tag:blogger.com,1999:blog-4562333889671446592024-03-06T13:22:23.650+05:30सलिलक्विजितनी बातें खुद से की जाती हैं, उतनी किसी से नहीं। और... जितना अनसुना खुद को किया जाता है, उतना भी शायद किसी को नहीं ...सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.comBlogger45125tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-23197605980138308652019-01-12T16:08:00.000+05:302019-01-12T16:08:32.694+05:30जब पांच साल के हो जाएंगे तो...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPaT_gc-AKmnbuusJt43SnbjFhdAQI1y3SnE7mIhTWJC5zAC4hFPxvKxYJKvzyBz3miw8WI_6x-zHaYjYel2ikC8i1T3dZNiRvfWZNPzIOxX2teyVoNMuc9NFerFSKeGslNyc8ZL9yYiE/s1600/IMG_20181026_201637_HDR.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPaT_gc-AKmnbuusJt43SnbjFhdAQI1y3SnE7mIhTWJC5zAC4hFPxvKxYJKvzyBz3miw8WI_6x-zHaYjYel2ikC8i1T3dZNiRvfWZNPzIOxX2teyVoNMuc9NFerFSKeGslNyc8ZL9yYiE/s320/IMG_20181026_201637_HDR.jpg" width="320" height="240" data-original-width="1600" data-original-height="1200" /></a><br />
चौथे साल की पोस्ट लिखते वक्त कहा था कि उस साल यह फर्क दिखने लग गया था कि अब यादें उतनी कठोरता से जेहन में नहीं लौटतीं, जितनी शुरू के तीन साल पहले लौटती थीं। पांचवां साल भी कुछकुछ ऐसा ही था। पोस्ट के बारे में इस साल दो तीन बार तो यही खयाल आया कि इस बार लिखूंगा क्या। हालांकि लिखने बैठता हूं तो लगता है कि वक्त बदलता रहता है। बाकी तो जिंदगी अपनी थीम पर ही चलती है। थोड़े थोड़े सुख, थोड़े थोड़े दुख, कुछ स्वादिष्ट अनुभव तो कुछ कसैले किस्से। यानी घालमेल। हर चीज को अलग अलग करना उतना ही मुश्किल है जितना राई-सरसों और जीरे-सौंफ के दानों को अलग अलग करना। पर कोशिश करूंगा इस साल को भी एक पोस्ट में समेटने की।<br />
शुरुआत पिछले पोस्ट से। उस पोस्ट में भी जैसे तैसे मैक्स का जिक्र आ गया था। पर साल बीतते बीतते सोचा था अगली पोस्ट में कम से कम अस्पताल का जिक्र नहीं होगा। हालांकि पिछले पोस्ट लिखते वक्त ही तय हो गया कि मैक्स से पीछा छूटेगा नहीं क्योंकि तब पूजा के वहां जाने का सिलसिला शुरू हुआ था। तनाव की वजह से उनके सिर में भयंकर दर्द की शिकायत शुरू हुई थी जो माइग्रेन या सर्वाइकल जैसा लग रहा था। नजदीकी डॉक्टरों के समझ नहीं आया था। नजरें चेक करवाकर चश्मा भी लगवा दिया था पर यह नई बीमारी अब ज्यादा परेशान करने लगी थी। खैर, वहां जाना शुरू हुआ और अगले 3 महीने जैसे तैसे आराम मिलना शुरू हो गया। उसके बाद पूरा साल मैक्स से पीछा छूटा रहा।<br />
दिसंबर जाते जाते मुझे निमोनिया हो गया और ऐसा कि शुरुआत में एंटीबायोटिक्स ने असर ही नहीं किया। एक महीने तक झंझावात चले और दो बार हॉस्टिपटल एडमिट होते होते टला। उस वक्त अजीब तरह की नेगेटिविटी दिखी जब खुद का खयाल रखने की चाहत बढ़ी। बच्चे होने के बाद ही मुझमें खुद को लेकर यह डर दिखना शुरू हुआ था वरना कभी परवाह नहीं की थी। खुद को बच्चों से दूर रखना चाहता था कि कहीं निमोनिया उनको न छू ले। पर बच्चे भरी पूरी झप्पियां डालकर अपना प्यार जताते थे। अजब कशमकश का टाइम था और तब ये खयाल अक्सर आते थे कि मुझे कुछ हो गया तो....। :) यहीं पता चलता है मोह का सही मतलब।<br />
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दिसंबर में हृदय हार्दिक का एनुअल फंक्शन था। यह सुनकर मन खुश हो गया कि अकेला हार्दिक परफॉर्म नहीं करेगा। इस बार हृदय को भी मंच पर आने का मौका मिलेगा। हार्दिक को अपनी क्लास को ग्रुप डांस में लीड करना था तो हृदय को रैंप वॉक करनी थी। हार्दिक की परफॉर्मेंस को लेकर मैं तो श्यौर था कि लड़का मस्त परफॉर्म करेगा। उसने किया भी। टयूबलाइट फिल्म के गाने खुशखबरी ऐसी मिली है, उछलने लगे हम हवा पर।<br />
पर हृदय ने पूरे कॉन्फिडेंस के साथ जब रैंप वॉक किया और नीचे मुझे देखकर हाथ हिलाया, तो समझ आया कि बाप लोग क्यों ऐसे मौकों को अपनी लाइफ का सबसे यादगार मौका बताते हैं। यह वही हृदय था जिसकी ऑक्यूपेशनल थैरपी करवा करवाकर पैरों पर खड़ा होना सिखाया था। जिम बॉल पर कुदवा कुदवाकर बैलेंस बनाना सिखाया था और ओरो मोटर थैरपी से मुंह की लार को कंट्रोल करना सिखाया था। वह अब रैंप वॉक कर रहा था और वह भी मजे से। इस सुकून को सही से व्यक्त करना अभी आया नहीं मुझे।<br />
चीजें नॉर्मल होती दिखने लगीं थी। मैंने सोचा कि जो 4 साल से नहीं कर सके, अब उसकी तरफ बढ़ना चाहिए। पहली बार दोनों बच्चों के साथ छोटे से ट्रिप पर घूमने जाने की शुरुआत की। ट्रेन से रेवाड़ी, फिर गाड़ी से हुड़िया जैतपुर। पूजा का पुश्तैनी गांव जहां के बारे में कहा जाता है कि महाभारत काल में जब भगवान कृष्ण ने बर्बरीक से उसका शीश मांगा था, तो शीश खाटू श्याम में स्थापित हुआ और धड़ जैतपुर में। बाबा श्याम के मंदिर से बच्चों की धार्मिक यात्राएं शुरू हुईं। संकट से निकलते दिखते हैं तो वक्त धन्यवाद का होता है। मंदिरों में जाकर उसकी शुरुआत हो रही थी। मेले में हृदय खिलौने देखकर जो बिदका था कि याद ही रहेगा। उसे सब चाहिए। और कुछ नहीं दिलाने पर कहता कि आप मेरे को प्यार नहीं करते। मुझे कुछ भी नहीं दिलाते।<br />
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मसूरी गए। वहां खूब इंजॉय किया सबने। हृदय ने वहां भी सुपरमैन लेने की जिद का जो रूप दिखाया वह डरावना था। खैर, दीदी बुआ के पास भी टूअर किया। साल जाते जाते घूकांवाली के गोरा गुरमुख बाबा के डेरे में भी हो आए। सालभर खूब शॉपिंग की। जो जो काम पिछले पांच साल में नहीं किए थे, वे सब किए।<br />
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खैर, अब वक्त और आगे बढ़ने का था। बच्चों को अब बड़े स्कूल में भेजने की तैयारी शुरू करनी थी। इसलिए तय किया कि तन्मय प्रांशु वाले स्कूल में भेजें। एक तो स्कूल का 7 साल से सही सुन रहा था और दूसरा गाड़ी में जाते वक्त तन्मय का साथ। दो तीन तरह के खयाल थे कि नजफगढ़ लौटने का प्लान फाइनल कर लिया। शादी नजफगढ़ में हुई थी और उसके 2 महीने बाद वहां से मैं आ गया था। यह 5-6 साल बाद हो रही वापसी थी। इस पूरी प्लानिंग के बीच कई कशमकश सामने आईं जाे कभी धर्मयुद्ध सा रूप धर लेती थीं तो कभी मन में खिन्नता पैदा करती थी। लेकिन यह तय हो चुका था कि खुद के लिए सोचना अब ऑप्शन नहीं था। बच्चों के लिए जो सही लग रहा था उसके बीच में मैं अपने अहम को आने नहीं देना चाहता था। नजफगढ़ में ऐसी जगह मकान मिल गया जहां से स्कूल की गाड़ी पास में ही छोड़ती थी।<br />
