Wednesday, September 22, 2010

हमें फिर चाहिए वैसी ही मुहब्बत

ब्लॉग पर आए बहुत दिन हो गए। व्यस्तताओं ने नहीं आने दिया। बहुत मन था निदा फाजली का कुछ शेयर करने का। उनके लि‍खे इस आर्टिकल को आखिर आज ब्लॉग तक लाने में कामयाब हो गया। ज्यादा कुछ कहे बगैर इसे आप तक ला रहा हूं। इतना जरूर है कि 4 जुलाई 2007 को इसे जब दैनिक भास्कर के संपादकीय पन्ने पर पढ़ा था तो इसे सहेजने में एक मिनट भी नहीं लगा। मुहब्बत पर इतनी बारीक और संवदेनशील नजर सीधे दिल तक दस्तक देती है। आप भी पढि़ए

अक्सर प्रेमी जोड़े पति-पत्नी बनने के बाद प्रेमी नहीं रहते, खरीदी हुई जायदाद की तरह एक-दूसरे के मालिक हो जाते हैं। दोनों एक-दूसरे की कानूनी जायदाद होते हैं, जिसमें तीसरे का दाखिला वर्जित होता है, समाज में भी, अदालतों में भी और नैतिकता के ग्रंथों में भी। वह आकर्षण जो शादी से पहले एक-दूसरे के प्रति नजर आता है, कई बार के पहने हुए वस्त्रों की तरह बाद में मद्धिम पड़ता जाता है। मानव के इस मनोविज्ञान से हर घर में शिकायत रहती है। कभी-कभी यह शिकायत मुसीबत बन जाती है। दूरियों से पैदा होने वाला रोमांस जब नजदीकियों के घेरे में आकर हकीकत का रूप धर लेता है तो रिश्तों से सारी चमक-दमक उतार लेता है। इसके बाद न पति आकाश से धरती पर आया उपहार होता है और न पत्नी का प्यार खुदाई चमत्कार होता है... मेरी एक गजल का शे’र है:
देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद
वो कौन है, जिससे तेरी सूरत न मिलती...

हिंदी कथाकार शानी की एक कहानी है, जिसका शीर्षक है ‘आंखें’। इसमें ऐसे ही एक प्रेम विवाह में फैलती एकरसता को विषय बनाया गया है। दोनों पति-पत्नी बासी होते रिश्ते को ताजा रखने के लिए कई कोशिशें करते हैं। कभी सोने का कमरा बदलते हैं, कभी एक-दूसरे के लिए गिफ्ट लाते हैं, कभी आधी रात के बाद चलने वाली अंग्रेजी फिल्मों की सीडी चलाते हैं... मगर फिर वही बोरियत... अंत में कथा दोनों को एक पब्लिक पार्क में ले जाती है। दोनों आमने-सामने मौन से बैठे रहते हैं। इस उकताहट को कम करने के लिए पति सिगरेट लेने जाता है। मगर जब वापस आता है तो उसे यह देखकर हैरत होती है कि पत्नी से जरा दूर बैठा एक अजनबी उसकी पत्नी को उन्हीं चमकती आंखों से देख रहा होता है, जिनसे विवाह पूर्व वह कभी उस समय की होने वाली पत्नी को निहारता था। अर्थशास्त्र का एक नियम है : वस्तु की प्राप्ति के बाद वस्तु की कीमत लगातार घटती जाती है। प्यास में पानी का जो महत्व होता है, प्यास बुझने के पश्चात वही पानी उतनी कशिश नहीं रखता। मेरी एक कविता है:
पहले वह रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फिर...
जिस्म से बिस्तर बनके
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको कमरे में घुटा सन्नाटा
वक्त-बेवक्त उठा लेता है
खोल लेता है बिछा लेता है।

बूढ़े गालिब के युग के जवाब शायर दाग देहलवी थे। उनके पिता नवाब शम्सुद्दीन ने ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी को गोली से उड़ा दिया था। नवाब साहब को फांसी दी गई और उनकी पत्नी अपने पांच साल के बेटे को रामपुर में अपनी बहन के हवाले करके, जान बचाने के लिए इधर-उधर भागती रहीं। जहां-जहां उन्हें मदद मिली, वहां-वहां इसकी कीमत उन्हें अपने शरीर से चुकानी पड़ी, जिसके नतीजे में दाग के एक भाई और बहन अंग्रेज नस्ल से भी हुए। यह अभागिन महिला आखिर में, आखिरी मुगल सम्राट के होने वाले जानशीन मिर्जा फखरू की निगाह में आई। यह 1857 से पहले का इतिहास है। महल में आने के बाद मां को रामपुर में छोड़े हुए बेटे की याद आई और किस्मत-बदकिस्मत बेटे को रामपुर से लालकिले में ले आई, 1857 से एक साल पहले मिर्जा फखरू का देहांत हुआ - और उसके बाद मां और बेटा दोनों फिर से बेघर हो गए। दाग उस वक्त 23-24 वर्ष के थे... वह शायर बन चुके थे - मशहूर हो चुके थे। शायरी ने उस समय के रामपुर नवाब को उन पर मेहरबान बनाया और उन्होंने फिर से घर बसाया... रामपुर में हर साल एक मेला लगता था, जिसमें देश की मशहूर तवायफें अपने गायन और नृत्य का प्रदर्शन करती थीं, उन तवायफों में एक नवाब साहब के भाई की मंजूरेनजर (प्रेमिका) थी। दाग का दिल उसी पर आ गया। उसका नाम था मुन्नीबाई हिजाब। दिल की दीवानगी में अक्ल शामिल नहीं होती।
इस दीवानगी में वह घर से बेघर भी हो सकते थे - जान भी खतरे में पड़ सकती थी, लेकिन मुहब्बत की दीवानगी, पत्नी के मना करने के बावजूद, उनसे नवाब साहब के नाम एक खत लिखवा देती है। खत में लिखा गया था, ‘नवाब साहब आपको खुदा ने हर खुशी से नवाजा है, मगर मेरे लिए सिर्फ एक ही खुशी है और वह है मुन्नीबाई...।’ नवाब, दाग की शायरी के प्रशंसक थे... उन्होंने मुन्नीबाई के द्वारा ही उत्तर भिजवाया। उत्तर में लिखा था - दाग साहब, हमें आपकी गजल से ज्यादा मुन्नीबाई अजीज नहीं हैं। मुन्नीबाई दाग साहब की प्रेमिका के रूप में उनके साथ रहने लगी, लेकिन जब मन में धन का प्रवेश हुआ तो मन बेचारा बंजारा बन गया और मुन्नीबाई उन्हें छोड़ कर चली गई - दाग का शे’र है:
तू जो हरजाई है अपना भी यही तौर सही
तू नहीं और सही और नहीं, और सही...

यूरोप में रिश्तों की इस उकताहट को कॉनजुगल बोरडम कहते हैं - पति-पत्नी के संबंध की इस तब्दीली ने ही कोठों या तवायफ की संस्कृति को जन्म दिया था। कुछ साल पहले तक पत्नी के होते हुए किसी वेश्या से संबंध रखने को बुरा नहीं समझा जाता था। इस्मत चुगताई ने इस परंपरा के विरोध में ‘लिहाफ’ नामक कहानी लिखी, जिसमें पत्नी का एकांत उसे लेसबियन बना देता है। देश-विदेश की जितनी भी बड़ी प्रेम कथाएं हैं, जिन पर महान काव्यों की रचना हुई है, उनमें कोई कथा पति-पत्नी के पात्रों में नजर नहीं आती। हीर-रांझा हो, लैला-मजनू हो, सोहनी-महिवाल हो या शीरी-फरहाद, इन सबका अंत मिलन पर नहीं, वियोग पर होता है। मुगल शासनकाल में केवल दो अपवाद नजर आते हैं - एक जहांगीर और नूरजहां का प्यार... और दूसरा खुर्रम और अरजुमन्द बानो का प्रेम, लेकिन जहांगीर और उसके सुपुत्र शाहजहां के इश्क में एक अंतर भी है - नूरजहां शेर अफगन की पत्नी थी, जो बाद में जहांगीर की मलिका बनी। नूरजहां से जहांगीर की कोई संतान भी नहीं है।
खुर्रम (जो बादशाह बन कर शाहजहां के नाम से जाने जाते हैं) और अरजुमन्द (जो बाद में मुमताज महल बनी) का इश्क भी पति-पत्नी का इश्क है, लेकिन वह शाहजहां के 13 बच्चों की मां बनकर भी बरकरार रहा। यह प्रेम संसार का एक अजूबा है, मुमताज महल का निधन चौहदवें बच्चे के जन्म के समय हुआ था। वह बुरहानपुर में मरी थी। वहीं उन्हें दफन भी किया गया था, लेकिन मरी हुई मुमताज से शाहजहां की मुहब्बत को मौत भी खत्म नहीं कर पाई। वह मुमताज की कब्र को भी अपने करीब ही रखना चाहता था। इसीलिए उसे बुरहानपुर में उसकी कब्र से निकलवा कर जमना के किनारे ताजमहल में दोबारा सुलाया गया...। औरंगजेब ने जब शाहजहां को कैद कर लिया था तो वह कैदखाने की एक खिड़की से मुमताज के ताजमहल को ही देखा करता था, शाहजहां और मुमताज जैसी मुहब्बत की आज हमारे संसार को ज्यादा जरूरत है।

फोटो - साभार गूगल

Sunday, July 25, 2010

जो बात खो जाती है ....

