Tuesday, December 25, 2012

मैं और तुम

कुहू की बरसात की उस बूंद के जमीन पर गिरकर एक पत्ते को मायूस कर देने के दो तीन दिन बाद ही बर्फ के ये सुनहरे कण मेरे जेहन पर बरस पड़ेंगे, इसका अंदाजा मुझे नहीं था। अंकी ने वट्स ऐप पर जब इस कविता को पेस्ट किया था तो फोन वैसे ही बजा था जैसे दूसरे मैसेज आने पर बजता है, लेकिन उस बजने और इस बजने में फर्क था। इस बार बजकर वह मैसेज टोन तो शांत हो गई, पर मेरे अंदर कुछ वायब्रेट हुआ था। भइया, ये पॉइम पढ़ो, अंकी ने कहा। मैंने इस पीडीएफ के डाउनलोड होने का इंतजार किया और रोमन लिपि में लिखी इस कविता को पढऩे लगा। लाइन दर लाइन, मेरे अंदर की वाइब्रेशन बढ़ती चली गई और जब यह पढ़कर खत्म की तो लगा ठंडी हवाएं मेरे गर्म कपड़ों से कह रही थीं, तुम किसी काम के नहीं। मेरा अंकी से पहला सवाल था, किसने लिखी है। जवाब मिला स्वाति ने। कौन स्वाति। .... मेरी दोस्त है। इंग्लिश पढ़ाती है। हम्म्....। मैंने कुछ वाक्य इस कविता पर डिस्कशन में बिताए और पूछा, इसे अपने ब्लॉग पर लगा सकता हूं क्या। अंकी ने कहा, लगा लीजिए।
इस कविता के बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता। मैं चाहता हूं इस ठंडक के अंदर की गर्माहट आप खुद महसूस करें।
मेरी क्रिसमस।


मैंने बर्फ देखी है तो सिर्फ
रुपहले पर्दे पर गिरते हुए
या किताबों, अखबारों के
बेजान पन्नों पर
बर्फ को कभी छुआ नहीं मैंने
कभी पिघली नहीं वो मेरे हाथों में

हां, इतना पढ़ा है जरूर
कि बर्फ के कोई भी दो कण
एक से नहीं होते
अब्र से गिरते हैं
और समा जाते हैं
गर्द में

मैंने बर्फ को देखा है सिर्फ
पर कभी जाना नहीं
कुछ लम्हों के खेल की
इस सर्द जिंदगी में
कहीं मैं और तुम
बर्फ के ये टुकड़े तो नहीं

-स्वाति


Friday, December 21, 2012

उन्हें जाने दीजिए....


आना जाना जीवन का दस्तूर है। अक्सर रिश्तों का भी। पाने और पाकर खोने के अहसास से शायद ही कोई बचा हो। यही शाश्वत सत्य है, और इसे कोई टाल नहीं सकता। लेकिन यह जानते हुए भी अक्सर इसे नकार देने का मन करता है। एक दबी दबी सी गूंज मन में भटकती रहती है... उसे जाना था तो फिर आया क्यों? उसे खोना था तो पाया क्यों? उसका साथ कुछ और देर नहीं ठहर सकता था क्या? कुछ और दूर वह साथ नहीं चल सकता था क्या?
बिखरना ही होता है तो क्यों सिमट जाते हैं कुछ पल। हमारे भीतर। और फिर ठहरे रहते हैं कुछ लम्हे, बिखर जाने के बहुत देर बात तक। सरासर असंभव दिखता है पर फिर भी लगता रहता है कि शायद कहीं फिर से सिमट जाएं वे बिखरे हुए पल। नहीं सिमटते। सिमटना नहीं होता उन्हें, क्योंकि बिखरना उनकी नियती है। नियती है तो फिर अफसोस क्यों? जितने दिन साथ रहे, उन पलों को क्यों न जी भर जिएं। क्योंकि वे चले भी गए तो क्या... कुछ और पल हैं जो आने के इंतजार में हैं.... उन्हें जाने दीजिए.... उन्हें आने दीजिए। कूहू की इस कविता की तरह... जो कल से घूम रही है मेरे जेहन में... जिसे ब्लॉग पर उतारने को उतावला हूं मै.... थैंक्स कूहू....