इससे दो महीने पहले ही स्कूल में एडमिशन के लिए गए थे। दोनों के टेस्ट हुए। प्रिंसिपल के शब्द याद आते हैं, कॉन्गरेचुलेशन, मैंने आपके बच्चों का एडमिशन अप्रूव कर दिया है। साथ ही हृदय की स्पीच को लेकर कहा था कि मुझे कुछ गड़बड़ लग रही है। बच्चा साफ नहीं बोलता।<br />
उस बात ने फिर से दिमाग खराब कर दिया था। मैंने चाइल्स बिहेवियर स्पेशलिस्ट से कंसल्ट किया तो उन्होंने कहा कि ज्यादा प्रॉब्लम लग नहीं रही, पर आप स्पीच थैरपिस्ट से एक बार कंसल्ट जरूर करिए। पहले वाले स्पीच थैरपिस्ट को ही फोन कर घर बुलाया। एक घंटे बाद उसने कहा कि ज्यादा प्रॉब्लम नहीं है। कुछ स्वरों में दिक्कत है, प्रैक्टिस करवाइए, हो जाएगा।<br />
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सुकून तो मिला लेकिन अंदर से मजा नहीं आ रहा था। वह आज भी कुछ शब्द साफ नहीं बोलता, पर हर कोई यही कहता है कि इतना सब बच्चों के साथ होता है, वक्त के साथ ठीक हो जाएगा। बाकी चीजें भी तो इंप्रूव हुई हैं। जैसे पहले गद्दे की ऊंचाई से भी नहीं कूद पाता था और अब 3 फीट से कूद लेता है। उसके अपने शौक हैं। अपनी भावनाएं। वह हार्दिक से खुद को कम नहीं अंकवाना चाहता। कभी हार्दिक का लाड लड़ा दो और उससे न कहो तो नाराज हो जाता है। रो पड़ता है। कार्टून करैक्टर पसंद हैं। हल्क, स्पाइडर मैन, ही मैन, आयरन मैन उसके फेवरिट हैं। हर मौके पर यही कहता है कि मुझे लाके दो। हार्दिक को डांट भी ज्यादा पड़ी है और पिटाई भी। हृदय को उसकी दिक्कत की वजह से थोड़ी छूट मिली है, लेकिन यही फर्क कई बार ग्लानि पैदा करता है। हार्दिक की तरफ से सोचकर।<br />
नजफगढ़ आए कुछ ही दिन हुए थे कि एक रविवार जब मैं बाजार गया हुआ था, पता चला कि हृदय ने हार्दिक को धक्का दे दिया। उसका सिर फर्श की उसी कनोर से लगा जिससे दो साल पहले क्रिसमस के आसपास हृदय का पालम में लगा था। हार्दिक का सिर फट गया। खूनमखून। चाचा जी को कॉल किया तो पता चला वह बाहर गए हुए हैं। भाई को कॉल किया तो वह बच्चों को घुमाने लेकर जा रहा था। मैंने गीला गमछा उसके सिर पर बांधा और अकेले ही बाइक पर आगे बिठाकर अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने चार टांके लगाए। रास्ते में उसने नई टोपी खरीदी। अकेले जूस पीकर बहुत खुश हुआ। घर आकर दोनों ने प्रॉमिस किया कि फिर एक दूसरे को धक्का नहीं देंगे।<br />
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मसूरी जाने की प्लानिंग हुई तो हार्दिक को माता निकल आई। चिकनपॉक्स का वैक्सीन लग चुकने के बावजूद ऐसा हुआ, मैं डॉक्टर को कोस रहा था। कुछ दिन वह परेशान रहा। हम इसलिए ज्यादा परेशान रहे कि वह हृदय को गले लगाए बगैर नहीं मानता था। पर शुक्र है हृदय को कुछ नहीं हुआ। कुछ दिन में उसका चिकनपॉक्स ठीक हो गया। हम मसूरी जाकर लौट आए। कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन उनकी शरारत झेल करके पूजा जबरदस्त फ्रस्ट्रेट हो गईं और हाथ में आया स्टील का गिलास सोफे की तरफ फेंका। वहीं हार्दिक खड़ा था। गिलास गद्दी से टकराकर उछला और हार्दिक के होंठ चीर गया। मैं उस वक्त भी बाजार था। आया तो देखा कि दोनों होंठ कट गए हैं। अस्पताल पहुंचा तो डॉक्टर ने कहा यहां टांके नहीं लगाएंगे। वेट करना पड़ेगा। हो सकता है निशान न पड़े। लंबे अरसे में वह ठीक हुआ। अब भी जब यह पोस्ट लिख रहा हूं तो हृदय का होंठ एक हफ्ते में ठीक हुआ है। हार्दिक के धक्का देने से वह फ्रिज से टकरा गया था और अंदरसे पूरा होंठ कट गया था। ठीक होने के तुरंत बाद हार्दिक सिर के बल रसोई की स्लैब से गिर गया। शुक्र है एक दो दिन में उसके सिर और कमर का दर्द चला गया।<br />
इस साल उनकी भावनाओं में आ रहे बदलाव और खुद की भावनाओं से चल रहे द्वंद्व भी साथ साथ चले। पांच साल के हो जाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा, यही वह लाइन थी जो हर किसी से सुनने को मिलती थी। पर यह कोई पांच साल का सफर था नहीं। बच्चे बड़े होते हैं तो उनके व्यवहार में तरह तरह के बदलाव होते हैं। उसके ख्वाहिशों में बदलाव होते हैं, उनकी जरूरतों में बदलाव होते हैं। इन्हीं सब को समझने और निभाने की कोशिश हम दोनों का सफर बना रहा। खुद को भूलकर ही यह सफर जी सकते थे। लेकिन खुद को इग्नोर करना अपने आप में बड़ा खतरा होता है। हम भी मशीनें नहीं होते, इंसान होते हैं। आज बतौर बाप यह लिख रहा हूं, कभी बतौर बेटा यह समझ नहीं सका।<br />
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खैर, उनकी ख्वाहिशों को पूरा करने की बेस्ट कोशिश करना, उनको अच्छा इंसान बनाने की कोशिश करना और उनके हिस्से का प्यार उन्हें देने की कोशिश करना ही अब बाकी रहा है। हम दोनों अपने अपने स्तर पर उसे करने में लगे हैं। सही गलत में पड़े बगैर। बीज रोप रहे हैं, पौधे सींच रहे हैं... अपनी तरफ से जो सबसे सही लग रहा है, वह कर रहे हैं।<br />
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सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-11783954996496271272017-12-22T15:29:00.001+05:302017-12-22T15:33:17.232+05:30चौथा जन्मदिन : गिर कर उठे, उठकर चले<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUI7wBDMJ6bIHpd3ovAK77jOU77EwzgwD6pZlCyS4Mn7RH-TrSUPkUZIkvA64Yac4kuh9Dbi1SAAuyDaT4t4hXZ1RJcn3v29_6ENjpLwplSbmjrCOOlVos9B7LGN8PQm8etBVBLCYL-d0/s1600/IMG_20161213_145052.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiUI7wBDMJ6bIHpd3ovAK77jOU77EwzgwD6pZlCyS4Mn7RH-TrSUPkUZIkvA64Yac4kuh9Dbi1SAAuyDaT4t4hXZ1RJcn3v29_6ENjpLwplSbmjrCOOlVos9B7LGN8PQm8etBVBLCYL-d0/s640/IMG_20161213_145052.jpg" width="480" height="640" data-original-width="720" data-original-height="960" /></a></div>हृदय हार्दिक के चौथे जन्मदिन की पोस्ट लिखना शुरू करने से पहले ध्यान दिला दूं कि पिछली पोस्ट के अंत में लिखा था... हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी फिर शुरू हो गई है। उसके तीसरे जन्मदिन के अगले कुछ दिनों में यह सब दिक्कतें शुरू हुईं। और बहुत से टेस्ट हुए हैं। कल गिर जाने से सिर में लगी। तीन टांके आए हैं। एक और परीक्षा शुरू हो चुकी है। पर इस बारे में अगले साल लिखूंगा..<br />
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यही पढ़ते वक्त एक साल पहले का पूरा वाकया जेहन में घूम गया। हालांकि चौथे साल यह फर्क दिखने लग गया कि अब यादें उतनी कठोरता से जेहन में नहीं लौटतीं, जितनी शुरू के तीन साल पहले लौटती थीं।<br />
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<b>मैक्स के चक्कर चौथे साल भी</b><br />
हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी फिर से शुरू होना बहुत तकलीफ वाली बात थी क्योंकि जो डर कुछ महीने थैरपी बंद रहने के दौरान गया था, वह और बड़ा होकर लौटा था। वह मुंह से पानी गिराता था, थोड़ी भी ऊंचाई से कूद नहीं पाता था, स्पीच में काफी पीछे था, ऐसे ही दूसरे कई सिम्प्टम थे जिनसे मन में शक रहता था। इस बीच ब्रेन की दवाई वेल्परिन को 2 साल पूरे हो रहे थे इसलिए न्यूरोलोजिस्ट डॉक्टर रेखा मित्तल को दिखाना था। 2 दिसंबर को इस चेकअप के लिए वहां गए तो उन्होंने वेल्परिन को टेपर करके बंद करने का तरीका बताया। यह सेंस्टिव दवाई 2 महीने में बंद होनी थी और डॉक्टर के मुताबिक, दवाई बंद होने के अगले 6 महीने काफी कीमती होते हैं। मैंने सीधे सवाल किया कि अब फिट आने के कितने चांस हैं। उम्मीद से इतर जवाब भी सपाट था, 60 पर्सेंट। अगर फिट आया तो दवाई फिर शुरू हो जाएगी, नहीं आया तो मानकर चलेंगे कि अगले कुछ महीनों में खतरा टल गया है।<br />
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मैंने हृदय के माइलस्टोंस के बारे में बात की तो उन्होंने कहा, डॉक्टर सुनीता भाटिया को एक बार दिखाना चाहिए। वह डिवेलपमेंटल पीडिट्रिशन हैं। यहीं से मन में वहम आने शुरू हो गए। पालम जाने के बाद मैक्स बार बार आना आसान नहीं रह गया था, इसलिए जब भी यहां आने की कोई मजबूरी बनती, मूड खराब हो जाता। एक दिन जैसे तैसे अरेंज किया और डॉक्टर भाटिया के पास पहुंच गए।<br />
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बच्चों की ग्रोथ मापने के लिए इस तरह के डॉक्टर खास प्रोसीजर अपनाते हैं। कुछ ब्लॉक्स, गेंद, पजल्स और ऐसे ही दूसरे खिलौने इस्तेमाल किए जाते हैं। उन्होंने हृदय से ब्लॉक रखवाए, गेंद उछलवाई, कुछ तस्वीरें दिखाकर उनके नाम वगैरह पूछे। तब वह यह सब करने के ज्यादा मूड में नहीं था लेकिन कुछ चीजें न कर सकने के अलावा उसने बहुत से काम करके दिखा दिए। हालांकि दो ब्लॉक्स का ब्रिज नहीं बना सका था, गेंद दूर तक नहीं फेंक सका था।<br />
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यह सब देखने के बाद डॉक्टर भाटिया ने मुझे बेरा टेस्ट और आइक्यू/डीक्यू टेस्ट करवाने की सलाह दी। बेरा टेस्ट कान का काफी सेंस्टिव टेस्ट है। आईक्यू टेस्ट साइकोलोजिकल टेस्ट है। इसे डॉक्टर संजीता कुंडू को करना था। पहले मेक्स पटपड़गंज में बेरा टेस्ट के लिए टाइम लिया। हृदय को नींद की दवाई देकर सुलाया गया और फिर टेस्ट किया गया। टेस्ट तब भी हुआ था जब हृदय एक महीने का था। तब सब सही था। दोबारा भी टेस्ट ओके आया।<br />
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यह सब करते वक्त मेरे पास अनवॉन्टेड थॉट आने फिर से शुरू हो चुके थे। आदतन खुद ही यह समझने की कोशिश की कि आखिर यह सब क्यों हुआ होगा। इसी बीच एक दोस्त को फोन मिलाया जो अपने बच्चे की स्पीच थैरपी करवा चुकी थीं। सारे सिम्प्टम्स और डॉक्टर क्या बोल रहे हैं, यह सब डिस्कस किया तो उसने कहा कि कुछ चीजें तो ऐसी हैं कि ऑटिजम का शक लगता है। जैसे गाड़ियों को या खिलौनों को लाइन में लगा देना। बच्चों के बीच न खेलकर अलग जाकर खेलना। एक दो और भी। यहां से मेरी धड़कनें तेज हो गईं। मैंने ऑटिजम को स्टडी किया। हम डॉक्टर नहीं हैं इसलिए कभी नतीजे पर नहीं पहुंच सकते, लेकिन अक्सर ऐसी स्टडी हमें डर के एक जाल में तो उलझा ही देती है। इसी जाल में मैं बुरी तरह फंस गया और निगेटिव खयालों ने मेरे लिए फिर परेशानी खड़ी कर दी।<br />
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मैंने डीक्यू/आईक्यू टेस्ट के लिए डॉक्टर कुंडू से बात की। उन्होंने कहा कि 19 दिसंबर को सुबह सुबह बच्चे को वैशाली लेकर आओ, मैं चाहती हूं कि जब बच्चा यह टेस्ट दे तो एकदम फ्रैश हो। यह एक घंटे का टेस्ट था। हम पहुंचे तो टेस्ट शुरू हुआ। हृदय ने कई ऐसी चीजें सही बताईं जिनकी मुझे उम्मीद नहीं थी। कुछ चीजें वह नहीं भी बता सका। डॉक्टर ने मुझे समझाया कि कम से कम ऑटिजम जैसा तो कुछ नहीं दिख रहा। हां, वह स्लो है। कुछ दिन बाद टेस्ट रिपोर्ट लेने को कहा। रिपोर्ट आई तो उसमें लिखा था कि हृदय का आईक्यू लेवल 97 है। यह औसत है। इसमें डॉक्टर ने सलाह दी थी कि स्पीच थैरपी और स्पेशल एजेकेशन शुरू की जाए। ऑक्यूपेशनल थैरपी कंटीन्यू की जाए। पेरंट्स को बिहेवरियल मैनेजमेंट फीचर आउटलाइन किए जाएं और उनको साइको एजुकेशन दी जाए।<br />
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<b>मेरे साथ पूजा ने लड़ी लड़ाई</b><br />
अब चैलेंज यह था कि ऑक्यूपेशनल थैरपी और स्पीच थैरपी एक साथ कैसे दिला सकते हैं। मैक्स तो बहुत दूर है। रोज नहीं आ सकते। इसलिए पालम में थैरपिस्ट ढूंढना शुरू किया। एक थैरपिस्ट मिले। वह घर आए और हृदय को चेक किया। कहा कि ज्यादा घबराने की बात नहीं लगती। मैं वीक में एक दिन आ जाया करूंगा। बाकी कुछ चीजें बताईं जो हम घर में करवा सकते हैं। कैसे बोलना है बच्चे के साथ और कैसे रिपीट कराना है। कैसे कहानी सुनानी है और फिर बीच बीच में पूछना है। कई बारीक चीजें थीं जो लिख ली थीं। मैं कई पिक्चर वाले चार्ट और कार्टून ऑब्जेक्ट्स लेकर आया और एक कमरे की सारी दीवारें ऐसी चीजें चिपका कर भर दीं। कहीं एयरोप्लेन है तो कहीं आकृतियां चिपकी हुई हैं। कहीं पशु पक्षी तो कहीं डोरेमॉन चिपका हंस रहा है। इन सबको बारी-बारी हृदय को बताते और फिर पूछते। यह चेक करते कि उसकी मेमरी ग्रो हो रही है या नहीं। वह कितना याद रख पा रहा है। उसके साथ हार्दिक अपने आप ही अपने जोहर दिखा रहा था। जो हम हृदय को कराते, वह भी कहता मुझे भी कराओ। उसकी मेमरी भी शार्प थी और स्पीच भी क्लीयर। उससे मैं हृदय को कंपेयर करता और अंदाजा लगाता कि कितने दिन बाद हृदय यहां पहुंचेगा। हृदय उससे करीब 3 महीने पीछे चल रहा था। यानी जाे काम हार्दिक आज कर रहा था, हृदय तीन महीने बाद उसे करना सीखता था। मेरे लिए यह भी संतोष की बात थी। धीरे-धीेरे उसकी स्पीच क्लीयर होने लगी।<br />
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ऑक्यूपेशनल थैरपी भी घर पर ही शुरू की। जिम बॉल और दूसरे तरीकों से पूजा ने बेहिसाब मेहनत की और नतीजा फिर दिखना शुरू हो गया। स्पीच में सुधार दिखने लगा और बॉडी लेंग्वेज भी एक्टिव लगने लगी। ओरोमोटर प्रैक्टिस से हृदय ने मुंह से लार गिराना भी धीरे धीरे बंद कर दिया और कुछ हद तक जंप भी करने लगा। हार्दिक जिस तरह की कूंद फांद कर लेता है, वैसी तो खैर दूसरे बच्चे भी नहीं कर पाते लेकिन हृदय पर उसका एक असर यह जरूर पड़ रहा था कि वह देख कर सीख रहा था। पूजा ने इस साल ऐसी लड़ाई जीती थी कि मेरा संघर्ष मुझे इसके सामने दिखता तक नहीं था।<br />
