Friday, March 21, 2014

तमन्ना तुम कहां हो



हमारे प्रफेशन में कहा जाता है कि खबर यहां वहां हर कहीं बिखरी पड़ी होती हैं, सूंघना आना चाहिए। यह सुनते और देखते बहुत वक्त हो गया। कई रिपोर्टरों को देखा भी ऐसा करते। लेकिन सतह पर साफ पानी सी तैरतीं घटनाओं के भीतर कितनी व्याकुल तस्वीरें होती हैं, ये कम ही लोग देख पाते हैं। कुछ वक्त पहले निधीश जी की किताब आई, तमन्ना तुम अब कहां हो। किताब तब आई जब जिंदगी में ज्वारभाटों का दौर चल रहा था इसलिए पढ़ने का मौका नहीं मिला। बस व्याकुलता बनी रही कि निधीश जी की किताब आई है तो पढ़नी जरूर है। फेसबुक पर समीक्षाएं पढ़ पढ़ कर यह व्याकुलता बहुत व्यग्र हो चुकी थी। कुछ दिन पहले पता चला चंद्रभूषण जी के पास यह किताब है तो उनसे मांग ली। निधीश जी की कविताएं पहले से पढ़ता रहा हूं इसलिए मन में डर था कि जब किताब पढूंगा तो ठीक वैसी घबराहट और बेचैनी से सामना होगा जैसी अमृता प्रीतम का नॉवल कोरे कागज पढ़ते वक्त हुई थी। खैर, अब किताब का कुछ हिस्सा पढ़ लिया है। मेरा डर सही था इसलिए बीच बीच में पढ़ना बंद कर देता हूं। छटपटाहट होती है। कुछ सचाइयों का इलाज एसकेपिज्म ही होता है।
किताब में नए तरह का लेखन है। एक एक लाइन में पूरी पूरी कहानी है। पढ़ते हुए लगता है जैसे निधीश जी कह रहे हों, शब्द कम खर्च करके भी बात पूरी कही जा सकती है। वह अलग अलग अखबारों और वेब साइट्स के एडिटर रहे हैं। मेरे ब्लॉग में पहले भी कई जगह मैंने उनका जिक्र किया है। उनके साथ काम किया है, यह मैं अक्सर इतरा कर बताता हूं। लग रहा है कि यह बुक पढ़ने के बाद मेरी इतराहट और बढ़ेगी। इसकी कुछ झलकियां ब्लॉग पर साझा करके मैँ इसे उपकृत करना चाहता हूं। यह कहते हुए कि यह बुक जरूर पढ़ना। पढ़ते वक्त जरूर कुछ न कुछ, किसे न किसे, मिस करोगे। बुक नहीं पढ़ी तो बहुत कुछ मिस कर दोगे।


एक दो लाइन की कहानियां

1 मुझे दस साल लगे अपने हिंसक पति को छोड़ने में। अब वह कसमें खा रहा है कि वह बदल गया है और मुझे वापस चाहता है। आख़िर अब न कहने में इतनी दिक्कत क्यों हो रही है।


2 जब मेरे बच्चे मुसीबत लगने लगते हैं, तो मैं बांझ औरतों के ब्लॉग्स पढ़ती हूं और ख़ुद को फिर भाग्यशाली मानने लगती हूं।


3 मुझे कैंसर है जिसमें 4 फीसदी लोग ही 5 साल से ज्यादा बचते हैं। मैं इतना अकेला हूं कि शॉवर में खड़ा होकर रोज़ रोता हूं।


रेडियो पर गाना
देर रात पार्टी से लौटते वक्त उसकी कार के रेडियो में वह गाना बजने लगा। बाहर बारिश हो रही थी। उसने गाड़ी सड़क के किनारे लगा ली। और गाना ख़त्म होने के थोड़ी देर बाद तक स्टार्ट नहीं की। वह रोना चाहता था। पर फिर उसे लगा कि वह नशे में है। उसने रेडियो बंद कर दिया। खिड़की खोल दी। बारिश का पानी भीतर आने लगा। वह ज़ोरों से अपने बेसुरे गले से उस गाने का फटा बांस करने लगा।


न नज़रें चुराईं

वह दोपहर की शिफ्ट में अखबार में बैठा काम कर रहा था। यकायक उसे लगा उसकी कुर्सी को किसी ने धक्का दिया है। पर कोई नहीं था। मुड़कर देखा तो किसी ने कहा अर्थक्वेक। उनका दफ़्तर पहली मंज़िल पर था। सभी बाहर भागे। वह अंदर की तरफ। जहां वह बैठती थी। फिर वे दोनों बाहर निकले। बिना हाथ में हाथ लिए। पर बिना नज़रें चुराए। सिर्फ़ एक झेंप के साथ कि कहीं कोई देख लेता तो लोग क्या कहते। जान बचाने की सभी को फिक्र थी। किसी ने नोटिस नहीं किया। उसके बाद वह उस पर थोड़ा ज़्यादा मरने लगी। और उसके लिए वह थोड़ा और कीमती हो गई।