दूर तक आसमान नीला और धुला था
जिस वक्त सुबह ने आंखें खोलीं
घरों की मुंडेरों ने बताया... कुछ देर पहले बारिश हुई थी


किसी पत्ते पर ठहरी थी खूबसूरत बूंद
इंद्रधनुष की गोलाई लिए....धीरे से आगे बढ़ी
पत्ता हिला था हल्का सा... या उसका दिल धड़का था?


बूंद बही अपनी निशानी छोड़कर,
आखिरी सिरे पर जा टिकी...
फिर कहां रुकने वाली थी वो चंचल बूंद


पत्ता झुककर देखता रहा धरती की ओर...
मिट्टी में उसको मिलते हुए
पत्ते और भी थे शाख पर, सब चुप रहे
ये खेल देखकर हवा भी देर तक थमी रही


बारिश के बाद यही होता है अक्सर
ये जीवन का चक्र कहां रुकता है
हवा का नर्म झौंका है...
पत्ते ने मुस्कुराकर आसमान को देखा
सावन है...बारिश फिर होगी...


-कुहू

Saturday, October 27, 2012

भले ही अब हम ऑफिस जाने लगे हैं


बातों बातों में कितनी खूबसूरत बातें सामने आ जाती हैं, पहले से पता नहीं होता। कुछ देर काम से खाली हुआ तभी फेसबुक पर गुंजन जैन ने पिंग किया। गुंजन ने आईआईएमसी से जर्नलिज्म किया है और एनबीटी में काम कर रही हैं। इधर-उधर की बात से घूमते-घुमाते उसने बताया कि उसे लिखना भी अच्छा लगता है, मगर दिल से। मैंने कहा कुछ सुनाओ तो उसने अपनी दो तीन रचनाएं लिख दीं। वाकई बेहद खूबसूरत अंदाज है। मैंने गुंजन से पूछा इनमें से एक ले लूं? तो उसने कहा, ले लो। तो आप भी पढि़ए और बताइए कैसी लगी।

भले ही अब हम ऑफिस जाने लगे हैं
पर आज भी
बस या ट्रेन में चढ़ते ही खिड़की वाली सीट कब्जाना,
ऑफिस से निकलते वक़्त सर्द रातों में मुंह से धुआं उड़ाना,
गाड़ियों पर जमी ओस पर उंगली से अपना नाम लिखना,
आसमान के फ्रेम में बादलों से अलग-अलग तस्वीरें बनाना,
अब भी कभी-कभी चॉकलेट के लिए मचलकर मम्मी पापा से जिद करना,
कोई तो है जो हमसे ये करवाता है,
जो तन्हाई में भी हमें गुदगुदाता है,
अकेलेपन में चेहरे पर मुस्कराहट लाता है,
दिल में बैठा वो बच्चा हमसे आज भी नादान शरारतें करवाता है,
और
इस समझदार दुनिया में मासूमियत को खोने नहीं देता

Saturday, October 20, 2012

जो कहा नहीं वो सुना करो



बशीर बद्र की एक खूबसूरत गजल कई दिन से ड्राफ्ट में रखी थी। इसके कई शेर ऐसे हैं जिन्होंने बशीर को एक तरह से अमर कर दिया। बच्चे बच्चे की जुबान पर यह शेर रहे हैं। अगर मुझे ठीक से याद है तो 11-12 साल पहले बशीर बद्र ने एक मुशायरे में बताया था कि यह जो कोई हाथ भी ना मिलाएगा वाला शेर है, इसे मिस यूनिवर्स का खिताब जीतने से पहले सुष्मिता सेन ने मंच पर सुनाया था। मुझे पहले से यह शेर याद था, लेकिन जब बशीर ने यह बात बताई, तब तो यह और खास लगने लगा। आप भी पढि़ए यह गजल.... अच्छी लगेगी