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इस तरह धीरे-धीरे हृदय ने अच्छे से रिस्पॉन्ड करना शुरू कर दिया। ऑक्यूपेशनल थैरपी करना कम हो गया और फिर बंद। स्पीच थैरपी से भी ध्यान हट गया क्ंयोकि लगने लगा कि वह नए वर्ड सीख ही रहा है तो कवर कर लेगा। इस तरह उसकी दवाई भी बंद हो गई और थैरपी भी। तीन साल में यह सबसे संतोष वाली बात थी। संतोष की यह शुरुआत थी।<br />
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<b>कुछ न कुछ तो चलता रहता है</b><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTx9EyAwlis9GvtUeO6ifgxfno5ivEhlgBroSAmN4gDzz0nqNwdMWLi4sdH7E6lUpoP7dnYz0c01PBHpRj8V8QHclpdTkucL31-K9s7B-Q7mu19jbd8L7Ix-mAlcOq_GGnwZhaTHnR9hs/s1600/IMG_20161224_074747.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTx9EyAwlis9GvtUeO6ifgxfno5ivEhlgBroSAmN4gDzz0nqNwdMWLi4sdH7E6lUpoP7dnYz0c01PBHpRj8V8QHclpdTkucL31-K9s7B-Q7mu19jbd8L7Ix-mAlcOq_GGnwZhaTHnR9hs/s640/IMG_20161224_074747.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_gSNYfzuHvbMXvuZJmQDUokdd_v-CFUMHsnKEuxY7h_wuex_JglrIYi8cRIPeuxuUpPzt0cOApeZ-a09NzUAHXXtXd-caC5zDMyLlxQmyjZQJCaVJSlpq7v49EHhQnfhS-JEJ2mBRYFo/s1600/IMG_20170220_080921.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_gSNYfzuHvbMXvuZJmQDUokdd_v-CFUMHsnKEuxY7h_wuex_JglrIYi8cRIPeuxuUpPzt0cOApeZ-a09NzUAHXXtXd-caC5zDMyLlxQmyjZQJCaVJSlpq7v49EHhQnfhS-JEJ2mBRYFo/s640/IMG_20170220_080921.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><br />
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लेकिन यही वह वक्त था जब मुझे यह उम्मीद छोड़नी थी कि जिंदगी में ऐसा भी वक्त होता है जब सब सही सही हो, और कुछ गड़बड़ नहीं हो। यही वह वक्त था जब यह समझ आ रहा था कि कुछ न कुछ जीवन भर चलता रहता है। थोड़ा या ज्यादा। दिसंबर में ही एक दिन जब मैं बस से घर लौट रहा था, वाइफ का फोन आया कि हृदय को सिर में चोट लग गई है। फोटो भेजी थी। फोटो देखकर दिमाग भन्ना गया। गहरा जख्म था। हार्दिक ने किचन में पानी मांगते वक्त खड़े खड़े हृदय को जरा सा धक्का दिया था और वह फर्श और दीवार के साथ लगी पत्थर की पट्टी पर इस तरह गिरा कि कट गया। करीब 3 इंच लंबा गहरा घाव था। मैंने फोन पर ही वाइफ को हौसला दिया और कहा कि जब तक मैं पहुंचूं, डॉक्टर सुधीर सबसे पास है, वहां ले जाओ। ऊपर किराए पर रहने वाली भाभी साथ गईं। मैंने फोन पर डॉक्टर से बस इतना कहा था कि टांगा लगाओ तो औजार जरा सटरलाइज कर लेना। शायद वह बुरा मान गया और मुझसे कहा कि टांगा लगाने की सुविधा हमारे पास नहीं है, बड़े अस्पताल ले जाओ। अब यह नई मुसीबत थी। मैंने वाइफ को कहा कि तुम लोग पास के तोमर अस्पताल पहुंचो, मैं सीधे वहीं आता हूं। जब पहुंचा तो हृदय शांति से खड़ा था। मैंने वहां उसको टांके लगवाए और घर ले आया। करीब एक सप्ताह बाद टांके खुले और धीरे धीरे जख्म भर गया। फरवरी की शुरुआत में हार्दिक खिड़की का गेट खोलते हुए गिरा और उसकी ठुड्डी कट गई। लंबा कट था लेकिन तब वह बिना टांके के ही भर गया। मार्च में दोनों के स्कूल में रिजल्ट डे था। प्ले स्कूल के बच्चों का क्या रिपोर्ट कार्ड और क्या नहीं, पर बच्चों के जीवन का पहला नतीजा था इसलिए मैं भी उनके स्कूल गया। हार्दिक अकैडमिक्स एक्सिलेंट था और उसे स्पोर्ट्स में ब्रॉन्ज मैडल मिला था। हृदय को वेरी गुड मिला था। हम मैडम से बात कर ही रहे थे कि भागते हुए हृदय को हार्दिक ने धक्का दे दिया। वह सामने बैंच से जा टकराया और इस बार उसकी ठुड्डी पर कट लग गया। इस तरह पहले टेंशन यह थी कि हृदय सही से चल फिर पाए, वहीं अब टेंशन यह हो गई कि भागते हुए खुद को चोट लगवा लेते हैं। ऐसी न जाने कितनी चोटें फिर पूरे साल लगती रहीं, लेकिन तब यह आदत पड़ चुकी थी। पहली चोट पर जिस तरह घबराए थे अब वैसा नहीं था। लेकिन हार्दिक जिस तरह की शरारत करने लगा, उसका जिक्र करूंगा तो आप भी घबरा जाएंगे।<br />
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हार्दिक ने जब नचाना शुरू किया</b><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7W_Rd9aRmK74Ihn1npeNq0TPdhnlXgBKT9BTBh7_T0h3LN65VB1N1Zik9HsXfRSfSWZjA8PWY_L6UPFL_GsLdXnEWDuk6UTyw279uh67xCW-LA3Zc_kF2gata4WEOfuOIo9KvQX1RV78/s1600/IMG_20170108_131906.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7W_Rd9aRmK74Ihn1npeNq0TPdhnlXgBKT9BTBh7_T0h3LN65VB1N1Zik9HsXfRSfSWZjA8PWY_L6UPFL_GsLdXnEWDuk6UTyw279uh67xCW-LA3Zc_kF2gata4WEOfuOIo9KvQX1RV78/s640/IMG_20170108_131906.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjadF2nbOZ4NpyhQCYuIaFTd3y8onhxmBexz-q0VELKJIKoQIZ99XtwqlqhKiZJQ7uCkzpeRkehan58nVAYXUsUGKPoZNuOr_tcGoicEdTmgjOCZSOVZwzgZ9BDgNc5jnmNWJ5fJFe8F3M/s1600/IMG_20170507_091552.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjadF2nbOZ4NpyhQCYuIaFTd3y8onhxmBexz-q0VELKJIKoQIZ99XtwqlqhKiZJQ7uCkzpeRkehan58nVAYXUsUGKPoZNuOr_tcGoicEdTmgjOCZSOVZwzgZ9BDgNc5jnmNWJ5fJFe8F3M/s640/IMG_20170507_091552.jpg" width="480" height="640" data-original-width="720" data-original-height="960" /></a></div><br />
हृदय के स्लो होने की चिंता जा रही थी लेकिन हार्दिक के हाइपर एक्टिव होने से कई समस्याएं चिंता का कारण बन रही थीं। मसलन, वह ग्रिल के सहारे इतना ऊपर चढ़ जाता था कि छत को हाथ लगा देता था। उससे उतरने को कहो तो एक हाथ छोड़कर मानो धमकी दे रहा हो कि पास आए तो कूद जाऊंगा। ग्रिल पर चढ़कर बल्ब गिरा देता था, तस्वीरें तोड़ देता था या कोई और बखेड़ा खड़ा कर देता था। इतनी टेंशन देता था कि कभी यह समझ नहीं आया कि इसका क्या इलाज करें। न किसी बात का डर था, न चिंता। उसकी पिटाई भी होती थी इस बात पर, पर रोते हुए बड़ी मासूमियत से बोलता कि क्या करूं, मेरा मन करता है ऊपर चढ़ने का। अब इसका क्या जवाब दोगे आप।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzNXYUd5Wtg8FqKDHFQ-afU4a9XWux206qkc-0C4mR3INPV4jzBNK3P8BJ4SY1_0c7_kryPdxVnkDILePCuNbUST-SLmo-GLd3U3cG8oVM7TQ6Oja9Jy8FshZZb9jFtdi-BFXJEyMetLs/s1600/IMG_20170122_081552.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzNXYUd5Wtg8FqKDHFQ-afU4a9XWux206qkc-0C4mR3INPV4jzBNK3P8BJ4SY1_0c7_kryPdxVnkDILePCuNbUST-SLmo-GLd3U3cG8oVM7TQ6Oja9Jy8FshZZb9jFtdi-BFXJEyMetLs/s640/IMG_20170122_081552.jpg" width="480" height="640" data-original-width="720" data-original-height="960" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgooruyBWrTJgDlrXUCEIlW1NEw4bWa5Ow1iLRfOQWhbGrcqwENRYHSmXpuAfd3GpFStAQ2JjF7bzoWsattrPaEugiSuZMbs4C-EdxnHRPOlOX5Db7HwBKIft_SVFJvTwluEN6jTOGf44/s1600/IMG_20170122_113227.