मेरा मानना है कि साहित्य का हर हिस्सा कहीं न कहीं अपने आप से बातचीत की ही उपज होता है। कविता को खा़स तौर से मैं इसी नजरिए से देखता हूं। सलिलक्वि की इस खूबसूरत तस्वीर (कभी-कभी नहीं भी) में एक रंग उन बातों का होता है, जो अक्सर हम तक सीमित न रहने की जिद पाल लेती हैं, लेकिन आखिरकार ऐसा कर नहीं पातीं। आसान शब्दों में कहूं तो, वे बातें जो अक्सर जु़बां पर आते-आते कहीं खो जाती हैं। ऐसा नहीं है कि इन खो चुकी बातों का कोई अर्थ नहीं होता। मुझे तो लगता है कि कभी-कभी इनके मायने कही गई बातों से भी ज्यादा होते हैं। कभी-कभी ये इतनी खू़बसूरत होती हैं कि इन्हें याद कर बरबस ही होंठों पर मुस्कान तैर जाती हैं। इन बातों की एक और खा़स बात होती है और यह उन्हें बाकी बातों से अलग करती हैं। जो बातें हम अपने आप से ही करते हैं, अक्सर उनका पता किसी और को नहीं चलता, लेकिन जो बातें जु़बां तक आते आते रुक जाती हैं, अक्सर दूसरे भी उन्हें पढ़ लेते हैं। और वे सदा-सदा के लिए हमारे जेहन में कैद होकर रह जाती हैं। बात कुछ उलझी हुई सी लग सकती है। अगर ठीक से समझा नहीं पाया होऊं, तो माफी चाहूंगा। निदा फाज़ली की एक नज्म़ इस बात को ज्यादा बेहतर ढंग से समझा सकती है। मुझे यह बहुत पसंद है। इसे आपसे शेयर कर रहा हूं। मित्र वरुण वशिष्ठ ने इसके लिए यह खू़बसूरत इलस्ट्रेशन बनाया है।

उसने
अपना पैर खुजाया
अंगूठी के नग को देखा
उठ कर
खाली जग को देखा
चुटकी से एक ति‍नका तोड़ा
चारपाई का बान मरोड़ा
भरे पूरे घर के आंगन में
कभी-कभी वह बात
जो लब तक
आते आते खो जाती है
कि‍तनी सुंदर हो जाती है।




इलस्ट्रेशन : वरुण वशिष्ठ

Monday, June 28, 2010

तो रोने लगती है मां...


बिजी होने के कारण लंबे समय से ब्लॉग पर कुछ नहीं डाल सका। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस दौरान खुद से बातचीत का सिलसिला कभी थमा। उलटा, बातचीत की एक अजीब कड़ी बन गई, जिसका वर्णन अभी शायद ठीक से न कर सकूं। बहरहाल, एक संयोग का जिक्र जरूर करना चाहूंगा। पिछली पोस्ट के बाद सोचा था कि कुछ साल पहले 6 मई को भास्कर के रसरंग में पढी़ एक कविता पोस्ट करूंगा। एक डायरी में नोट वि‍जयशंकर चतुर्वेदी की इस कविता को कंपोज़ करने का वक्त तो तभी मिल गया था, लेकिन उसके बाद से किसी न किसी वजह से इसे लाइव नहीं कर सका। इस करीब एक महीने के दौरान जो कुछ जिया और जो कुछ आसपास देखा, अब लग रहा है कि वह इसी कविता में कहीं छिपा हुआ था। इसे पढ़ता हूं, तो लगता है ज़िंदगी ज़ज्बात का एक दरिया ही तो है। देखने वाले इसे अपनी-अपनी नज़र से देखते हैं। किसी को यह बहता हुआ पानी लगता है, तो किसी को बहा कर ले जाता पानी। हममें से ज्यादातर शायद ऐसे होंगे, जिसे यह देखने की फुर्सत ही न मिलती हो कि ऊपर से बहते दिखते इस पानी के अंदर बहुत कुछ ठहरा हुआ होता है। पानी की यह पर्दादारी हममें से ज्यादातर की ज़िंदगी का हुनर बन चुकी है। ऊपर से बहता हुआ दिखने के लिए हम अपने भीतर ठहरी हुई किसी बूंद को अक्सर छिपाए रखते हैं। बेशक, कुछ ठहरी हुई बूंदें मोती भी बनती हैं, लेकि‍न अक्सर ये बूंदें किसी न किसी ज़ज्बात की अगुवाई करती हुई खुद ही सबके सामने आ जाती हैं। पर्दानशीं अक्सर बेपर्दा हो जाते हैं...



सयाने कह गए हैं
रोने से घटता है मान
गि‍ड़गि‍ड़ाना कहलाता है हाथि‍यों का रोना
फि‍र भी चंद लोग रो-रोकर
काट देते हैं ज़िंदगी
दोस्तों, खुशी में भी अक्सर
नि‍कल जाते हैं आंसू
जैसे कि‍ बहुत दि‍नों के बाद मि‍ली
तो फूट-फूटकर रोने लगी बहन

वैसे भी यहां रोना मना है
पर बताओ तो सही कौन रोता नहीं है?
साहब मारता है, लेकि‍न रोने नहीं देता
कुछ लोग अभि‍नय भी कर लेते हैं रोने का
लेकि‍न मैं जब-जब करता हूं
शादी की चर्चा
तो असल में रोने लगती है बेटी

आसान नहीं है रोना
फि‍र भी खुलकर रो लेता है आसमान
नदि‍यां तो रोती ही रोती हैं
पहाड़ तक रोता है
अपनी किस्मत पर
लेकि‍न बड़ी मुश्किल है
मेरे रोने में
कभी मन ही मन रोता हूं
तो रोने लगती है मां ...



इलस्ट्रेशन : गि‍रीश

Sunday, June 13, 2010

गाल से चि‍पका टेड्डी बियर

कभी-कभी बहुत साधारण से लगने वाले दृश्य भी बहुत गहरा प्रभाव छोड़ देते हैं। आपने गौर किया होगा कि अक्सर कविताओं, गज़लों या साहित्य की अन्य विधाओं में कुछ ऐसे दृश्यों का जिक्र होता है, जो कहने को तो हम रोज देखते हैं, लेकिन उस नज़र से कभी नहीं, जिससे उस कवि या रचनाकार ने उसे देखा होता है। जो कुछ हम अक्सर देखते हैं, उसमें कुछ खोज पाने की गुंजाइश के बारे में कभी सोचते नहीं। शायद इसलिए कि हमें लगने लगता है, मानो ये तो रोज की बात है, इसमें भला ऐसा क्या होगा, जिसे सहेजा जा सके। मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है। कई बार ऐसी कविताएं या दूसरी चीजें पढऩे को मिल जाती हैं। फिर ख्याल आता है कि साधारण लगने वाले वाकयों को इतनी खूबसूरती से देखने और फिर उससे भी ज्यादा खूबसूरत अंदाज़ में बयान कर देने का हुनर खुदा की नेमत नहीं तो और क्या होगा। करीब 3 साल पहले अनुराग वत्स ने बुक फेयर से लौटकर कुछ पोस्ट कार्ड्स मुझे दिए थे। इन पर विदेश के कुछ कवियों की कविताओं को हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में ट्रांस्लेट करके छापा गया था। इनमें एक कविता लार्श सोबी क्रिस्तेनसेन की थी। सोबी के बारे में बस इतना पता चल सका कि वे नॉर्वे के कवि हैं। काफी कोशिश के बाद भी बहुत ज्यादा पता नहीं चल सका, लेकिन उनकी जो कविता मैं ब्लॉग पर डाल रहा हूं, उसे पढ़कर मुझे लगा था कि कवि कहीं का भी हो, अंदर से एक जैसी प्रवृत्ति का होता है। तभी हम कह देते हैं कि‍ फलां सज्जन कवि हृदय है। इस कविता को पढ़कर शायद आपको भी लगे कि खूबसूरती देखने वाले की नज़रों में होती है।