यूं ही बेसबब ना फि‍रा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची कि‍ताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी ना मि‍लाएगा, जो गले मि‍लोगे तपाक से
ये नए मि‍ज़ाज़ का शहर है, ज़रा फा़सले से मि‍ला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हे जि‍सने दि‍ल से भुला दि‍या, उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तिहार सी लगती हैं, ये मुहब्बतों की कहानि‍यां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्न-ए-पर्दा नशीं भी हो, ज़रा आशि‍काना लि‍बास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूं, मेरे साथ तुम भी चला करो

ये ख़ि‍ज़ां की ज़र्द शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो

नहीं बेहि‍ज़ाब वो चांद सा, कि‍ नज़र का कोई असर नहीं
उसे तुम यूं गर्मी-ए-शौक से, बड़ी देर तक ना तका करो

Saturday, October 13, 2012

फितरत


कभी कभी कुछ पुराने शेर पोस्ट करने की कोशिश करूंगा। फिलहाल ये दो। पिछले साल अक्टूबर में लिखे थे।

बड़ी देर से उलझा हूं अंधेरों के बीच,
आ भी जाओ के रोशन हो जाए राह मेरी


रोशनी का जिक्र क्या, जलने की फिक्र क्या,
जलना तो आखिर फितरत है चरागों की





Friday, June 22, 2012

वो पुराना बक्सा

प्लास्टिक की पाइप में भरा चूरन याद है? और सरकंडे के आगे कागज की चक्करी लगाकर गली-गली दौडऩा? याद होगा। नहीं याद तो याद कीजिए स्कूल में रिसेस से पहले ही चुपके से टिफिन खोलना और अचार के साथ एक परांठा खा लेना। या फिर वो पहली पेंटिंग जिसे बनाकर अपने कमरे की एक दीवार पर सेलो टेप से चिपकाया था। ज्येमेट्री बॉक्स में रखे वो हरे पत्ते जिनके बारे में पूछने पर हम बताते थे कि यह विद्या का पौधा है, साथ रखो तो पढ़ाई अच्छी आती है। मुझे आज यह सब याद आ रहा है। और भी बहुत कुछ याद आ रहा है। जैसे वो कटी पतंग लूटने के लिए ऊंची दीवारों से छलांग लगा देना। और वो दस पैसे की दो रोचक (हाजमोला) की गोलियां। बचपन की इन खट्टी-मीठी यादों में झांकने की वजह है एक कविता। कुछ दिन पहले ऑफिस में गुंजन में अपनी फेसबुक फ्रेंड प्रतीक्षा पांडे की इस कविता को लाइक किया था। फिर एक एक कर सबको इसे पढ़वाया। इस कविता को पढ़ते ही तय किया कि इसे ब्लॉग पर डालूंगा। लेकिन 10 दिन से वक्त नहीं मिल पाया। आज मौका मिलते ही आप तक इसे पहुंचा रहा हूं... उम्मीद है पसंद आएगी।

मां

जब वो पुराना बक्सा खाली करना

तो ध्यान से देखना

उस गहरे हरे रंग के बैग

और सफेद कवर वाली रजाई के बीच

परतों में मुड़ी हुई

एक याद रखी होगी

मिलेगा एक फटा हुआ पन्ना चंपक का

ऊपर भोलू भालू लिए खड़ा होगा

मेरी प्लास्टिक की गेंद

शायद निकले एक दुलहन की तरह सजी हुई गुडिय़ा

जिसकी एक आंख गायब होगी

और बाल बिखर गए होंगे

एक ज्योमेट्री बॉक्स भी होगा

अंडरटेकर के स्टिकर के साथ

और एक वॉटर कलर पेंटिंग

जिस पर सूरज मुस्कुराता होगा

सुनो आहिस्ता खींचना इन्हें

वरना कुछ कंचे गिरकर बिखर जाएंगे

और उसके ऊपर फिसलकर भाग जाएगा

बीता हुआ वक्त

तुम चेल्पार्क की इंक से

नोट कर लेना हर एक सामान

अपने मन के उन पीले पन्नों पर

जिन्हें तुम बंद करके भूल गईं

पुरानी अठन्नियों सा फिजूल न होने देना

तुम याद का हर वह टुकड़ा

जो फेनोप्थेलीन की गोलियों सा महकता

उस पुराने बक्से में रखा है