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgooruyBWrTJgDlrXUCEIlW1NEw4bWa5Ow1iLRfOQWhbGrcqwENRYHSmXpuAfd3GpFStAQ2JjF7bzoWsattrPaEugiSuZMbs4C-EdxnHRPOlOX5Db7HwBKIft_SVFJvTwluEN6jTOGf44/s640/IMG_20170122_113227.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div>हार्दिक के चंचल होने के कारण ही उसे स्कूल के एनुअल फंक्शन में एक गाने पर ग्रुप परफॉरमेंस के लिए चुना गया था। हम सब गए उसकी परफॉरमेंस देखने। गाना था आई लव माई स्कूल। बेहतरीन परफॉर्म किया और मैंने उसके वीडियो और तस्वीरें खींचीं। तब तक वह 3 साल का नहीं हुआ था, पर मोबाइल में सबवे सफर और टेंपल रन इतनी फास्ट खेल लेता था कि मैं खुद कभी उसके नजदीक भी नहीं फटक पाया। अपने नाम की स्पैलिंग दोनों ने 3 साल की एज में याद कर ली और मेरा फोन नंबर भी। कोई भी पूछे कि पापा का नंबर क्या है तो बता देते थे। धीरे धीरे सब याद कर रहे थे, और मुझे यह संतोष मिल रहा था कि गाड़ी पटरी पर आ रही है। ये सीखने लगे हैं तो धीरे धीरे सब करना सीख लेंगे।<br />
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<b>फिर आई मुसीबत</b><br />
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महीने दो महीने भी साधारण नहीं बीते होंगे कि एक दिन जून में पूजा को पेट में दर्द उठा। पेट दर्द की उनकी हिस्ट्री पुरानी रही है इसलिए मुझे लगा कि यह गैस्टिक पेन होगा। मगर इस बार तो बला कुछ और थी। मैंने तुरंत बाइक निकाली। तब रेवाड़ी से भाभी आई हुई थीं। बच्चों को उनके पास छोड़कर भागा डॉक्टर के पास। डॉक्टर ने बोला कि बड़े अस्पताल ले जाओ। दूसरे अस्पताल गया। कई टेस्ट हुए। पित्त की थैली में स्टोन था। डर था कि अपेंडिक्स न हो। पर अल्ट्रासाउंड से कुछ साफ हीं हुआ। सीटी कराने को कहा गया। तब पूजा की गायना के पास गए। कुछ दिन दवाइयां खाईं, कुछ फर्क पड़ा लेकिन तब तक सिर में दर्द की ऐसी टेंडेंसी बन चुकी थी कि नया डर सताने लगा। पेट दर्द को ठीक है पर ये सिर दर्द, वह भी ऐसा कि लगे अभी कोई नस फटेगी। फिर कुछ अनवॉन्टेड थॉट्स आने लगे। और फिर यह सब बढ़ते बढ़ते हालात इतने खराब हुए कि मैंने तय किया कि मैक्स वैशाली जाते हैं। वहां डॉक्टर ने बताया कि समस्या तो कुछ बड़ी है पर दवाइयां चलेंगी कम से कम साल भर। अब दवाइयां चल रही हैं, दाे तीन चक्कर अस्पताल के लग चुके हैं, लेकिन इसका जिक्र अगले पोस्ट में।<br />
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<b>एक नुकसान</b><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPWQ_N5XSkueGqpw9062FaKpvBVaVjVP7c_p_aeFyJ35PvsuhSw9S1EwOVcOm2JNcOE_vd5-n-9h8Nxs7kt1c-M0zQOjVCr-IJXWXOHa7RiiHKiUXZ44bijpMCSnasy3pLpSGcW_Fkon8/s1600/IMG-20170318-WA0048.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPWQ_N5XSkueGqpw9062FaKpvBVaVjVP7c_p_aeFyJ35PvsuhSw9S1EwOVcOm2JNcOE_vd5-n-9h8Nxs7kt1c-M0zQOjVCr-IJXWXOHa7RiiHKiUXZ44bijpMCSnasy3pLpSGcW_Fkon8/s640/IMG-20170318-WA0048.jpg" width="640" height="359" data-original-width="1280" data-original-height="718" /></a></div><br />
इस साल एक और नुकसान हुआ जिसे भूलना आसान नहीं। इसलिए कि इसमें भी कहीं न कहीं बच्चे जुड़े हुए थे। दरअसल, शुरुआत से ही मेरी और पूजा की इच्छा थी कि बच्चों की परवरिश से जुड़े लम्हों को सहेजना है। जो जो काम वे पहली बार करें, कम से कम उसकी एक तस्वीर खींची जाए ताकि बच्चे जब बड़े हों तो देख सकें। हम यह काम कर रहे थे। हर दुख तकलीफ के दौरान भी बच्चों की मुसकुराहटों, शरारतों, मुश्किलों, सब तरह के पलों को अपने मोबाइल में कैद कर रहे थे। बच्चे एक साल का होने के बाद करीब 9 महीने मेरे साथ नहीं थे, मगर उनकी हर हरकत मेरे पास वट्सऐप से आती थी। उनके करीब 3 साल मेरे पास एक हार्डड्राइव में कैद थे जो 500 जीबी की थी। करीब 400 जीबी डाटा उसमें था जिसमें बच्चों के इन 3 सालों के अलावा मेरे भी करीब 10-12 साल थे। एक दिन इसे ऑफिस ले गया था। वहीं ड्रोर में पड़ी थी। हफ्ते भर लेकर ही नहीं आया। एक दिन शाम को पता चला कि ऑफिस में आग लग गई है। मैंने इस उम्मीद में रात बिताई कि हमारे वाले फ्लोर तक आग नहीं आएगी, उससे पहले ही बुझ जाएगी। दोपहर में ऑफिस आया तो देखा आग बुझ गई थी मगर दोपहर होते होते फिर सुलग गई। इस बार हमारे वाला पहला फ्लोर उसकी चपेट में आया। सब जल गया। इसके अगले दो महीने वह हार्ड डिस्क खयालों में ऐसी घूमी कि बता नहीं सकता। एक दिन जब फ्लोर देखने का मौका मिला तो जैसे तैसे अपनी सीट तक गया। जब देखा कि वहां कुछ भी नहीं बचा है, उसके बाद खयाल टूटना शुरू हुआ। धीरे धीरे उससे ध्यान हटा। हालांकि आज भी वह हार्ड डिस्क जब याद आती है तो अजीब सा लगता है। लगता है जैसे सिखा के गई हो कि पिछला सब हटा दिया जाए तो भी आगे की जिंदगी चलती रहती है। उस पर ज्यादा फरक नहीं पड़ता।<br />
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<b>कुछ कुछ यूं ही</b><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaDl_ayo1_mQ6IA0Rv4iuXEYfweTkbBlT98ekK7Yyu8lPYHPPn-cwlK9mskwapeixLPrUGdo3RlG3-SHtSAhBHnz3m90ubZhoTcn0VzR_2V9hqt9iqsv-Jt9dPoKwJlZU9t748kPj05M0/s1600/IMG_20170419_073032.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaDl_ayo1_mQ6IA0Rv4iuXEYfweTkbBlT98ekK7Yyu8lPYHPPn-cwlK9mskwapeixLPrUGdo3RlG3-SHtSAhBHnz3m90ubZhoTcn0VzR_2V9hqt9iqsv-Jt9dPoKwJlZU9t748kPj05M0/s640/IMG_20170419_073032.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwNMGJoc6lU4RSg9Q7PyQprbRMMUDx2cOdVqY0MZXEdaxn6XWJzIgdZqjP1zwGkFpCXHRylASQl5veZg06Zta3QDn3BOy8N-5UKMgIRwg6DDJfgjRfXQ5hmyILkOz5oilFzdC3R6NMmc4/s1600/IMG_20170430_105021.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjwNMGJoc6lU4RSg9Q7PyQprbRMMUDx2cOdVqY0MZXEdaxn6XWJzIgdZqjP1zwGkFpCXHRylASQl5veZg06Zta3QDn3BOy8N-5UKMgIRwg6DDJfgjRfXQ5hmyILkOz5oilFzdC3R6NMmc4/s640/IMG_20170430_105021.jpg" width="640" height="399" data-original-width="1600" data-original-height="997" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_X2FJMbAoCCn6Dr1OYzHVSlmLLknVViiBkpezkrK8Yz-zCHUealpujxg32gChdOP0i17hH6wbB34Hc352EQz8img9wdc3t_tlkh90tDqx5tLFq-U8_frE6oPv0hO1v5m58XIedK3JAu0/s1600/IMG_20170501_073335.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_X2FJMbAoCCn6Dr1OYzHVSlmLLknVViiBkpezkrK8Yz-zCHUealpujxg32gChdOP0i17hH6wbB34Hc352EQz8img9wdc3t_tlkh90tDqx5tLFq-U8_frE6oPv0hO1v5m58XIedK3JAu0/s640/IMG_20170501_073335.