Thursday, May 30, 2013

गौरेया मेरे पास आई थी


निधीश त्यागी जी की बात याद आ गई। एक दिन उन्होंने कहा था कि कविता गौरेया की तरह होती है, बुलाओ तो नहीं आती, अपने आप ही आती है। कुछ दिन पहले यह गौरेया मेरे पास आई थी। मैंने इसके पंख सहलाए थे और दोनों हाथों से उठाकर अपने कंधे पर बिठाया था। लेकिन फिर नींद आ गई और अगले दिन गौरेया का ख्याल भी उसकी तरह उड़ गया। इसके नन्हें पंजों के निशान वाला कागज मेरे पास रह गया था। जब जब इन निशानों को देखा, सोचा सबको दिखाता हूं कि गौरेया आई थी। पर फिर पता नहीं क्यों, कागज मोड़ के फिर जेब में रख लेता था। आज अचानक इस कागज ने पड़े पड़े फडफ़ड़ाना शुरू कर दिया। लगा कि वही गौरेया कहीं किसी जाल में उलझ गई है और पंख फडफ़ड़ा रही है। इसकी छटपटाहट को दूर ना किया तो बेचारी कहीं मर ना जाए। मैंने कागज निकाला और उन पंजों के निशान समेत हवा में उड़ा दिया। यह निशान अब मेरे ब्लॉग पर छप गए हैं। मैं जब चाहे इसे देख सकूंगा। आप भी देख सकते हैं। पता नहीं आपको गौरेया दिखाई दे या नहीं, पर मुझे दिख रही है। जब तक यह फिर नहीं आती, मैं इन्हीं निशानों से काम चलाऊंगा।

कितना बोर हो गया है ये टेलिविजन
300 चैनल हैं पर एक पर भी ढंग का प्रोग्राम नहीं आता
इंटरनेट भी तो कम बोरिंग नहीं
पचास साइट खोल ली एक पर भी टिकने का मन नहीं
कूलर का पंप चलाओ तो ठंडा ज्यादा
न चलाओ तो कमबख्त कितनी गर्म हवा देता है
सोफे पर सोऊं या बेड पर जाऊं
गली के बच्चे कितने नीरस हैं, कोई शोर ही नहीं
मां पूछती है क्या सब्जी बनाऊं, क्या बताऊं
खाने का मन नहीं, भूख तो लगी है लेकिन
चलो टहल के आता हूं,
रहने दे यार, धूल धक्कड़ में कैसा टहलना
फेसबुक पर क्या खाक चेक करूं,
कोई ढंग की पोस्ट ही नहीं करता, हां मैं भी नहीं
और ये गानों को क्या हुआ, सारे फेवरिट कानों को खा रहे हैं
वक्त पैर पर पत्थर बांधे औंधे मुंह पड़ा ऊंघ रहा है
जी करता है इसका इल्जाम अपने सिर पे ले लूं
खुद उसकी जगह बेहोश हो जाऊं
और उसे होश में लाकर उड़ा दूं आसमान में।