सेलफोन पकड़े
इतने सारे आदमी
कभी नहीं देखे।
हर कोने पर,
फाटक पर,
बस स्टॉप पर,
कैफेटेरिया में,
पेड़ों के नीचे,
पार्क में।
लगता है
टेड्डी बियर को गाल से चिपकाए,
वे सोच रहे हैं
कि वह उनकी
हर बात समझता है।
किसी से तो
बोल रहे होंगे।
कभी-कभी सोचता हूं,
आपस में तो नहीं बात कर रहे।
हो नहीं सकता,
इतना सुंदर सपना
सच हो नहीं सकता।






Saturday, May 29, 2010

मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा

बशीर बद्र का नाम उन शायरों में आता है, जिन्होंने ग़ज़ल को आम आदमी तक पहुंचाया। आसान शब्दों में उर्दू के लहज़े को हर कि‍सी की ज़ुबान पर लाने में उनके शे,रों के बहुत मायने रहे हैं। हो सकता है यह पढ़ते हुए आपमें से कुछ को बशीर का ख्याल न आ रहा हो, लेकि‍न जब मैं उनका एक शे,र आगे लि‍खूंगा तो आप जरूर कहेंगे, अच्छा! वो वाले बशीर बद्र! उनका यह शे,र भला कि‍सने नहीं सुना होगा - उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने कि‍स गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए। और बहुत से शे,र हैं जिन्होंने इतनी शोहरत बटोरी है, कि‍ हर आम और ख़ास कभी न कभी या तो उन्हें कह चुका होगा, या सुन चुका होगा। कभी-कभी तो लगता है कि‍ जि‍तने मशहूर उनके शे,र हुए हैं, शायद ही कि‍सी के हुए होंगे। नि‍दा से पहले मैं बशीर को सबसे ज्यादा‍ पसंद करता था। हालांकि‍ बशीर की शायरी का मैं अब भी कायल हूं। शायरी की सबसे पहली कि‍ताब शायद उनकी ही पढ़ी थी। नि‍दा फाज़ली द्वारा संपादि‍त उस कि‍ताब का नाम था -बशीर बद्र, नई ग़ज़ल का एक नाम। यह इतनी अच्छी लगी थी कि‍ आधी से ज्यादा बुक मुझे याद हो गई। इसके कोई साल छह महीने बाद (करीब 10 साल पहले) बशीर को आमने-सामने देखने का भी मौका मि‍ला। बशीर बद्र की ग़ज़लगोई को एक शाम समर्पि‍त की गई थी। गि‍ने-चुने लोग ही उस छोटे से हॉल में थे। मुझे याद है, उस वक्त वे ग़ज़ल पढ़ रहे थे, तो उनकी हर ग़ज़ल मुझे पहले से याद थी। एक-दो दोस्तों से इसका जि‍क्र कर मैं इतराया भी था। बहुत-सी वजहों से वह शाम मैं कभी भूलता नहीं। बशीर के जि‍क्र में बहुत कुछ लि‍खा जा सकता है, लेकि‍न उनकी एक ग़ज़ल फि‍लहाल ब्लॉग पर डाल रहा हूं। उनकी शायरी की इस झलक से ही उनके कद का अंदाज़ा आप लगा लेंगे।



अगर तलाश करुं तो कोई मि‍ल ही जाएगा,
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा।

तुम्हें जरूर कोई चाहतों से देखेगा,
मगर वो आंखें हमारी कहां से लाएगा।

न जाने कब तेरे दि‍ल पे नई सी दस्तक हो,
मकान खाली हुआ है तो कोई आएगा।

मैं अपनी राह में दीवार बनके बैठा हूं,
अगर वो आया तो कि‍स रास्ते से आएगा।

तुम्हारे साथ ये मौसम फरि‍श्तों जैसा है,
तुम्हारे बाद ये मौसम बड़ा सताएगा।




इलस्ट्रेशन : गि‍रीश

Tuesday, May 18, 2010

नाराज़गी

जेहन में नाराज़गी लिए जीना और फिर भी खुद को ना बदलने की जिद पाले रखना दो ऐसी स्थितियां हैं, जिन्हें सोचने भर से दिल में ऐसे शख्स के लिए सहानुभूति पैदा होने लगती है। हो सकता है किसी के दिल में उसके लिए गुस्सा या क्षोभ भी पैदा हो, लेकिन यह तय है कि ऐसे हालात बेहद विचित्र होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि अपने आप से नाराज़गी और फिर भी खुद को न बदलने की जिद, दोनों ही विरोधाभासी बातें हैं। विडंबनाएं हैं। खुद को ना बदलना किसी और के लिए अडिय़लपना हो सकता है, लेकिन ऐसा सोचते वक्त इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि ये अहसास हालात से उपजते हैं और हालात शर्तों पर नहीं बदला करते। वे तो बस बदल जाते हैं। किसी भी वक्त। ऐसे दौर में भी किसी और के लिए दुआ करना, जरूरी नहीं कि बेबसी हो। दुआएं सिर्फ बेबसी से नहीं निकलतीं... निदा फाज़ली की इस गज़ल को पढ़कर आपको भी शायद ऐसा ही लगे :

बदला ना अपने आप को, जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से, मगर अजनबी रहे

दुनिया ना जीत पाओ तो हारो ना खुद को भी
थोड़ी बहुत तो जेहन में नाराज़गी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे

गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल, वो डाली हरी रहे



फोटो-मुकेश मंडल

Saturday, May 15, 2010

आखि‍र है तो अपना ही देश

दो दिन पहले मेरे एक मित्र ने मुझे मेल भेजा था। इसमें कुछ बातें थीं, जो हमारे देश की व्यवस्था पर सवाल उठा रही थीं। आमतौर पर इस तरह की मेल को मैं बहुत सीरियसली लेता नहीं हूं, लेकिन इस मेल में कुछ था, जिसके चलते मैंने यह मेल अपने ज्यादातर दोस्तों को फॉरवर्ड कर दिया। तब एक बार के लिए मुझे भी लगा था कि वाकई हमारे देश में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जिनमें विरोधाभास हैं। बहुत से सवाल हैं, जो हमें कचोटते हैं। हालांकि अब इनमें से ज्यादातर के बारे में हम सोचना बंद कर चुके हैं। खैर, इस फॉरवर्ड किए गए मेल के रिप्लाई के बारे में मैंने सोचा नहीं था। वैसे भी, ज्यादातर फॉरवर्ड मेल हम लोग बस फॉरवर्ड ही करते हैं, लेकिन मेरे एक मित्र ने ऐसा नहीं किया। अश्वनी भारद्वाज इंडियन रेवेन्यू सर्विसेज के लिए सिलेक्ट हो चुके हैं, और इन दिनों ट्रेनिंग कर रहे हैं। आज जब मेल चेक किया, तो देखा उन्होंने मेरे भेजे मेल को बहुत बारीकी से पढ़ा है, और हर बात का जवाब लिखा है। हर बात में उस कटाक्ष का बेहतरीन जवाब था। मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गई। साथ ही, अहसास हुआ कि देश की कमियों पर बात करना या उन्हें लेकर मजाक बनाना हमें कितना आसान लगता है, लेकिन हम कभी उसकी गहराई में जाने की कोशिश नहीं करते। मैंने अश्वनी को फोन किया और मजाक में पूछा, अब प्रशासन का हिस्सा बन गए हो, इसलिए तुम्हें इस मेल से दुख हुआ होगा? अश्वनी ने हंसकर कहा, ऐसा नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि हम सब व्यवस्था का हिस्सा हैं, इसलिए सिर्फ बात करने से कैसे काम चलेगा। कमियों को दूर करने की जिम्मेदारी हम सबकी है। कम से कम देश के लि‍ए अच्छा सोच तो सकते हैं। मुझे लगा अश्वनी की बात आप सब तक पहुंचनी चाहिए। इसलिए मैं हर कटाक्ष और उस पर अश्वनी के जवाब को यहां डाल रहा हूं। बोल्ड में जो लाइनें हैं, वह मेरे फॉरवर्ड किए गए मेल का हिस्सा थीं। बाकी जो कुछ लिखा है, वह अश्वनी ने लिखा है। उसे मेल की ही भाषा में यहां डाल रहा हूं, इसलिए आपसे अनुरोध है कि कृपया भाषा के बजाय, उसके मतलब पर गौर करें।



Mera Bharat Mahaan !!!