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhkTjWgbWzeNn8aHT76w8fwIS-WGHQsuSqC7JpvbM4Pxhoew1wBXq9wjE4-jeVTOqui3sNQWruI-VXj_yTxWK5cgdUR7SfYcw57zWx9ioDuT4wDvbsiAME7VLan-99GRSAANXbNa7lQnw/s1600/IMG_20170608_174948.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhkTjWgbWzeNn8aHT76w8fwIS-WGHQsuSqC7JpvbM4Pxhoew1wBXq9wjE4-jeVTOqui3sNQWruI-VXj_yTxWK5cgdUR7SfYcw57zWx9ioDuT4wDvbsiAME7VLan-99GRSAANXbNa7lQnw/s640/IMG_20170608_174948.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZCpBfgoL90Iii3dkeUgQ162qWGEK5qqvFmlmVZptBZMQx25jy6VFeHOeeY-lutygaTnhv84TBgv7R5pKLqHkRWxgAKwrYqQRSH5oe4iY5UeroGybKLjANvgbkagGLnlcJu4EH1qKJpT4/s1600/IMG_20170917_172803.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZCpBfgoL90Iii3dkeUgQ162qWGEK5qqvFmlmVZptBZMQx25jy6VFeHOeeY-lutygaTnhv84TBgv7R5pKLqHkRWxgAKwrYqQRSH5oe4iY5UeroGybKLjANvgbkagGLnlcJu4EH1qKJpT4/s640/IMG_20170917_172803.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAN61j2_9212I9enzonmWXRd_ZADAx4yn5a3VdCcr6rb1BOWNfr5n0DruP_JAdFzws_1HhCyC0UYGBfIPQXIQ1oWer_sEHuUbeZLU7hf08yDKZzdRPTPYN6rYh-VBs-Qy6Tu54m3YXscw/s1600/IMG_20171019_210948.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAN61j2_9212I9enzonmWXRd_ZADAx4yn5a3VdCcr6rb1BOWNfr5n0DruP_JAdFzws_1HhCyC0UYGBfIPQXIQ1oWer_sEHuUbeZLU7hf08yDKZzdRPTPYN6rYh-VBs-Qy6Tu54m3YXscw/s640/IMG_20171019_210948.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzKv-1Szyt7mWAeaMPLOW-F4mEZLfNCOzMwBvyT9Kh4CoClth9GdS2EIZz7EU7bvWsip8pRQp2iOEWALIrGD5lvGqaVHn_pRqp3MVeqi5hF2_Z08F7DyL8eL8c_JQ2o44RTJnSAa4km2A/s1600/IMG_20171026_201124.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzKv-1Szyt7mWAeaMPLOW-F4mEZLfNCOzMwBvyT9Kh4CoClth9GdS2EIZz7EU7bvWsip8pRQp2iOEWALIrGD5lvGqaVHn_pRqp3MVeqi5hF2_Z08F7DyL8eL8c_JQ2o44RTJnSAa4km2A/s640/IMG_20171026_201124.jpg" width="640" height="480" data-original-width="1600" data-original-height="1200" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIyv-wO5GNz34ZssrOzlgSDn85GpKiAyGraAFOV5tJzIzcCo41slPgq7nyInXmCSRJ0Ob7aEyp7Dz6GykOO8_3rTNre56tM5mRpAdD3xsOIerqZaLO10ImY_SQQimx-2o_HSnHrk8ADfg/s1600/IMG_20171112_153700.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIyv-wO5GNz34ZssrOzlgSDn85GpKiAyGraAFOV5tJzIzcCo41slPgq7nyInXmCSRJ0Ob7aEyp7Dz6GykOO8_3rTNre56tM5mRpAdD3xsOIerqZaLO10ImY_SQQimx-2o_HSnHrk8ADfg/s640/IMG_20171112_153700.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjeB3M-yMBGtxoNZJzJJA0s8eZWp5e1LuNmG9pQxumqvb7WW_ZOpCDCsWJzb2T_i9zjUhsMYO8Qi2UD8z-TXsuXdwT66-9dubCKklON4eG0DWtrxRF8qUuinvlnKGgu2MJenEKy31hI-OQ/s1600/IMG_20171119_163913.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjeB3M-yMBGtxoNZJzJJA0s8eZWp5e1LuNmG9pQxumqvb7WW_ZOpCDCsWJzb2T_i9zjUhsMYO8Qi2UD8z-TXsuXdwT66-9dubCKklON4eG0DWtrxRF8qUuinvlnKGgu2MJenEKy31hI-OQ/s640/IMG_20171119_163913.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKlyYxLm2MrD2jQXI4ZWdBdAvZfhmEwde8YKBXckCj1AgTBs5WIv2tr-L46zGZNBqx2PCZzXsQEEK2qqktFh11VrKYpV0KXttljQGJPJQkaISbU7higXle5cEj62RLbgfYKU_MFJEJdB0/s1600/IMG_20171210_171124.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKlyYxLm2MrD2jQXI4ZWdBdAvZfhmEwde8YKBXckCj1AgTBs5WIv2tr-L46zGZNBqx2PCZzXsQEEK2qqktFh11VrKYpV0KXttljQGJPJQkaISbU7higXle5cEj62RLbgfYKU_MFJEJdB0/s640/IMG_20171210_171124.jpg" width="480" height="640" data-original-width="1200" data-original-height="1600" /></a></div>इस साल भी अच्छे अनुभवों के साथ कुछ ऐसे अनुभव मिले जिससे समझ आया कि सब उजला उजला नहीं होता। जिंदगी ब्लैक एंड वाइट है। बच्चों को पालते वक्त आप बस उन पर प्यार ही नहीं लुटा रहे होते, अलग अलग वजहों से झुंझलाहटों और चिड़चिड़ाहटों को भी जीते हैं। हमने ये भी जिया। कभी कभी लगा कि बहुत मुश्किल है अब यह सब बर्दाश्त करना, मगर हर बार यह कहकर एक दूसरे को तसल्ली दी कि पिछले जो साल निकले, उनसे तो लाख दर्जे सही है यह साल। इसलिए हाथी निकल गया, पूंछ भी निकलने दो।<br />
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यह साल बच्चों के तेजी से बढ़ने का साल था। वे पहले से ज्यादा साफ बोलने लगे थे। उनकी इच्छाएं इसी साल सबसे पहले सुनने को मिलीं। शिकायतों का उनका लहजा बताता था कि बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी है। अब एक दो नहीं, चार लोगों की इच्छा अनिच्छा देखकर चलना होगा। उनकी बेमौसम फलों की डिमांड हो या कार खरीदने की इच्छा, उनको समझाना बहुत मुश्किल था कि ऐसा क्यों नहीं कर सकते। हालांकि उनको रुपयों पैसों का कोई मोह अभी नहीं है, वे अब भी एक रुपये के लॉलिपॉप या पांच रुपये के लेज चिप्स के पैकेट से ज्यादा खुश होते हैं। हां, रोज नए कपड़े पहनने की जिद या अपनी रेलगाड़ी या अपनी कार खरीदने जैसी जिद कभी-कभी भारी पड़ जाती है।<br />
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खैर, शब्दाें में यादों को संजोना कठिन काम होता है। इसलिए इतना ही। अभी उसमें लगते हैं जिसे शायद अगले साल लिखें।<br />
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सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-41839583495639842992016-12-23T15:32:00.000+05:302016-12-23T15:41:56.108+05:30तीन साल : बच्चे दौड़ने लगे, हमने कुछ-कुछ खड़ा होना सीखा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjvNLd8OPprNMppHgUVT4n0S-4JtLw0sV1WHVQwywkGGamjtg1w0EkucYrdlZ8udu8YaFG13QRPQB-Pj0rTuDPKjY4pNEugNY0sZo9P8ooAnk3sQ2sQs96Ya71QNXctmXbxUcu7iHy9_N4/s1600/IMG_20161026_193338.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjvNLd8OPprNMppHgUVT4n0S-4JtLw0sV1WHVQwywkGGamjtg1w0EkucYrdlZ8udu8YaFG13QRPQB-Pj0rTuDPKjY4pNEugNY0sZo9P8ooAnk3sQ2sQs96Ya71QNXctmXbxUcu7iHy9_N4/s640/IMG_20161026_193338.jpg" width="480" height="640" /></a></div>हृदय हार्दिक तीन साल के हो गए। तीसरी बर्थ डे पोस्ट लिखना शुरू किया तो पिछले साल के बजाय शुरुआती दो साल पहले याद आए। फिर तीसरा साल। पिछली पोस्ट के अंत में लिखा था कि जन्मदिन के तीन दिन बाद फिर बच्चे नानी के पास चले गए। बुआ-मम्मी घर चली गईं। और मैं अपनी दिनचर्या में लग गया, इस उधेड़बुन के साथ कि बच्चों को फिर घर लाना है इसलिए कैसे कोई तरकीब करनी है।<br />
