरे हुए थे। डॉक्टर ने उसे तुरंत अपने सीनियर डॉक्टर एस कुकरेजा के पास ले जाने को कहा। वहां डॉक्टर का इंतजार कर रही भीड़ के बीच सब बोल रहे थे कि कहीं कोई चूहा मरा हुआ है शायद, बहुत बदबू आ रही है। हम सहमे हुए से खड़े थे। बदबू वाइफ के कपड़ों से आ रही थी। हमारा पूरा ध्यान डॉक्टर के आने और हृदय को चेक कराने पर था। तमाम चेकअप के बाद डॉक्टर ने एक टेस्ट करवाने को कहा। इसमें पता चला कि कोई हेवी इन्फेक्शन है। फिर से हृदय को अस्पताल में एडमिट करवाना पड़ा। यानी डिसचार्ज के चार दिन बाद फिर। 13 दिसंबर को। आईसीयू में इलाज चल रहा था। हाई ग्रेड फीवर की वजह से डॉक्टर यह देखना चाहते थे कि कहीं बुखार दिमाग में तो नहीं चढ़ा। इसके लिए रीढ़ की हड्डी से सुई के जरिए पानी का सैंपल लिया जाता है। यह बहुत सेंसटिव टेस्ट होता है इसलिए बच्चा हिले न, इसके लिए उसे लोकल एनस्थीसिया दिया जाता है। यहीं गड़बड़ हो गई। एनस्थीसिया रिएक्ट कर गया और हृदय का शरीर नीला पड़ गया। दो मिनट तक उसके शरीर में सांस नहीं था। डॉक्टरों की टीम भी घबरा गई थी। जैसे-तैसे उसे ऑक्सीजन देकर, दवाइयों के इंजेक्शन देकर कवर किया गया। परमात्मा का शुक्र था कि सांस फिर आ गई और करीब 15 मिनट में हृदय नॉर्मल दिखने लगा। इसके बाद डॉक्टर ने बाहर आकर मुझे और पत्नी काे बताया कि अभी यह सब हो गया था। मैं सुन रहा था ध्यान से। बस यही पूछ पाया कि अब वह कैसा है? जवाब मिला कि ठीक है। तो और कुछ पूछने के लिए दिमाग इजाजत नहीं दे रहा था। डॉक्टर के जाने के बाद पत्नी की आंखें गीली और गला भरभराया हुआ देखा। उसे हौसला दिया। कहा अब सब ठीक है। अकेला हौसला दिए जा रहा था। आसपास कोई नहीं था जो मुझे हौसला दे सकता। इसलिए पत्नी को चुप करवाकर जरा सी ओट लेकर मैं रो लिया। मैं नहीं, एक बाप रो रहा था जो अपने बच्चों को तकलीफ से निकालने के लिए लड़ाई पर लड़ाई लड़ रहा था। फिर रहा नहीं गया। बड़े भाई को फोन किया और बोला कि एक बार आजा। वह पहुंचा तब तक खुद को संभाल चुका था। उसे कहा कि अब सब ठीक है।
बाहर सब ठीक था। अंदर कुछ दरक रहा था।

