Monday, June 28, 2010

तो रोने लगती है मां...


बिजी होने के कारण लंबे समय से ब्लॉग पर कुछ नहीं डाल सका। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस दौरान खुद से बातचीत का सिलसिला कभी थमा। उलटा, बातचीत की एक अजीब कड़ी बन गई, जिसका वर्णन अभी शायद ठीक से न कर सकूं। बहरहाल, एक संयोग का जिक्र जरूर करना चाहूंगा। पिछली पोस्ट के बाद सोचा था कि कुछ साल पहले 6 मई को भास्कर के रसरंग में पढी़ एक कविता पोस्ट करूंगा। एक डायरी में नोट वि‍जयशंकर चतुर्वेदी की इस कविता को कंपोज़ करने का वक्त तो तभी मिल गया था, लेकिन उसके बाद से किसी न किसी वजह से इसे लाइव नहीं कर सका। इस करीब एक महीने के दौरान जो कुछ जिया और जो कुछ आसपास देखा, अब लग रहा है कि वह इसी कविता में कहीं छिपा हुआ था। इसे पढ़ता हूं, तो लगता है ज़िंदगी ज़ज्बात का एक दरिया ही तो है। देखने वाले इसे अपनी-अपनी नज़र से देखते हैं। किसी को यह बहता हुआ पानी लगता है, तो किसी को बहा कर ले जाता पानी। हममें से ज्यादातर शायद ऐसे होंगे, जिसे यह देखने की फुर्सत ही न मिलती हो कि ऊपर से बहते दिखते इस पानी के अंदर बहुत कुछ ठहरा हुआ होता है। पानी की यह पर्दादारी हममें से ज्यादातर की ज़िंदगी का हुनर बन चुकी है। ऊपर से बहता हुआ दिखने के लिए हम अपने भीतर ठहरी हुई किसी बूंद को अक्सर छिपाए रखते हैं। बेशक, कुछ ठहरी हुई बूंदें मोती भी बनती हैं, लेकि‍न अक्सर ये बूंदें किसी न किसी ज़ज्बात की अगुवाई करती हुई खुद ही सबके सामने आ जाती हैं। पर्दानशीं अक्सर बेपर्दा हो जाते हैं...



सयाने कह गए हैं
रोने से घटता है मान
गि‍ड़गि‍ड़ाना कहलाता है हाथि‍यों का रोना
फि‍र भी चंद लोग रो-रोकर
काट देते हैं ज़िंदगी
दोस्तों, खुशी में भी अक्सर
नि‍कल जाते हैं आंसू
जैसे कि‍ बहुत दि‍नों के बाद मि‍ली
तो फूट-फूटकर रोने लगी बहन

वैसे भी यहां रोना मना है
पर बताओ तो सही कौन रोता नहीं है?
साहब मारता है, लेकि‍न रोने नहीं देता
कुछ लोग अभि‍नय भी कर लेते हैं रोने का
लेकि‍न मैं जब-जब करता हूं
शादी की चर्चा
तो असल में रोने लगती है बेटी

आसान नहीं है रोना
फि‍र भी खुलकर रो लेता है आसमान
नदि‍यां तो रोती ही रोती हैं
पहाड़ तक रोता है
अपनी किस्मत पर
लेकि‍न बड़ी मुश्किल है
मेरे रोने में
कभी मन ही मन रोता हूं
तो रोने लगती है मां ...



इलस्ट्रेशन : गि‍रीश

Sunday, June 13, 2010

गाल से चि‍पका टेड्डी बियर

कभी-कभी बहुत साधारण से लगने वाले दृश्य भी बहुत गहरा प्रभाव छोड़ देते हैं। आपने गौर किया होगा कि अक्सर कविताओं, गज़लों या साहित्य की अन्य विधाओं में कुछ ऐसे दृश्यों का जिक्र होता है, जो कहने को तो हम रोज देखते हैं, लेकिन उस नज़र से कभी नहीं, जिससे उस कवि या रचनाकार ने उसे देखा होता है। जो कुछ हम अक्सर देखते हैं, उसमें कुछ खोज पाने की गुंजाइश के बारे में कभी सोचते नहीं। शायद इसलिए कि हमें लगने लगता है, मानो ये तो रोज की बात है, इसमें भला ऐसा क्या होगा, जिसे सहेजा जा सके। मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है। कई बार ऐसी कविताएं या दूसरी चीजें पढऩे को मिल जाती हैं। फिर ख्याल आता है कि साधारण लगने वाले वाकयों को इतनी खूबसूरती से देखने और फिर उससे भी ज्यादा खूबसूरत अंदाज़ में बयान कर देने का हुनर खुदा की नेमत नहीं तो और क्या होगा। करीब 3 साल पहले अनुराग वत्स ने बुक फेयर से लौटकर कुछ पोस्ट कार्ड्स मुझे दिए थे। इन पर विदेश के कुछ कवियों की कविताओं को हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में ट्रांस्लेट करके छापा गया था। इनमें एक कविता लार्श सोबी क्रिस्तेनसेन की थी। सोबी के बारे में बस इतना पता चल सका कि वे नॉर्वे के कवि हैं। काफी कोशिश के बाद भी बहुत ज्यादा पता नहीं चल सका, लेकिन उनकी जो कविता मैं ब्लॉग पर डाल रहा हूं, उसे पढ़कर मुझे लगा था कि कवि कहीं का भी हो, अंदर से एक जैसी प्रवृत्ति का होता है। तभी हम कह देते हैं कि‍ फलां सज्जन कवि हृदय है। इस कविता को पढ़कर शायद आपको भी लगे कि खूबसूरती देखने वाले की नज़रों में होती है।



सेलफोन पकड़े
इतने सारे आदमी
कभी नहीं देखे।
हर कोने पर,
फाटक पर,
बस स्टॉप पर,
कैफेटेरिया में,
पेड़ों के नीचे,
पार्क में।
लगता है
टेड्डी बियर को गाल से चिपकाए,
वे सोच रहे हैं
कि वह उनकी
हर बात समझता है।
किसी से तो
बोल रहे होंगे।
कभी-कभी सोचता हूं,
आपस में तो नहीं बात कर रहे।
हो नहीं सकता,
इतना सुंदर सपना
सच हो नहीं सकता।