तो यह उधेड़बुन चलती रही अगले दो महीने। सर्दी ज्यादा हो चुकी थी तो सोचा कुछ दिन बच्चों को वहीं रहने दूं, लेकिन जनवरी आते-आते हालात ऐसे बनने लगे कि एक टारगेट बनाना पड़ गया। दरअसल, पूजा के जेहन में यह ख़याल तेजी से आने लग गए कि वह बच्चों को मेरे साथ नहीं रख पा रहीं। इससे डिप्रेशन बढ़ना शुरू हो गया। मुझे पता था कि इस पिल्लर पर ही सब टिका हुआ है। इसलिए जरूरी था कि यह डिप्रेशन कम करूं। मैंने सोचा किसी तरह शुरुआत हफ्ते-दो हफ्ते से ही सही, बच्चों को घर लाकर अकेले ही संभालने की करनी चाहिए। टारगेट यह कि हर बार अपने पास रखने का टाइम डबल करूंगा। इससे धीरे धीरे प्रैक्टिस होने लगेगी।<br />
तो जनवरी में बच्चे एक हफ्ते के लिए पालम आए। मैं ऑफिस से टाइम से निकल जाता। एक हफ्ते पूजा ने अकेले उनको संभाला। फिर डेढ़ महीने के लिए वापस चले गए। होली से पहले मार्च में फिर आए और इस बार 20 दिन रहे। एक हफ्ते भाई के घर और बाकी पालम। यह जो टाइम डबल हो रहा था, वही हौसला बढ़ा रहा था। 20 दिन से एक महीने, फिर दो महीने और फिर 3 महीने। और इस तरह बच्चों का नानी के घर रहने के दिन आधे होते चले गए। दो महीने से एक महीने, फिर 10 दिन, 7 दिन और फिर 2 दिन। प्रैक्टिस होती चली गई और अगले जन्म दिन तक का टारगेट अचीव कर लिया।<br />
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<b>मुश्किलें</b><br />
एक तरफ बच्चों को अकेले रखने की प्रैक्टिस चल रही थी, दूसरी तरफ कुछ मुश्किलें फिर आकर परीक्षा लेने में लग गईं। मार्च-अप्रैल में हृदय को नाक से खून आने लगा। मेरे भतीजे को यह प्रॉब्लम रही है, इसलिए मैंने इसे सीरियसली नहीं लिया। सोचा नकसीर है, गर्मी से आई होगी। लेकिन जब एक हफ्ते में दो बार और फिर एक ही दिन में दो बार नाक से खून आने लगा तो टेंशन बढ़ गई। डॉक्टर से बात की तो उन्होंने कहा कि कुछ दिन वेट कर लो और अगर फिर भी यह जारी रहे तो ईएनटी स्पेशलिस्ट को दिखाओ। जिस तरह की दिक्क्तें दो साल में देखी थीं, उसके बाद मैं डरपोक होने लग गया था। कुछ भी ऐसा वैसा हो तो उलटे खयाल ज्यादा आने लगते। हृदय की टेंशन तो दिमाग में थी ही, एक और तब आ टपकी। मेरे मुंह में जीभ पर ऐसा घाव हुआ कि कुछ दिन ठीक नहीं हुआ। आमतौर पर बीकासूल कैपसूल वगैरह से ऐसी चीजें ठीक हो जाती थीं। लेकिन जब यह दूसरे हफ्ते में पहुंचा तो डरे हुए मेरे दिमाग में खयाल आने लगे कि कहीं मुझे कैंसर तो नहीं। ऐसे खयाल बेफालतू के ज्यादा होते हैं, लेकिन मनोविज्ञान के जानकार कहते हैं कि जब दिमाग में खयाल आते हैं तो यह लगता नहीं कि यह बेफालतू हैं। तब तो खुद हम ऐसे तर्क गढ़ रहे होते हैं जो साबित करते हैं कि जरूर कोई बड़ी बीमारी ही होगी। वह भी तब जब मैं अक्सर पान मसाला चबा लिया करता था। (उस डर से फिर छोड़ दिया।) घर के पास ही स्कूल में कैंसर का फ्री चेकअप कैंप लगा तो वहां भी जाकर चेकअप करा आया। डॉक्टर ने बोला, अरे ऐसा कुछ नहीं है। मस्त रहो। उसके बाद वह घाव अपने आप भर गया। मैं उस डर से निकला भी नहीं था कि तीसरी टेंशन ने दिमाग में घर कर लिया।<br />
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<b>बड़ी टेंशन</b><br />
पूजा को छाती में दर्द रहने लगा। मैं हर जरा सी बात पर डर रहा था इसलिए डॉक्टर कुसुम के पास भेजा कि एक बार चेक करवा लो। डॉक्टर ने हमारी टेंशन दूर करने के लिए टेस्ट लिख दिए। एक टेस्ट बड़े अस्पताल में ही हो सकता था, इसलिए फिर मैक्स का रुख किया। वहां बताया कि इस टेस्ट को हमारे यहां का डॉक्टर लिखेगा तभी करेंगे। यानी वहीं फिर चेकअप करवाओ। पता किया कि किसे दिखाएं तो नाम आया ऑन्कॉलोजी डिपार्टमेंट की डायरेक्टर डॉक्टर मीनू वालिया का। उन्होंने चेकअप किया और कहा, गांठ है तो सही, पर अभी दवाई दे रही हूं। 15 दिन में फर्क नहीं पड़ा तो देखेंगे। साथ में अल्ट्रासाउंड लिख दिया। अल्ट्रासाउंड में कुछ ''ज्यादा गंभीर'' नहीं होने का इशारा था पर हमारा मन टिक सके, यह भी नहीं था। एक महीने बाद एक और अल्ट्रासाउंड करवाया गया। इस बार अल्ट्रासाउंड करने वाली डॉक्टर ने हौसला दिया कि सेम यही प्रॉब्लम उनको थी, इसलिए घबराओ नहीं। दवाई से ठीक हो जानी चाहिए। उन्होंने कहा, गांठ तो है पर मुझे आसार लग रहे हैं कि यह हार्मोनल गांठ है जो दवाई से चली जानी चाहिए। खैर दवाइयां खाने के बाद भी दर्द और गांठ नहीं गई तो डॉक्टर मीनू ने एक सर्जन डॉक्टर से ऑपिनियन लेने को कहा, जो उनके सामने वाले ही कमरे में थीं। डॉक्टर ने चेकअप के बाद कहा कि 15 दिन की दवाई और लो, फर्क पड़ना चाहिए। यूं करते करते 2 महीने हम इस टेंशन में जीए, लेकिन आखिरकार यह टेंशन दूर हो गई। कहने को ऐसा सबके साथ होता है, लेकिन मुझे अब भी लगता है कि सही से समझ वही पाता है जो झेलता है। इस बीच दिमाग में जो लड़ाइयां चलीं थीं, उनको लिख पाना आसान नहीं। पर यह पता चल गया कि डर आपको कई बार सचाइयों से वाबस्ता करवा देता है। आप जान जाते हैं कि आपके लिए जिंदगी में ज्यादा जरूरी क्या है।<br />
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<b>एक डरावना सपना</b><br />
मनोस्थितयों के कुरुक्षेत्र में से एक डर इसलिए शेयर कर रहा हूं क्योंकि वह बहुत अजीब था। उससे यह भी लगता है कि वहम कितने खतरनाक होते हैं। बेशक पता ही हो कि यह वहम है। इसके मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के बजाय सीधे बताता हूं। एक दिन ऑफिस से घर जाते वक्त पूजा से रोज की तरह बात करने के लिए फोन किया। इधर उधर की बात के बाद पूजा ने बताया कि एक बात बतानी है, अगर आप चिंता न करो तो। वह जब भी ऐसा कहती हैं, मैं चिंता करना शुरू कर देता हूं। मुझे बेसब्री हुई। जल्दी बताओ क्या बात है। बच्चों को कुछ प्रॉब्लम तो नहीं। पूजा ने बताया कि आज सुबह सपने में एक बाबा दिखे। फकीर से दिख रहे थे। बोले मेरे साथ चलो। मैंने बोला, बाबा अभी तो बच्चे साथ हैं। तो बाबा ने बोला, कोई बात नहीं। अभी मत चल। लेकिन तेरे जन्मदिन से पहले तुझे लेकर जाना है।<br />
मैं झूठा ही हंसा। कहा अरे मैं तो चिंता नहीं कर रहा, आप चिंता मत करो। सपनों का कोई मतलब नहीं होता। फिर सपनों के बारे में सिग्मंड फ्रायड के तमाम निष्कर्षों का ज्ञान बटोरकर भी कुछ कुछ समझाना चाहा। लेकिन फोन रखने के बाद खुद जिस भंवर में फंसा वह अजीब ही था। तब जन्मदिन को यही कोई 8-9 महीने दूर थे। पर जब जब यह सपना आया, मेरी नींद उड़ी। मैंने मन ही मन पता नहीं क्या क्या सोचा, किया। जब पूजा को छाती में दर्द की वजह से मैक्स ले जाना पड़ा, तब रोज रात को उस सपने ने नींद उड़ाई। ना चाहकर भी ये खयाल नहीं निकलते थे। 8 नवंबर को नोटबंदी हुई। उसी दिन पूजा का जन्मदिन था। मैं इन दोनों से अलग इस बात के लिए खुश था कि जन्मदिन मना लिया है। अब कुछ नहीं होगा।<br />