यह टेस्ट किसका था
इतना सब हो गया। बहुत डर लग रहा था। लेकिन वाइफ का हौसला बनाकर रखना जरूरी था। असल में तो वही संभाल रही थी दोनों बच्चों को। हार्दिक घर पर था। हृदय अस्पताल में। बीच-बीच में मैं हृदय के पास लेटता और वह घर जाकर हार्दिक को संभाल आतीं। उस दिन के अगले दिन जब वह घर गई हुई थीं तो डॉक्टर ने मुझसे कहा कि वह टेस्ट हो नहीं पाया लेकिन उसे बहुत जरूरी है उसे करना। मैं शॉक्ड था। जिस टेस्ट के चक्कर में यह सब हुआ, वह दुबारा करने की सोची भी कैसी जा सकती है? मैंने डॉक्टर तपीशा से बात की तो उन्होंने कहा कि एनस्थीसिया तो बिलकुल नहीं दिया जा सकता। फिर टेस्ट कैसे होगा? डॉक्टरों की एक टीम इस पक्ष में नहीं थी कि बिना एनस्थीसिया पंक्चर किया जाए और दूसरी टीम एनस्थीसिया रिपीट नहीं करवाना चाहती थी क्योंकि पहले यह रिएक्ट कर चुका था। दोनों ही तरफ यह तय था कि टेस्ट तो किया जाना है। यह बहुत बड़ी उलझन थी। काफी बहस मुसाहिब के बाद तय हुआ कि डॉक्टर रामलिंगम यह टेस्ट बिना एनस्थीसिया के करेंगे। मैं तो इस पर भी हैरान कि सुई लगाते ही बच्चा तो हिलेगा ही, और रीढ़ की हड्डी में सुई लगाना तो वैसे भी खतरनाक था। डॉक्टर राम और डॉक्टर तपीशा ने मुझे हौसला देते हुए बताया कि वह पहले भी ऐसे टेस्ट कर चुके हैं इसलिए चिंता न करूं। जब टेस्ट का टाइम आया तो मैं हृदय के बेड के पास ही था। डॉक्टर रामलिंगम ने कहा, डॉक्टर राम हैज कम। डोंट वरी। और बड़ी सी स्माइल की। दो नर्स को कमरे में जाने को कहा और कुछ सैंपल कलेक्टर लिए। मैं मन ही मन परमात्मा को सिमर रहा था। पांच ही मिनट बाद डॉक्टर राम बाहर आए और बोले हो गया। सब ठीक हो गया। अब मुस्कुराने की बारी मेरी थी।
बाद में मुझे पता चला कि यह टेस्ट पहले बिना एनस्थीसिया के ही होता था। डॉक्टर राम सफदरजंग में ऐसे कई टेस्ट करते रहे हैं। नए डॉक्टर यह खतरा उठाने को तैयार नहीं थे। पर डॉक्टर राम और डॉक्टर तपीशा कॉन्फिडेंट थे। मैंने थैंक्स किया और हृदय के पास चला गया। कुछ देर बार डॉक्टर तपीशा पहुंचीं और बोलीं, मैंने कहा था ना सब ठीक होगा।
खैर, बाद में कुछ टेस्ट से यह पता चल गया था कि हृदय को न्यूमोनिया है। सात दिन का एंटीबायोटिक का कोर्स हुआ और दो तीन दिन बाद उसके शरीर की तपिश कम होने लग गई। मैं हृदय को अस्पताल से उसकी नानी के घर ले गया। वहां हार्दिक इंतजार कर रहा था।

एक छोटा वाकया
वैसे यह वाकया छोटा सा है पर अस्पताल में आने जाने के बीच जो चल रहा था, उस लिहाज से इसका जिक्र बनता है। हृदय को अस्पताल से डिस्चार्ज करवाना था, उस दिन मुझे रुपयों की जरूरत थी। 19 दिसंबर 2014 को मैं ऑफिस आया था। वहां से करीब 8 हजार रुपये का कैश लेकर मैं बस से अस्पताल जाने के लिए चल दिया। पहले इतनी बार पर्स खो चुका था कि अब उसे पेंट की जेब में न रखकर, बैग में ही रखता था। पर तब दिमाग ऐसा चल रहा था कि पता ही नहीं चलता था कि क्या कर रहा हूं। लेने कुछ जाता था, और जाकर भूल जाता था कि क्या लेने आया। कभी बस से गलत स्टॉप पर उतर जाता था तो कभी स्टॉप मिस कर देता था। तो उस दिन पर्स को बैग में रखकर मैंने चेन बंद की या नहीं, याद नहीं लेकिन आइटीओ वाले स्टॉप से बस में चढ़कर मैं सचिवालय के स्टॉप को क्रॉस कर ही रहा था कि ध्यान बैग की खुली चेन पर गया। पर्स गायब था। जेबकतरा बस में ही था पर मैं कैसे समझता कि कौन है। लक्ष्मीनगर बस रुकी और वह भी उतर गया और मैं भी। पर्स में सारे ऑरिजनल आइडी कार्ड, एटीएम वगैरह थे। 8000 से ज्यादा कैश भी। कुछ सूझा नहीं। पुलिस स्टेशन पहुंचा और एफआईआर करवा दी। वक्त खराब हो रहा था क्योंकि हृदय को डिस्चार्ज करवाने का प्रोसेस भी शुरू करवाना था। जेब में पैसे नहीं थे। तब छोटे भाई को फोन किया और कार्ड ब्लॉक करवाया। उसने अपने दोस्त के हाथ गुड़गांव से रुपये भेजे। इस बीच मेरे पास एक फोन आया कि आपका पर्स यमुना बैंक मेट्रो स्टेशन पर मिला है। मैं वहां भागा। मेट्रो के एक स्टाफ ने मुझे पर्स दिया। उसमें कैश को छोड़कर बाकी सब कुछ सलामत था। यह भी राहत की ही बात थी। मैं वापस अस्पताल पहुंचा। वाइफ को यह कहकर बताया कि चिंता ना करना। रुपये आ जाएंगे। रुपये तो आ गए। पर यह खयाल दिमाग से जा नहीं रहा था कि परीक्षा ज्यादा ही सख्ती से ली जा रही है मेरी।