We live in a nation ,


where Pizza reaches home faster than Ambulance/police,

Yes because its paid by the individual directly not by the govt afterr collecting taxes from public so if u pay directly to pvt ambulence or police they will come immediately.




Where you get car loan @ 5% and education loan @ 12%,

Yes because when u required loan for education it means u r getting admission on management seat and not through merit. So if you cant get merit then be ready to pay money.



Where rice is Rs 40/- per kg but SIM card is free,

Yes because sim card is produced by millionares like ambani and sunil bharati mittal, But rice is produced by a farmer who cannot afford to sell it free.



Where a millionaire can buy a cricket team instead of donating the money to any charity,

Yes its true, because if u r doing charity it means u r scared of bad deeds u did in the past. If u are not flawed y to do charity. Even if they are buying a team definitely they are paying taxes on transaction. so whts the need of charity....



Where the footwear, we wear ,are sold in AC showrooms, but vegetables, that we eat, are sold on the footpath,

Absolutely, because if they are sold in AC showrooms like reliance fresh and wallmart the same socalled socialist make a hue and cry. So vegetable seller himself wants to sell it on footpath,.,



Where everybody wants to be famous but nobody wants to follow the path to be famous,

Its the law of nature, everybody needs a shortcut, and when u can get ur dues by smart work why to do hard work.



Where we make lemon juices with artificial flavours and dish wash liquids with real lemon.....

No lemon juices are made of citric acid that too is extracted fro lemon and we never know whether the real lemon we get in the dish wash soap. If its real lemon then we should feel happy about the genuine products available in india.




Where people are standing at tea stalls reading an article about child labour from a newspaper and say,"yaar bachhonse kaam karvane wale ko to phansi par chadha dena chahiye" and then they shout "Oye chhotu 2 chaii laao....."

Yess because they know if they complain against it this CHHOTU will lose the job and tomorrow they will find him at traffic signal begging. Child labour is a crime but dont forget that its far better than begging. At least he can earn money to run the family.


So all the comments above just reflect the issues, not the reasons behind these issues. Please, find the reasons then write. My india is incredible and I have no reasons to complain against it. But I have high hopes from everybody. Whether he is delivering pizza, buying cricket teams or washing utensils at chai shop with genuine dish wash liquids. So stop kribbing about.


Incredible India :-)

Wednesday, May 5, 2010

कह लो सनकी

अक्सर हम अपने व्यवहार को लेकर दूसरों से शिकायतें सुनते हैं। दूसरों के व्यवहार से हमें भी बहुत शिकायतें रहती हैं। कई बार हमें लगता है कि‍ हमसे जो शिकायतें दूसरों को होती हैं, वे नाजायज होती हैं, ठीक नहीं होतीं। इसी तरह कई बार जिनसे हम शिकायत कर रहे होते हैं, वे भी हमसे कहते हैं कि हम गलत समझ रहे हैं। ऐसे में यह असमंजस होना लाजमी है कि आखिर सही व्यवहार किसे कहा जाए। व्यवहार कुशलता की जो कसौटियां बनाई गई हैं, कैसे हम उन पर खरा उतर सकते हैं या कैसे उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए हम दूसरों को कोई सलाह दे सकते हैं। मुझे लगता है कि न तो कभी ऐसा हो सकता है कि हमारे व्यवहार को लेकर कोई हमसे शिकायत न करे, और न ही ऐसा हो सकता है कि हमें हमेशा दूसरों का व्यवहार पसंद आए। बस, यह हो सकता है कि हम अगर व्यवहार बनने और उसमें ढलने की प्रक्रि‍या को समझ लें, सीख लें तो काफी हद तक हमारी शिकायतें कम हो सकती हैं। 25 जून 2007 को मैंने दैनिक भास्कर में जयप्रकाश चौकसे का एक लेख पढ़ा था। उन्होंने बेहद सटीक अंदाज़ में इस पहलू पर प्रकाश डाला था। अगर मैं ज्यादा नहीं भूल रहा तो शायद यह लेख उन्होंने सलमान खान के विषय में लिखा था। हो सकता है ऐसा न भी हो, लेकिन यह सही है कि इसमें जो कुछ कहा गया, वह हम सबके लिए गौर करने लायक है। साभार यह लेख आपके लिए ब्लॉग पर डाल रहा हूं।

दूसरों से हम एक ख़ास किस्म के सदाचरण की उम्मीद रखते हैं, लेकिन जब वह हमारी अवधारणा के विपरीत कुछ करता है, तो हम उसे बुरा या सनकी मान लेते हैं। यह सोच दोषपूर्ण और एकपक्षीय है। आखिर कोई व्यक्ति कब तक अपने बारे में बनाई गई दूसरों परिभाषा को जबरन जीता रहे, ढोता रहे। भीतर जैसा है, वैसा ही उजागर होने की इच्छा को असाधारण या सनक मान लेना भी दोषपूर्ण है। सभी सनकी सच्चे या सफल सिद्ध नहीं होते, लेकिन ऐसा कोई जीनियस भी नहीं हुआ है, जिसे पहले सनकी न समझा गया हो। सदियों तक धरती को सपाट मानने वाले लोगों ने धरती को गोल बताने वाले को सनकी समझा। कुछ लोग ज़िंदगी को खंडित आइने में देखकर टूटी हुई छवि को पूरा सच मान लेते हैं। उन्हें अपनी समझ पर इतना यकीन होता है कि उनकी पूरी ज़िंदगी ही नासमझी में बीत जाती है। जब हम तथाकथित स्वयंसिद्ध अवधारणा के खिलाफ कोई विचार सुनते हैं, तो हमारी अन्तर्निहित असुरक्षा का भाव हमें उसकी ओर आक्रामक बना देता है। यह वैचारिक हिंसा दूसरे से ज्यादा खु़द के लिए घातक सिद्ध होती है। इसकी वजह बुद्धि का लचीला होना है, न कि पत्थर की तरह सख्त या अपरिवर्तनीय। दरअसल, समझदार और सनकी होने के बीच की रेखा अत्यंत क्षीण है। संयत बने रहने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है। मनुष्य का मूल्यांकन अच्छाई-बुराई से ज्यादा उसकी छवि से होता है। इसके निर्माण में दुनियादारी के साथ अन्य लोगों की आंकलन क्षमता भी जुड़ी होती है। अपनी स्वतंत्रता की रक्षा आप दूसरों की स्वतंत्रता के प्रति सम्मान दिखाकर ही कर सकते हैं।

Wednesday, April 28, 2010

मुकम्मल कहानी

चांद, लहरें, कहानी, नाता, परवरिश, रिश्ते, सिंचाई, पौधा, ग़म, बरस, आजमाइश, बेटा, सबक, बेईमानी, बादल, मरुस्थल, ख़ुदा, मां-बाप। ज़िंदगी इन सब शब्दों से परे क्या होती होगी भला? और देखिए, एक-दूसरे से कितने ख़फा-ख़फा से हैं ये सारे शब्द। कितने जुदा-जुदा हैं, फिर भी एक-दूसरे के बिना शायद कोई वज़ूद नहीं इनका। कितनी उलझन है ना इन्हें समझने में। सबको एक साथ सोचें तो घबराहट सी होने लगती है जेहन में। अज़ीब से जलजले का आभास होने लगता है। फिर भी, यही सब सोचते हुए ज़िंदगी बीतती है। यही सब जीते हुए दिन गुजरता है और इन्हीं को नज़रअंदाज़ करते-करते रात उजली हो जाती है। इन्हीं में सुकून भी है, इन्हीं में तड़प भी। किसे क्या मिलेगा, यह इस पर निर्भर है कि इनमें से किसे वह ज्यादा जीता है और किसे कम। सच में, एक-साथ होकर भी ये ख़ूबसूरत हो सकते हैं। लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की यह ग़ज़ल जब पढ़ी थी, तो ऐसा ही कुछ लगा था। हर पंक्ति में नया आभास, नया अहसास। हर शे’र मुकम्मल कहानी। आप भी पढि़ए कई कहानियों से बनी इस एक कहानी को। वाजपेयी जी का आभार जताते हुए इसे अपने ब्लॉग का हिस्सा बना रहा हूं।