दुबारा अस्पताल जाते रहना था
दरअसल इसके बाद हृदय को कोई बड़ी दिक्कत तो नहीं हुई, लेकिन अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान एक टेस्ट बार-बार कोशिश के बाद भी नहीं हो सका था। ईईजी। इससे डॉक्टर को ब्रेन की हलचल नोट करनी थी। इसमें बच्चे को नींद की दवा देनी होती है और सोते हुए उसके सिर पर एक पेस्ट के जरिए कई सारे तार लगाए जाते हैं। इसके बाद कंप्यूटर पर उसे दर्ज किया जाता है। बच्चा जरा भी हिलना नहीं चाहिए। हृदय का यह टेस्ट करवाने के लिए पहले तो बेड पर ही मशीन लाई गई थी। लेकिन वह दवा की दो डोज देने के बाद भी सो नहीं रहा था। जैसे ही उसके सिर पर पेस्ट लगाया जाता, वह हिलाकर उसे हटा देता। जितनी डोज उसे दी थी, उससे ज्यादा दी नहीं जा सकती थी। इसलिए बिना टेस्ट किए वह चला गया। अस्पताल से जिस दिन छुट्टी दी गई] उस दिन फिर एक कोशिश की गई। तब भी यही हुआ। हैवी डोज के बावजूद वह ठीक से नहीं सोया। करीब 4 घंटे तक कोशिश के बाद फिर डॉक्टर ने कहा कि अभी टेस्ट नहीं हो पाएगा। इसलिए हम 9 जनवरी को घर से उसे ईईजी के लिए ले गए। उस दिन उसे पूरा दिन सोने नहीं दिया था ताकि दवा का असर जल्दी हो। खैर, जैसे-तैसे उस दिन यह टेस्ट हो गया और इसमें कोई बड़ी दिक्कत सामने भी नहीं आई। लेकिन न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर रेखा मित्तल ने एक चेकअप के दौरान हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी करवाने की सलाह दी। वजह यह थी कि वह चल नहीं पा रहा था। खड़ा होने में भी उसे तय समय से ज्यादा का टाइम लगा। हमें हालांकि वह नॉर्मल लग रहा था। फिर भी हम उसे ऑक्यूपेशनल थैरपिस्ट के पास ले गए। वहां रिव्यू के बाद उन्होंने कहा कि हृदय को बिलकुल इस थैरपी की जरूरत है। यह बहुत महंगी थैरपी है और इसके लिए रोज बच्चे को अस्पताल ले जाना था। यह आसान हो सकता था उन मांओं के लिए जिनके पास एक ही बच्चा हो। जिसका एक साल का एक और बच्चा हो वह कैसे रोज इस नियम को फॉलो करेगी, यह सोचकर मैं परेशान हो गया। लेकिन पत्नी ने कहा कि मैं कर लूंगी आप चिंता न करो। खैर, अब ऑक्यूपेशनल थैरपी का सिलसिला शुरू हुआ। तपती दुपहरी में उसे रोज अस्पताल एक घंटे के लिए ले जाया गया। हृदय के 18 महीने के होते-होते रिस्पॉन्स नजर आने लगा और वह पांव उठाने लगा। लेकिन थैरपी फिर भी कम नहीं हुई। दो महीने बाद बस उसके दिन कम होते गए। पहले सप्ताह में 6 दिन। फिर 5 दिन। फिर 4। ऐसे करते करते 4 महीने के बाद थैरपी बंद हुई। हृदय तब तक ठीक से चलने भी लगा था और उसका मुंह से पानी गिराने का सिलसिला भी कम हो गया था। वह कुछ कुछ शब्द बोलने भी लगा था। हालांकि हार्दिक उससे दो तीन महीने आगे निकल गया था। यानी जो काम हार्दिक सीख रहा था, हृदय उस तक दो तीन महीने बाद पहुंच रहा था। लेकिन डॉक्टर ने कहा कि यह सब चलता है।

बच्चों के मां बाप का हालचाल
बच्चों के साथ ही दिक्कत चल रही हो, ऐसा नहीं था। मैं और वाइफ दोनों भी लगातार चले आ रहे स्ट्रेस से टूटने लगे थे। वाइफ को बेहोशी आ जाती थी। डॉक्टर से बात करता था तो कहती थीं कि ब्लड प्रेशर बहुत कम रहता है जिसकी वजह से ऐसा होता होगा। जो दवाइयां दी जातीं वह ले लेतीं। यह सब देख देखकर मैं स्ट्रेस में आने लगा। लेकिन मेरी जिद हमेशा हार न मानने की रही। इस जिद का असर शरीर पर तो आ ही रहा था। हाइपरटेंशन की दवा 33 की उम्र में शुरू होना डॉक्टर और मेरे लिए बड़ी बात थी। बैड कॉलेस्ट्रॉल बढ़ा हुआ था। नमक और तली हुई चीजों पर रोक लग गई, वहीं दूसरी तरफ घर में कोई खाना बनाकर देने वाला नहीं था। बाहर का खाता था तो तबीयत सुधर नहीं पाती थी। कमर और हाथ में ऐसा दर्द रहने लगा था कि कोई पेन किलर काम नहीं करती थी। फिर एक दिन तय किया कि मुझे कुछ हो गया तो फिर इस लड़ाई में हार तय है इसलिए पहले खुद को सही करना पड़ेगा। प्रॉपर तरीके से दवाई लेनी शुरू की। खाने पर लगाम लगाई। जिम जॉइन किया। दो महीने में कुछ असर दिखना शुरू हो गया। इसके बाद मैं अपने शरीर पर कंट्रोल करता चला गया। उधर, वाइफ की तबीयत में भी सुधार दिखने लगा। जैसे ही हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी खत्म हुई मैं, बच्चों को अपने पास लाने की प्लानिंग करने लगा। कभी एक सप्ताह तो कभी पंद्रह दिन। कभी बुआ की हेल्प ली तो कभी किसी की।

मुसीबतें बस इतनी भर नहीं थी। और भी बहुत सी लड़ाइयां थीं जो गले आन पड़ी थीं। इन हालात में उनका सामना करना उलझन बढ़ाने वाला था। लेकिन जब बड़े टारगेट सामने हाें तो ऐसी लड़ाइयों में हार मानने का सवाल नहीं होता। इसलिए सब लड़ाइयां लड़नी जरूरी थीं। सब लड़ीं। रास्ता सचाई का हो तो लड़ना मुश्किल जरूर होता है, पर तब हार रोकने की जिम्मेदारी ऊपरवाले की होती है। वह आपको हारने नहीं देता।