न जाने चांद पूनम का ये क्या जादू चलाता है
कि पागल हो रही लहरें, समुंदर कसमसाता है

हमारी हर कहानी में तुम्हारा नाम आता है
ये सबको कैसे समझाएं कि तुमसे कैसा नाता है

जरा सी परवरिश भी चाहिए हर एक रिश्ते को
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है

ये मेरे ग़म के बीच में किस्सा है बरसों से
मैं उसको आजमाता हूं, वो मुझको आजमाता है

जिसे चींटी से लेकर चांद सूरज सब सिखाया था
वही बेटा बड़ा होकर सबक मुझको सिखाता है

नहीं है बेईमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है
मरुस्थल छोड़कर जाने कहां पानी गिराता है

ख़ुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यूं मिटाता है, मिटाकर क्यूं बनाता है

वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने को
पता मां-बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है।

Thursday, April 22, 2010

ज़िंदगी

ज़िंदगी क्या है? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब न जाने किस-किस अंदाज़ में दिया गया है, दिया जाता है। कोई इसे पहेली कहता है तो कई खूबसूरत सफ़र। कोई साइंस की भाषा में जवाब देता है तो किसी का अंदाज़ आध्यात्मिक होता है। किसी को यह ईश्वर का वरदान लगती है तो किसी को दुखों का पिटारा। दरअसल, जिसके जैसे अनुभव होते हैं, ज़िंदगी को देखने का उसका नज़रिया भी वैसा ही होता है। मुझे करीब 11 साल पहले आदरणीय हरभगवान चावला से ज़िंदगी का जो फलसफा सुनने को मिला, उस पर सोचने के बाद कोई वजह नज़र नहीं आई कि उनकी इन पंक्तियों से कोई असहमति जता सकूं। सबसे बड़ी बात तो यह लगी कि सदियों की कहानी को उन्होंने कुछ ही शब्दों में कह दिया था। दो टुकड़े, एक दूसरे से जुड़े हुए, लेकिन दोनों का सफ़र एकदम जुदा। बहुत संभव है कि ज़िंदगी आगे ऐसे अनुभव दे दे कि वह इन शब्दों से भटकी हुई लगे, लेकिन फिलहाल घूम-फिरकर यही फलसफा सामने आ जाता है। आप भी पढ़िए और सोचिए क्या यही नहीं है ज़िंदगी। चावला जी की इन पंक्तियों को एक बार फिर गिरीश ने अपने कैनवास पर उकेरा है। दोनों के हार्दिक आभार के साथ इसे आपके सामने रख रहा हूं।



रफ़्ता-रफ़्ता आंखों में बसती है इक नदी

फिर

कतरा-कतरा

आंखों से

रिसती है

उम्रभर।

Wednesday, April 14, 2010

हम जैसा प्लान करते हैं, सब वैसे नहीं होता

पापा हमेशा कहते थे कि हम जैसा प्लान करते हैं, हमेशा वैसे नहीं होता। तब मैंने बिलकुल नहीं सोचा था कि वे मेरी ही ज़िंदगी की बात कर रहे हैं ... यही वह डायलॉग था जिसे सुनकर शनिवार रात मैं फिर से सोफे पर बैठ गया था। रात का सवा (10-4-10, 1:15am)एक बज चुका था। टीवी देखने और अख़बार पढ़ने के बाद मेरी उनींदी आंखें कह रही थीं कि मुझे अब सो जाना चाहिए, लेकिन फिर इस डायलॉग और इसके बाद की कुछ लाइनों ने मेरी नींद उड़ा दी। स्टार मूवीज चैनल पर किसी फिल्म की नंबरिंग चल रही थी। डायलॉग सुनकर जाहिर हुआ कि फिल्म अभी शुरू हुई है। खूबसूरत एक्ट्रेस सैंड्रा बुलक का मासूम सा चेहरा, बैकग्राउंड में उसकी सलिलक्वि, अपने आप से बातें, एक नौजवान को देख पहली ही नज़र में उससे प्यार कर बैठने का इकरार, उस सीन में बहुत कुछ ऐसा था कि मैंने तुरंत पूरी फिल्म देखने का फैसला किया। वाकई, डेनियल जी. सलिवन और फ्रैडरिक लीबॉ की लिखी इस रोमैंटिक कॉमेडी और जॉन टर्टटेलटॉ के शानदार निर्देशन के चलते फिल्म ऐसी बनी थी कि हर सीन के बाद दूसरे सीन का इंतजार कर रहा था। पर, जिस चीज का सबसे ज्यादा इंतज़ार था, वह था यह देखना कि कैसे सच में जैसा हम प्लान करते हैं, सब वैसा नहीं होता। और फिर जो कुछ देखा, ऐसा था कि तुरंत तय कर लिया कि इस कहानी को अपने पास कैद करके रखूंगा। लूसी (सैंड्रा) की मूवी "वाइल यू वर स्लीपिंग" की कहानी अपने ब्लॉग पर कैद करने की इस कोशिश को आपसे शेयर कर रहा हूं :