ये आखिरी दो महीने

सितंबर में बुआ ने हां भर ली कि दो महीने मैं तेरे पास लगा लूंगी। मैं बच्चों और वाइफ को ले आया। बुआ के साथ दो महीने बीते। बच्चे बहुत महीनों बाद घर आए। रहे। खेले। उनकी शरारतों को इतना करीब से देखा। उन्हें बड़े होते ठीक से देख नहीं पा रहा था इसलिए अब उनकी हर हरकत को मैं नोट कर रहा था। वाइफ से जब भी बात होती, वह एक ही शिकायत करती, पूरा दिन पापा पापा की रट लगाकर रखते हैं। मेरे लिए यह मजे की बात होती। ऑफिस से घर पहुंचने का टाइम होते ही दोनों गेट के पास लेटकर पापा पापा की आवाज लगाते। कई बार आधा आधा घंटा यही करते रहते। मैं जब देर से घर आता तो वाइफ मुझे यह सब बताती। घर पहुंचते ही वे मुझसे लिपट जाते। उनमें होड़ होती कि कौन मुझे पानी लाकर देगा और कौन मुझे चेंज करने के लिए कपड़े पकड़ाएगा। जब तक यह नहीं कर लेते, मेरे पास से सरकते नहीं। और उस वक्त उन्हें यह सब करने से रोकने की हिम्मत घर में किसी की नहीं थी। वरना रो-रोकर सिर पर घर उठाना तय था। इसके बाद हार्दिक इशारे से मुझे उस कमरे में चलने को बोलता जिसमें नीचे गद्दे लगाए हुए थे। वहां मैं घोड़ा बनता और वह दोनों मुझ पर सवारी करते। हार्दिक हृदय को धक्का देकर गिराता तो हृदय मेरे गाल पर हाथ लगाकर उसकी शिकायत इशारे से करता। वह कुछ शांत स्वभाव का है। हार्दिक इन दो महीनों में पक्का बदमाश बन गया। उसे कुछ करने से रोकने का मतलब था कि वह काम तो अब वह करेगा ही। चलते कूलर में हाथ देने की कोशिश की तो मैंने सूतली लाकर पूरी विंडो पर मानो एंब्रॉयडरी कर दी। ताकि उनका हाथ कूलर तक न पहुंचे। फिर तार को खींच कर काट दिया तो दिन में कूलर चलाना ही बंद कर दिया। वह खिड़की की जाली पकड़कर 6-7 फुट ऊंचा चढ़ने लगा था। डर लगता था कि गिर न जाए पर मना करने पर और ज्यादा करता था। हृदय से खिलौने छीन लेना या उसे गिरा देना तो उसका मिनटों का गेम था। हालांकि कान पकड़कर सॉरी भी झट से बोल देता था और गिरेबान पकड़कर पुच्च से गाल पर पारी भी टांक देता था। हृदय को प्यार करो, यह कहते ही वह उसके गाल पर पारी करता और उसे बाहों में भर लेता। यह देख हम हंसते। बुआ को सुनाई नहीं देता। तो दोनों इशारों से उनको समझाते कि मंदिर जाएंगे, सैंडल पहना दो। दोनों हाथ हिलाकर बोलते टन टन। मुंह में उंगली लगाकर बताते कि प्रशाद खाएंगे। डर उन्हें किसी चीज का नहीं था। न बिल्ली का न सांप का। न छिपकली का न सीटी वाले बाबा का। एक दिन हार्दिक ने खुद को कमरे में बंद कर लिया। अंदर अंधेरा था। जब फटकर रोया तो मेरे माथे से पसीना टपकने लगा। मैंने कुछ कोशिश की लेकिन दरवाजा नहीं खुला तो वाइफ ने समझाकर उससे सटकनी खोलने के लिए बोला। उसने आखिर सटकनी खोल दी। इसके बाद मैंने नीचे की सारी कुंडियां सील कर दीं। उनकी शरारतों की लिस्ट इतनी लंबी बन गई कि यहां पूरी तरह लिखना आसान नहीं इसलिए सब फोटो खींच कर रख लिए। 26 अक्टूबर आ गया। मैंने घर में गुब्बारे लगाए। इस बार बच्चों ने मदद की। बुआ के दो महीने पूरे हो गए थे। मम्मी एक हफ्ते के लिए आई थीं। जन्म दिन के तीन दिन बाद फिर से बच्चे नानी के पास चले गए। मम्मी घर चली गईं। और मैं अपनी दिनचर्या में। इस उधेड़बुन में कि बच्चों को फिर घर लाना है इसलिए कैसे सारा इंतजाम करना होगा।