लूसी। एक सुंदर, मासूम सी दिखने वाली खूबसूरत लड़की। कहानी की शुरुआत में अपने बारे में बता रही है। वह बताती है कि कैसे बेहद छोटी उम्र में उसकी मां उसे छोड़कर चली गई और फिर कैसे उसके पापा ने उसकी परवरिश की। वह बताती है कि कैसे उसके पापा उसे कंधे पर बिठाकर अद्भुत कहानियां सुनाया करते थे। वे अक्सर उससे कहते थे कि जैसा हम सोचते हैं, प्लान करते हैं, सब कुछ वैसे नहीं होता। ज़िंदगी कब कहां नया मोड़ ले ले, हम नहीं जानते। एक दिन लूसी के पापा भी दुनिया छोड़ देते हैं। अब लूसी अकेली है। अपने सपनों की दुनिया में खुश लूसी की ज़िंदगी में इन सपनों के अलावा एक प्यारी सी बिल्ली है और उसके लैंडलॉर्ड का मोटा सा भोंदू लड़का जो फस्को। जो लोगों से कहता फिरता है कि वह लूसी का फियांसे है। उसकी ऊलजलूल हरकतों के बावजूद कभी कभार लूसी उसकी किसी इमोशनल बात पर उसे गले लगा लेती है, लेकिन जब-जब वह ऐसा करती है, वह बेवकूफ कोई गंदी हरकत या कमेंट कर डालता है। लूसी मेट्रो की टिकट विंडो पर जॉब करने लगती है। जैसे-जैसे जिंदगी आगे बढ़ती है, लूसी का अकेलापन भी बढ़ता जाता है। एक दिन लूसी की तन्हाइयों के रेगिस्तान में एक फूल खिलता है। एक हैंडसम, अट्रैक्टिव नौजवान पीटर। पीटर लॉ स्टूडेंट है और रोज ट्रेन पकडऩे के लिए मेट्रो स्टेशन आता है। टिकट लेते वक्त लूसी को देखे बगैर वह आगे बढ़ जाता है, उसे देखते ही लूसी की धड़कनें तेज हो जाती हैं। पहली नजर में ही वह उससे प्यार करने लगती है। बेशक, पीटर ने कभी लूसी की तरफ नजरें तक नहीं उठाईं हैं, लेकिन लूसी उसे अपने सपनों का राजकुमार मानने लगी है। वह खुद से कहती है - हां, यही है मेरे सपनों का राजकुमार, माई प्रिंस। अपनी बाकी ज़िंदगी मैं इसके साथ गुजारने के लिए तैयार हूं। मैं इससे शादी करूंगी। सपनों की दुनिया में डूबी लूसी रोज उसके आने का इंतजार करती है। उसे देखते ही उसके चेहरे पर दिलकश मुस्कान तैर जाती है। उसकी आंखों में ख़्वाब तैरने लगते हैं, मगर पीटर उसकी मुस्कान का जवाब मुस्कान से देकर रोज अपनी ट्रेन में सवार हो जाता है।
क्रिसमस
हल्के-हल्के स्नोफॉल के बीच लूसी अपने कमरे में रखा बड़ा-सा क्रिसमस ट्री सजाती है, तो पीटर का चेहरा उसके जेहन में तैर जाता है। जॉब के दौरान पीटर आता दिखाई देता है, तो वह उसे देखते-देखते इतना खो जाती है कि पीटर के मेरी क्रिसमस कहने पर भी कोई जवाब नहीं देती। जैसे ही पीटर मुड़ता है, वह माथा पीट लेती है कि आज तो उससे बात करने का बहाना मिला था। वह खुद से बातें कर ही रही होती है कि अचानक देखती है कि प्लैटफॉर्म पर पीटर से दो युवक पर्स छीनने की कोशिश कर रहे हैं। छीनाझपटी में पीटर रेल की पटरी पर गिर जाता है। लूसी उसकी तरफ दौड़ती है और देखती है कि पीटर ट्रैक के बीचो-बीच बेसुध पड़ा है। उसे उठाने के लिए वह खुद ट्रैक पर छलांग लगा देती है। तभी उसे सामने से ट्रेन आती दिखती है। ट्रेन जब बिलकुल नजदीक पहुंच जाती है तो वह पीटर और खुद को पटरी से हटाने में कामयाब हो जाती है। लूसी जानती है कि वह पीटर को बेइंतहा प्यार करती है, इसी लिए उसने अपनी जान को खतरे में डाला। पीटर को अस्पताल पहुंचाने के बाद जब नर्स उसे पीटर के पास जाने से रोकती है तो वह उसे बताती है कि वह पीटर से शादी करने वाली है। नर्स उसे जाने देती है। लूसी पीटर के पास बैठी उसे निहार ही रही होती है कि अचानक पीटर की फैमिली वहां आ जाती है। तब नर्स उन्हें बताती है कि पीटर की फियांसे लूसी ने उसकी जान बचाई। फियांसे! सब चौंक जाते हैं। पीटर ने तो कभी बताया नहीं। वे लूसी का धन्यवाद करते हैं। लूसी बहुत अजीब महसूस कर रही है। लूसी से मिलकर पूरा परिवार खुश है। सब उसे बेहद प्यार देते हैं। पीटर की मां ने बहुत सपने संजोए हैं पीटर की शादी को लेकर। पीटर की दादी तो इतनी खुश है कि एकबारगी जब लूसी कहती है कि वह पीटर की फियांसे नहीं है, तो दादी को हार्ट अटैक आ जाता है। पीटर की फैमिली की खुशियां देख लूसी इमोशनल हो जाती है और उन्हें ज्यादा कुछ ना कहकर घर आ जाती है।
सोल सब सुन लेता है
आधी रात को लूसी फिर पीटर के पास जाती है और उसके पास बैठकर अपने मन की सारी बातें बोल डालती हैं। पीटर कोमा में है। कुछ सुन नहीं सकता। बोलते-बोलते लूसी वहीं सो जाती है और जब सुबह उसकी आंख खुलती है तो पीटर की फैमिली को सामने पाती है। सब हैरान और खुश हैं कि लूसी सारी रात पीटर की देखभाल करती रही। बस एक शख्स है जो सचाई जानता है। पीटर का गॉडफादर सोल (करीब 70 की उम्र) जिसने चुपचाप लूसी की बातें सुन ली हैं। बाहर निकलते ही वह लूसी को रोक लेता है और बताता है कि उसके सपने भी पूरे हो जाएंगे और पीटर की फैमिली का दिल भी नहीं टूटेगा, इसलिए वह किसी को यह न कहे कि वह पीटर की फियांसे नहीं है। लूसी इन हालात में इतनी घिर जाती है कि समझ ही नहीं पाती कि क्या करे। एक तरफ उसके सपने पूरे होने जा रहे हैं तो दूसरी तरफ यह डर है कि पीटर जब कोमा से जागेगा तो क्या होगा।
जैक की एंट्री
पीटर की फैमिली क्रिसमस सेलिब्रेशन के लिए जब लूसी को अपने घर बुलाती है तो लाख मना करने के बावजूद लूसी उनकी जिद से बच नहीं पाती। सब खुश हैं। फैमिली फोटोग्राफ खिंचवाते वक्त लूसी हिचकिचाती है, लेकिन आखिर सबकी खुशी के आगे वह फोटो खिंचवाने के लिए भी हामी भर देती है। जब सब सो जाते हैं तो अचानक जैक घर आ जाता है। जैक पीटर का छोटा भाई है। हैंडसम, डैशिंग पर्सनैलिटी। घर में लूसी को सोते देख वह चौंकता है। पूछता है, ये कौन है। जवाब मिलता है, पीटर की फियांसे। वट! पीटर की फियांसे और मैं नहीं जानता! ऐसा कैसे हो सकता है? उसकी छोटी बहन उसे दूसरे कमरे में ले जाती है। सुबह जब लूसी की आंख खुलती हैं तो वह चुपके से घर से निकलना चाहती है। लूसी... एक कर्कश आवाज से लूसी के कदम थम जाते हैं। मुडक़र देखती है तो सीढिय़ों पर जैक दिखता है। मैं जैक- खुद को इंट्रोड्यूस कराते हुए जैक कहता है। मैं लूसी हूं- दबी हुई मुस्कान के साथ लूसी जवाब देती है। अगला सवाल वही होता है जिसकी उम्मीद लूसी ने की होती है। तुम पीटर से कब एंगेज हुई? जवाब लूसी टाल देती है और वहां से चली जाती है।
लूसी का अफेयर
लूसी की खूबसूरती के चलते जैक भी उसके प्रति खिंचाव महसूस करने लगता है। यह पता करने के लिए कि आखिर लूसी कौन है, ढूंढता हुआ वह उसके अपार्टमेंट तक पहुंच जाता है। जो फस्को कार ठीक कर रहा होता है और जैक उसी से पूछ लेता है। जो उसे भी कहता है कि लूसी मेरी फियांसे है। जैक चौंकता है और लूसी के पास जाता है। जब वह जो की बात बताता है तो लूसी उस पर यकीन करने के लिए जैक पर हंसती है। इसके बाद उनकी बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है। जब भी लूसी पीटर के घर या अस्पताल जाती है, जैक उसे अकेला ना जाने देने की बात कहकर उसे घर छोड़ने चला आता है। रास्ते में उनकी जो बातें होती हैं, उससे जैक लूसी से प्यार करने लगता है। हालांकि पीटर के ख़्याल से वह उसे कुछ नहीं कहता। स्नोफॉल की एक रात जब जैक लूसी को छोड़ने आता है तो फिसलन के कारण दो-तीन बार दोनों फिसलते हैं और एक दूसरे की बांहों में आ जाते हैं। उनकी नजरें मिलती हैं तो लूसी के चेहरे पर भी अजीब सी दिलकशी दिखती है। खिड़की में खड़े होकर जैक को जाता देख वह खुद से कहती है - क्या मैं सच में पीटर से प्यार करती हूं, मैं तो जैक के साथ अपनी हंसी बांटना चाहती हूं। तब उसे अहसास होता है कि वह जैक से प्यार करने लगी है।
पीटर को होश आ जाता है
अगली सुबह लूसी अपने एक बूढ़े दोस्त जैरी, जिससे वह हर बात में मशवरा लेती है, को बताती है कि उसका जैक के साथ अफेयर चल रहा है तो वह कंफ्यूज हो जाता है। लूसी... तुम पीटर को चाहती हो, उसकी फैमिली को, या जैक को ... माजरा क्या है... मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। लूसी मुंह बनाते हुए वहां से आ जाती है। असल में लूसी खुद नहीं समझ पा रही कि ये सब हो क्या रहा है। एक दिन जैक लूसी से कहता है- पता है लूसी, तुम पीटर के टाइप की लडक़ी नहीं हो। लूसी उस पर गुस्सा हो जाती है। वह नहीं जानती कि क्यों वह ऐसा कर रही है, लेकिन वह जैक को बताती है कि पीटर को ही वह चाहती है, उसके होते हुए किसी के बारे में नहीं सोचना चाहती। हालांकि अंदर ही अंदर वह परेशान भी है। तभी उसकी परेशानी बढ़ जाती है। पीटर को होश आ जाता है। पीटर की फैमिली लूसी को तुरंत पीटर के पास बुलाती है। होता भी वही है। पीटर लूसी को पहचानने से ही इंकार कर देता है। वह बाक़ी सब को पहचान रहा है। इसके बावजूद पीटर के घरवाले लूसी और पीटर के बारे में इतने सपने बुन चुके हैं कि मान लेते हैं कि पीटर को भूलने की बीमारी हो गई है। लूसी को एक दिन का वक्त मिल जाता है। पीटर का गॉडफादर सोल लूसी से अकेले में बात करता है। सोल कहता है कि वह पीटर से बात करेगा। उसे समझाएगा। वह पीटर के पास जाता है और उससे कहता है कि लूसी जैसी लडक़ी उसे कभी नहीं मिलेगी, इसलिए वह उससे शादी कर ले। वह उसे बताता है कि लूसी इतनी अच्छी लड़की है कि 3 सेकंड भी वह उसकी आंखों में देख ले तो खुद उससे शादी करना चाहेगा। उसका एक डायलॉग है : लूसी आज से 40 साल पहले आई होती तो मैं हर कीमत पर उससे शादी कर लेता।
पीटर और लूसी की बातचीत
पीटर को सोता देख लूसी उसके पास कुछ देखने आती है। तभी पीटर जाग जाता है। हाए - पीटर बोलता है। शरमाते हुए लूसी जवाब देती है। बातचीत शुरू होती है तो पीटर सच में उससे इतना इंप्रेस हो जाता है कि उसी वक्त उसके सामने शादी का प्रस्ताव रख देता है। लूसी हैरान है। ये क्या हो रहा है। मेरे सपने पूरे हो गए हैं फिर भी मैं खुश क्यों नहीं हूं? घर लौटकर वह सोल से बात करती है, लेकिन सोल ख़ुद समझ नहीं पा रहा कि वह उसे क्या सलाह दे। वह फिर जैक से बात कर ख़ुद को कंफर्म करना चाहती है और बातों-बातों में उससे पूछती है - जैक, क्या तुम्हारे पास कोई एक भी वजह है जिससे तुम कह सको कि मुझे पीटर से शादी नहीं करनी चाहिए? इमोशनल जैक सिर्फ ‘नहीं’ कह पता है।
एक दिन अचानक लूसी अपनी शादी का कार्ड देने सोल के पास आती है। कार्ड रखकर वह चलने लगती है, तभी सोल उससे पूछता है कि किसकी शादी का कार्ड है? लूसी जवाब देती है- मेरी और पीटर की शादी का। सोल चौंक जाता है और उससे कहता है कि यह वह क्या करने जा रही है। लूसी फट पड़ती है। वह उससे कहती है कि उसने उसे कोई ऐसी सलाह दी भी तो नहीं कि वह पीटर से शादी न करे।
शादी का दिन
चर्च में पीटर की फैमिली मौजूद है। पीटर के पीछे ही जैक खड़ा है। पादरी भी तैयार है, मगर लूसी अब तक नहीं आई है। सब उसका इंतज़ार कर रहे हैं। अचानक लूसी हाथों में बुके लेकर वहां आती है। धीरे-धीरे वह पीटर की तरफ बढ़ती है। जैक और लूसी की भी नज़रें मिलती हैं, मगर लूसी उससे नज़रें बचा लेती है। पादरी लूसी से पूछता है - क्या तुम्हें पीटर से शादी से कोई एतराज है? लूसी बड़ी सहजता से कहती है- हां। सब चौंक जाते हैं। पादरी तेज आवाज़ में बोलता है- यह तुम क्या कह रही हो! तभी जैक के मुंह से निकलता है- आई ऑब्जेक्ट। अब लूसी पीटर की फैमिली से मुखातिब है। वह सब कुछ सच-सच बोल देती है। कैसे वह पीटर को देखते ही उससे प्यार करने लगी। उससे शादी के सपने संजोने लगी। वह ट्रेन हादसा। फिर नर्स के उसे पीटर की फियांसे बताने से पैदा हुई गलतफ़हमी। वह जैक का आना। धीरे-धीरे जैक का उसे पसंद करते चले जाना। लूसी कहती है कि वह जैक से शादी करना चाहती है। सब हैरान हैं। इमोशनल होकर जैक उससे कहता है - पहले बताया क्यों नहीं। लूसी वहां से चली आती है।
अगले दिन हैरान परेशान लूसी अपनी जॉब पर है। टिकट विंडो से एक-एक कर सिक्के आते हैं और वह बिना किसी यात्री को देखे टोकन देती रहती है। तभी सिक्के की जगह एक अंगूठी अंदर सरकती है। लूसी चौंकती है। बाहर जैक और उसकी फैमिली खड़ी है। जैक और लूसी की नजरें मिलती हैं। जैक पूछता है- क्या मैं अंदर आ सकता हूं। लूसी कहती है- नहीं। सब फिर चौंक जाते हैं। तभी लूसी कहती है- बिना टोकन लिए तुम्हें अंदर कैसे आने दूं? सबके चेहरे पर मुस्कान तैर जाती है। जैक अंदर आता है और लूसी को प्रपोज करता है। दोनों एक दूसरे से प्यार का इजहार करते हैं। लास्ट सीन में लूसी और जैक हनीमून के लिए टे्रन में सवार हैं और बैकग्राउंड में लूसी की आवाज़ है - पापा, सच ही कहते थे। सब कुछ हमारे प्लान के मुताबिक नहीं होता।

Saturday, April 10, 2010

फूल जब खि‍ल के बहक जाता है

गुलाब की कली को फूल बनते आपने भी देखा होगा। फिर उसे खू़ब खिलते हुए भी देखा होगा। क्या कभी गौर कि‍या कि‍ जब वह सबसे ज्यादा खिला हुआ होता है, तब उसकी पंखुड़ि‍यां सबसे ज्यादा नाज़ुक होती हैं। कई बार तो हाथ लगाते ही झड़ जाती हैं। कई बार अपने आप भी। कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं। मेरे सबसे पसंदीदा शायरों में से एक निदा फाज़ली की एक नज़्म है जिसमें उन्होंने इस बात को बेहद खूबसूरत और सटीक अंदाज़ में कहा है। जब पहली बार यह नज़्म पढ़ी थी, तो इससे इतना जुड़ाव हो गया कि‍ कई साल से यह मेरे मोबाइल में सेव है। आसान भाषा और साफगोई से जटिल से जटिल, गहरी से गहरी बात साफ-साफ कहने का निदा का स्टाइल मुझे उनका कायल कर गया। उन्हें जितना पढ़ा, उतना ही यह खिंचाव बढ़ता चला गया। शायद इसलिए लग भी रहा है कि‍ आगे भी उनकी रचनाओं को ब्लॉग पर डालने से ख़ुद को नहीं रोक सकूंगा। फिलहाल यह नज़्म आपकी नज़र कर रहा हूं। मुझे लगता है यह जीवन की वह सचाई है जिसे देखते और महसूस तो आप भी करते होंगे, लेकि‍न इस तरह से कह नहीं पाते होंगे।


यूं तो हर रिश्ते का अंजाम यही होता है
फूल खि‍लता है
महकता है
बि‍खर जाता है।
तुमसे वैसे तो नहीं कोई शि‍कायत
लेकि‍न,
शाख़ हो सब्ज़
तो नाज़ुक फ़िज़ां होती है,
तुमने बेकार ही मौसम को सताया वरना,
फूल जब खि‍ल के बहक जाता है,
ख़ुद-ब-ख़ुद शाख़ से गि‍र जाता है।

Sunday, April 4, 2010

तुम बिन

उतार-चढ़ाव और धूप-छांव से भरी ज़िदगी में कभी-कभी ऐसे पलों से सामना हो जाता है, जिनके बीतने का इंतज़ार पहाड़ से भी भारी लगने लगता है। कुछ लम्हे अपने पांव पर पत्थर बांध कर आते हैं। इनके बोझ से हमारे कंधे झुक जाते हैं। इनकी सख्ती से हमारा अंतर्मन छिल जाता है। इनका रुके रहना हर पल सताता है। हर घड़ी इनका आकार पहले से ज्यादा बड़ा नज़र आता है। आदरणीय हरभगवान चावला की लिखीं कुछ पंक्तियां इस दर्द की जो तस्वीर पेश करती हैं, वह दस साल से मेरे जेहन में चस्पां है। जितने आसान शब्दों में उन्होंने अपनी बात कही, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल लगता है उन पलों को जी पाना। उनकी ये पंक्तियां आपकी नज़र कर रहा हूं। शायद आप इस अहसास से पहले से वाकि‍फ होंगे।