एक प्रैक्टिकल बात

बच्चे फूल होते हैं। बस प्यार करने के लिए। लेकिन इंसानी स्वभाव बस प्यार से नहीं बना। उसमें गुस्सा, झुंझलाहट, चिड़चिड़ाहट, हताशा और थकावट भी शामिल है। बच्चों को एक साथ पालने की जद्दोजहद में ये कई बार हावी हुए। कई बार हम बच्चों पर झुंझलाए। एक बार वाइफ ने किसी बात पर हार्दिक को चपत लगा दी। शायद चपत अंदाजे से कुछ ज्यादा लग गई। मैं ऑफिस से घर लौट रहा था। वाइफ का फोन आया और वह बहुत रोई। उसने कहा कि आज बहुत बड़ी गलती हो गई। मैंने समझाया कि कोई बात नहीं, आगे से ध्यान रखना। अपराधबोध घातक होता है। उसे कम करना जरूरी होता है। मैंने वही किया। कई बार मेरे साथ भी ऐसा हुआ। मुझे बच्चों पर गुस्सा आया। कई बार हमारी नींद पूरी न होने के कारण चिड़चिड़ाहट हुई तो कई बार दूसरे हालात के चलते। हम एक दूसरे पर भी झुंझलाए। बहुत सोचा कि इस दौर में ऐसा क्यों। तो एक ही बात समझ में आई कि हममें सब अच्छा अच्छा ही नहीं होता। इंसानी कमियां हममें भी हैं। इनको भी समझना पड़ेगा। इनसे भी निपटना पड़ेगा। यह लिखने का मकसद बस इतना भर है कि हम जब यह समझने लगते हैं कि हम सब कुछ परफेक्ट तरीके से करेंगे तो दबाव बढ़ जाता है। गलतियां होती हैं, इनसे दबाव में नहीं आना चाहिए।

दूसरा साल

पहले साल के हालात से दूसरे साल के हालात बहुत अलग थे। दूसरा साल भी संघर्ष से भरा हुआ था लेकिन यह अलग तरह का संघर्ष था। रिश्तों के नए आयाम दिख रहे थे, हालात की बेरहम रफ्तार दिख रही थी, बेबसी के आगे हिम्मत के रगड़ते घुटने दिख रहे थे, लेकिन उम्मीदें और जिम्मेदारियां यहां भी लड़ते रहने और हार न मारने के लिए रोज कान में आवाज दे रही थीं। सीखने का सिलसिला चल रहा था। यह और बात है कि कितना सीख सके कितना नहीं। फिर भी जो न भूलने या पल्लू बांधने वाली बातें थीं, उसे लिख लेना बेहतर है।

@ बेबसी बहुत तकलीफ देती है। हालात में बहुत दम होता है। ये हिम्मती से हिम्मती इंसान को भी बेबस कर सकते हैं। फिर भी, बेबसी चाहे कितनी भी हो, खड़े रहना चाहिए। इस उम्मीद के साथ कि बेबसी का दौर बीतेगा।