मैं चाकू से पहाड़ काटता रहा

मैं अंजुरियों से समुद्र नापता रहा

मैं कंधों पर ढोता रहा आसमान

मैं हथेलियों से ठेलता रहा रेगिस्तान

यूं बीते

ये दिन

तुम बिन।

Thursday, March 25, 2010

रिश्ते


कुछ चीज़ों की भूमि‍काएं नहीं होतीं। उन्हें कहने से पहले चुप होना पड़ता है। खामोश।
फरवरी 2008 में लि‍खे कुछ शब्दों को आज जब पढ़ रहा था, तो यही लगा। हो सकता है अपने ही लि‍खे इन शब्दों की भूमि‍का लि‍ख नहीं पा रहा था, इसलि‍ए ऐसा लगा हो। या शायद लगा कि‍ चुपचाप भी तो कुछ कहा जा सकता है।
मित्र गि‍रीश ने बि‍ना शब्दों के कुछ कहा है इस बारे में। अपने मन से। अपनी कला की ज़ुबान में। आप उसे देख सकते हैं। चाहें तो सुन भी सकते हैं और महसूस भी कर सकते हैं। जि‍न शब्दों के जरि‍ए मैंने अपनी बात कभी लि‍खी थी, इस इलस्ट्रेशन से उसने वह बात कहनी चाही है।









सबका कुछ नाम होता है
तुम्हारा
मेरा
चांद का
नदी का
ज़मीं का
लेकि‍न पता नहीं क्यों
कभी-कभी लगता है
जि‍नका नाम नहीं होता
वे भी जीते हैं
हमारे साथ-साथ
हमेशा
जब तक जीते हैं हम
जैसे कुछ रिश्ते
बेनाम

Saturday, March 20, 2010

उसे मैं नहीं जानता था


ज़िंदगी कब कौन सा रंग ले आए, हममें से शायद कोई नहीं जानता। यह तो ऐसी क़ि‍ताब है जि‍सका हर पन्ना पहले वाले से जुदा होता है। सबकी क़ि‍ताब अलग-अलग, सबकी कहानी अलग-अलग। अपनी क़ि‍ताब और कहानी हम नहीं जानते। बस, पढ़ते रहना ही हमारी नि‍यती है। फि‍र भी इसके कुछ रंग कभी-कभी दूसरों के रंगों से मि‍लते-जुलते होते हैं। जब-जब ऐसे रंग सामने आते हैं, एक अजीब सा जुड़ाव महसूस होता है, अपने और अनजानों के बीच। तभी तो कि‍सी बेगाने की मुस्कुराहट भी जाने-अनजाने हमारे होठों से रिश्ता बना लेती है। कभी-कभी कि‍सी के आंसुओं से हमारी आंखों में भी नमी उतर आती है। कभी कि‍सी का हार कर बैठ जाना हमें अच्छा नहीं लगता और हम कुछ कर सकें ना कर सकें, उसके कांधे पर रखने के लि‍ए हमारे हाथ में हलचल हो ही जाती है। तब हम उनके लि‍ए अनजाने नहीं रहते।
कभी-कभी अनजान लोगों के साथ चलना भी अच्छा लगता है। है ना?
अगर लगता है तो वि‍नोद कुमार शुक्ल की यह कवि‍ता भी आपको अच्छी लगेगी।

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलि‍ए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।

Sunday, March 14, 2010

सब ठीक है


कि‍सी से मि‍लते वक्त ज्यादातर हम सभी सबसे पहले पूछते हैं ...और क्या हाल है? और लगभग हर बार जवाब होता है ...बढ़ि‍या। बढ़ि‍या ना हो तो भी जवाब यही होता है। आप भी जानते हैं क्यों। कई बार नहीं भी जानते कि‍ क्यों सब ठीक ना होते हुए भी हम कह देते हैं कि‍ सब ठीक है। ऐसे में मुझे नि‍धीश त्यागी जी की यह कवि‍ता अक्सर याद आती है। मुझे लगता है कि‍ यह हम सबसे जुड़ती है। उन्हें जब ऑफि‍स में देखा करता था तो कतई नहीं लगता था कि‍ वे ऐसी कवि‍ताएं भी लि‍खते होंगे। बहुत सख़्त दि‍खते थे। फिर 12 अप्रैल 2007 को बीबीसी पर छपी उनकी यह कवि‍ता पढ़ी तो उनके अंदर बैठे कवि‍ से मिलने का मौका मि‍ला। आज जब लंबे समय बाद उनसे बात हो रही थी, तो वे कह रहे थे, "कवि‍ता गौरैया की तरह होती है। वह ख़ुद आपके पास आती है, आप उसे बुला नहीं सकते। ......कवि‍ता आपको उस वि‍षय से आजाद कर देती है। अंदर कुछ अटका होता है जो बाहर आ जाता है। " उनकी यह कवि‍ता अक्सर मेरे जेहन में तैरती है। ख़ासतौर से तब, जब मैं कहता हूं, "...बढ़ि‍या... बहुत बढ़ि‍या।"
गि‍रीश ने एक इलस्ट्रेशन बनाया है। त्यागी जी और गि‍रीश दोनों के आभार के साथ यह आपको पढ़वा रहा हूं।


क़ि‍ताब का पन्ना थोड़ा पीला पड़ गया है
थोड़ा और कुम्हला गए हैं सूरजमुखी
थोड़ी लम्बी कतार है एटीएम पर
थोड़ी कम हरी है बगीचे की दूब
थोड़ा ज्यादा झड़ गए हैं पेड़ों से पत्ते
थोड़ी मुश्किल से आ रहे हैं हलक तक शब्द
थोड़ी देर से डूब रहा है सूरज
थोड़ा ज्यादा ठहर रहा है लाइट्स पर ट्रैफिक
थोड़ा रास्ता बदल लि‍या है चांदनी ने
थोड़ा झूठ बोलना पड़ रहा है कि‍ सब ठीक है।

Saturday, February 20, 2010

गुब्बारा

कोई तीन या चार साल पहले दैनि‍क भास्कर अखबार के रसरंग में सुशील कुमार 'शीलू' के नाम से छपी एक कवि‍ता पढी थी। बेहतरीन लगी। कई प्रभावशाली कवि‍ताएं पढ़ी हैं, लेकि‍न इससे हर बार अजीब सा खिंचाव महसूस होता है। जि‍स गुब्बारे का इसमें ज़ि‍क्र है, वैसे गुब्बारे शायद आप भी कहीं न कहीं कभी न कभी जरूर देखते होंगे। आप भी ऐसे गुब्बारों से मि‍ले होंगे या जानते होंगे। कैसे गुब्बारे? इस कवि‍ता को पढ़ लीजि‍ए, उम्मीद है जरूर याद आ जाएंगे।




छत के पंखे से लटके गुब्बारे में
रंग बि‍रंगी कतरने भरकर
कभी होठों से लगाया था कि‍सी ने
हवा भरने के लि‍ए
और वह बेवकूफ फूलकर कुप्पा हो गया

जन्मोत्सव की शाम
फोड़ दि‍या गया उसे सरेआम
और उसकी मर्मांतक चीख
दब गई लोगों के हर्षनाद में

आज भी उस गुब्बारे की लाश
पंखे से लटकी
घूम रही है
दि‍न-रात ।




Wednesday, February 17, 2010

खामोशी


खामोशी की भी अपनी ज़ुबां होती है, मतलब होते हैं, असर होता है, उम्र होती है। जरूरी नहीं शब्दों का होना, हर ज़ज्बात की तस्वीर बनाने के लिए। खामोशी की अपनी अदा होती है। उदास लम्हों को बेपरवाही से थपथपाते हुए यह उसे एक शक्ल दे देती है। फिर उसके चेहरे पर एक कहानी लिख देती है। फिर उसकी आंख में नमी और फिर ...। खामोश झील की उदासी तोडऩे के लिए जरूरी नहीं, पत्थर ही उछाला जाए। उसके कंधे पर हाथ धर दीजिए। हौले से। बस। वह खुद-ब-खुद बोल उठेगी। हां, खामोशी खुद-ब-खुद बोल उठेगी। उसकी अपनी ज़ुबां होती है।