@ रिश्ते स्वार्थों से भी बंधे हैं और हालात से भी। ये हिम्मत देने और लड़ने में बहुत मददगार होते हैं। लेकिन कोई भी लड़ाई किसी दूसरे के बूते नहीं जीती जा सकती। दम खुद में होना जरूरी है। निर्भरता खुद पर ही रखनी चाहिए। साथ कब किसका छूट जाता है, पहले से कभी नहीं कहा जा सकता। इसलिए खुद को यह यकीन दिलाते रहना चाहिए कि जिंदगी का सफर खुद का है, किसी दूसरे के पैरों के सहारे मंजिल नहीं मिलेगी। अपने पांव मजबूत रखिए। बस। लाठी डंडा सहारे भर के लिए हो सकते हैं। रफ्तार खुद बनाकर रखनी पड़ती है।

@ हालात झुकाते हैं। झुकने में बराई नहीं। लेकिन अपना जमीर जिंदा रखना जरूरी है। कई बार हालात आपके जज्बे की भी परीक्षा लेते हैं। वे देखना चाहते हैं कि कितना प्रेशर आप झेल सकते हो। झुकना सीख लेना चाहिए, लेकिन यह भी सीखना जरूरी है कि कहां नहीं झुकना है। सही गलत की पहचान अपना जमीर ही करता है। झुकने से पहले उससे पूछ लेना चाहिए। बाकी, हालात झुकना सिखा देते हैं। अहम होता है तो टूटता भी है। चाहे किसी का भी क्यों न हो।

@ कुछ हालात ऐसे होते हैं जिनके सामने समझौता ही सही विकल्प होता है। खुद से लड़ते रहने की जिद अक्सर खुद को ही नुकसान पहुंचाती है। सब कुछ अपनी पसंद का नहीं हाे सकता। और अपनी पसंद से ही जीने की जिद तो कभी साधुओं संन्यासियों को ही खुश नहीं रहने देती, हम तो फिर भी गृहस्थ हैं। कोशिश करो, पूरे दम से करो, फिर जो फल मिले, कबूल लो। अपनी पसंद के फल के लिए लड़ते रहने वाली लड़ाइयां अक्सर खुद को खत्म करने की जिद कहलाती हैं।

@ हिम्मत बड़ी चीज है। बड़ी से बड़ी लड़ाई इसी के बूते लड़ी और जीती जा सकती है। धैर्य हिम्मत बढ़ाने का टॉनिक है। हालात जब एकदम खिलाफ हों तो चुपचाप उसे देखते रहना चाहिए। हिम्मत बटोर कर खुद को खड़ा रखना चाहिए। अक्सर तूफान कुछ वक्त के होते हैं। जो खुद को थामे रखते हैं, वही बचते हैं। बस, इस कुछ देर के लिए खुद को थामे रखने के पीछे ही जीत खड़ी होती है। यही सबसे मुश्किल भी है और यही सबसे जरूरी भी।

जिंदगी सफर है, इसे पूरा करना हमारा धर्म भी है और जिम्मेदारी भी। हालात, लड़ाई, साथ, जुदाई, खुशी, नाखुशी सब कुछ अपने हाथ में नहीं। इसलिए हालात हालात पर निर्भर करता है कि आपका कदम क्या हो। उसी के हिसाब से तय करना चाहिए।

बाकी तो जो सीखा, वह दिल में और जो झेला वह जेहन में रहेगा ही। शुक्रिया उस परमात्मा का जो बुरे वक्त में सिर पर हाथ धरता रहा। शुक्रिया मेरी जीवनसंगनी का, जिसने मुझसे बड़ी लड़ाई लड़ी और यहां तक पहुंचाया। शुक्रिया उन सबका जिन्होंने इस वक्त में साथ दिया। उनका भी जिन्होंने साथ न देकर कुछ सिखाया। शुक्रिया हालात का जिन्होंने रहम भी किया। और शुक्रिया अपने आप का, जो हारा नहीं। माफी उन सबसे जिनको हालात के चलते उनका हक नहीं दे सका। और उनसे, जिनके प्रति जाने अनजाने गलतियां कीं।

प्यार और आशीष मेरे बच्चों के लिए। दुआ परमात्मा से कि उनको खुश जिंदगी दे। प्रार्थना भी, कि जब तीसरे साल के लिए लिखूं तो खुशियां ज्यादा लिखूं।