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<b>बच्चे बीमार</b><br />
कई बार कोई सिचुएशन सुनने में साधारण लगती है, लेकिन हम दोनों की इस दौरान जो मनोस्थिति थी, उस लिहाज से हर छोटी समस्या बड़ी बन जाती थी। जैसे हृदय के नाक से खून आने वाली टेंशन दूर हुई, और हमारी शुरू। फिर हमारी खत्म होते ही बच्चों की शुरू हो गई। जुलाई के आखिरी हफ्ते में हृदय हार्दिक को वायरल ने पकड़ लिया। हार्दिक फिर भी खेल में लगा रहता था पर हृदय ढीला पड़ता जा रहा था। एक दिन वह इतना सुस्त हो गया कि मैं उसे लेकर डॉक्टर तपीशा गुप्ता के पास पहुंच गया। उन्होंने देखा कि डेंगू का टाइम चल रहा है, इसलिए इतने दिन तक बुखार न जाने को हलके में नहीं लेना चाहिए। एक बार तो हृदय को एडमिट करने के लिए ही बोल दिया। मैं यह सोच कर परेशान था कि अगर हृदय को एडमिट किया तो हार्दिक कैसे रहेगा। ढाई साल का यह शरारती बालक तो अपनी मां और भाई से एक घंटे भी कभी दूर नहीं रहा था। और बुखार तो उसे भी था। फिर उसे किसके हवाले छोड़ेंगे। फिर अपने से ही डॉक्टर को कहा कि एक दो दिन देख लेते हैं। तब डॉक्टर ने दोनों के सब तरह के टेस्ट लिख दिए गए। मैक्स ले जाकर दोनों का ब्लड और यूरिन सैंपल दिया। एक्सरे करवाया। बच्चे अपनी मम्मी के साथ नानी के घर रहे। पर दुआ काम आ गई और हृदय को एडमिट करने की नौबत नहीं आई। एक हफ्ते बाद उसे बुखार उतर गया। कुछ सुकून मिला। मगर डॉक्टर तपीशा ने कहा कि हृदय को न्यूरोलोजिस्ट को दिखाए काफी दिन हो गए है, इस बीच यह काम कर लो। डॉक्टर रेखा मित्तल से अपॉइंटमेंट लेकर मैक्स पहुंचा। चेकअप के बाद उन्होंने कहा कि बाकी सब ठीक लग रहा है, पर मुझे लगता है एक बार फिर हृदय को ऑक्यूपेशनल थैरपिस्ट को दिखा लेना चाहिए। वह मुंह से पानी काफी गिराता था और जरा सा कूदना भी नहीं सीखा था। मेरा माथा ठनक गया। यह आसान काम नहीं था कि बच्चों को लंबे वक्त तक उनकी नानी के पास रखूं और ऑक्यूपेशनल थैरपी करवाऊं। हम दोनों ने काफी सोचने के बाद तय किया कि यह दोनों प्रॉब्लम कुछ दिन में दूर हो सकती है, इसलिए वेट करते हैंं, नहीं तो अगली बार आएंगे तब दिखा लेंगे। मैं बच्चों को लेकर घर आ गया।<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMRzB3HLAmqhWMBL9cY6mjvaPLOB2u_djeAnzKBg2Eyg_qgbFfQi2rRMxoov5w7m7RJhA8JsnxR2MGg5sOCDccj1K8G5PZhTN_I_HcLF3AylUgoylqNBj4QETQEc-xMh_mql_4Qf1foy8/s1600/IMG-20160106-WA0009.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMRzB3HLAmqhWMBL9cY6mjvaPLOB2u_djeAnzKBg2Eyg_qgbFfQi2rRMxoov5w7m7RJhA8JsnxR2MGg5sOCDccj1K8G5PZhTN_I_HcLF3AylUgoylqNBj4QETQEc-xMh_mql_4Qf1foy8/s200/IMG-20160106-WA0009.jpg" width="200" height="113" /></a></div>अभी कुछ ही दिन बीते थे। दिल्ली में डेंगू का असर खत्म हो गया था। अब चिकनगुनिया ने सिर उठा लिया था। मुझे भी तब बुखार था। पर अपने बुखार की कभी मैंने परवाह की नहीं थी। तभी एक दिन हृदय को फिर फीवर हो गया। हर बार की तरह मैंने दो तीन दिन वेट करने को कहा। लगा कि वायरल है। पर बुखार दो दिन लगातार चढ़ा और पहली बार 104 तक गया। मैंने जनकपुरी में डॉक्टर विकास वर्मा को फोन किया। उन्हाेंने तीसरे दिन भी वेट करने को कहा और बोले मेफ्टाल देनी बंद कर दो। तीसरे दिन शाम तक फीवर नहीं उतरा तो मैं हार्दिक को ऊपर किराए पर रहने वालीं भाभी के पास छोड़कर डॉक्टर वर्मा के क्लिनिक पर गया। उन्होंने बुखार की ही दवाई देते रहने को कहा और बोले पांच दिन बुखार न उतरे तो ये टेस्ट कराना। लेकिन लकिली घर आते ही हृदय खेलने लगा और उसे फिर बुखार नहीं चढ़ा। लेकिन पांचवें दिन वाइफ का फोन आया कि हृदय को चिकन पॉक्स हो गया। मैने पूछा आपको क्या पता तो बोली नीचे वाली आंटी बता रही हैं क्योंकि उसके शरीर पर दाने निकल आए हैं। मैंने ऑफिस से घर तक का सफर बामुश्किल तय किया। और हृदय को डॉक्टर यादव के पास लेकर गया। बहुत अनुभवी डॉक्टर यादव ने देखते ही कहा, यार कोई माता वाता नहीं निकली, इसको चिकनगुनिया हुआ है। मैं चिकनगुनिया का नाम सुनते ही घबराया। (इस साल दिल्ली में चिकनगुनिया कितने लोगों के लिए जानलेवा साबित हुआ, सबको पता है) पर डॉक्टर ने कहा घबराने की जरूरत नहीं, उतरते वक्त दाने निकलते हैं। ठीक हो जाएगा। ठीक हुआ भी, पर तीसरे दिन फिर बुखार हो गया। अब और घबराहट। फिर डॉक्टर के पास गए तो उन्होंने कहा, टाइफाइड हो सकता है, टेस्ट करवाओ। पहले तो सोचा कि मैक्स ही ले चलूं, फिर सोचा कि टेस्ट तो करवाऊं। टेस्ट का रिजल्ट अगले ही दिन आ गया। टाइफाइड नहीं था। और फिर बुखार भी उतर गया। सब नॉर्मल बाते हैं, पर एक अकेले दो बच्चों को संभाल रहीं उनकी मम्मी से पूछिए, ये 15 दिन उसने कैसे निकाले होंगे।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHariC2DyhbJqNQUHanI_te5WNT2jPMRnektxYYLBuOi-QEEpoHyAhWaGWd84GNFsqcGB_edZ9YgoMCvXsGIgJSkDpeBWCuOKUsRoM1QVKSgFaYO2cQHMax91KOYel6xw1Sz_gL_DJbWY/s1600/IMG_20161213_144837.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiHariC2DyhbJqNQUHanI_te5WNT2jPMRnektxYYLBuOi-QEEpoHyAhWaGWd84GNFsqcGB_edZ9YgoMCvXsGIgJSkDpeBWCuOKUsRoM1QVKSgFaYO2cQHMax91KOYel6xw1Sz_gL_DJbWY/s400/IMG_20161213_144837.jpg" width="300" height="400" /></a></div>आज जब यह लिख रहा हूं, तो बता दूं कि हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी फिर शुरू हो गई है। उसके जन्म दिन के अगले कुछ दिनों में यह सब दिक्कत शुरू हुई। और बहुत से टेस्ट हुए हैं। कल गिर जाने से सिर में लगी। तीन टांके आए हैं। एक और परीक्षा शुरू हो चुकी है। पर इस बारे में अगले साल लिखूंगा।<br />
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<b>यूं बदली जिंदगी</b><br />
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@ यह साल कई ऐसी शुरुआतों का भी था, जिनको आने वाली पूरी जिंदगी की नींव कहते हैं। पूजा के लिए सबसे बड़ा चैलेंज था कि बच्चों को पूरा दिन अकेले संभालने में उनको एक मिनट भी अपने नहीं मिलता था। इसका कोई समाधान नहीं था, लेकिन मेरे दिमाग में एक ही तरीका था कि बच्चे ढाई साल के हो जाएं तो उनको प्ले स्कूल में डाला जाए। मुझसे ज्यादा पूजा को इस दिन का इंतजार था और 5 जुलाई आते आते यह दिन भी आ गया। गली में ही स्कूल है कंवल भारती। नजदीक होने के चलते उसे चुन लिया। स्कूल में दोनों का पहला दिन। मैं खूबसूरत से दो बैग लाया। बच्चे खुश थे। पर मुझे डर था कि कहीं रोएं न। मैं पूजा को बोलकर ऑफिस आया था कि बस आधे घंटे में ले आना। पर बच्चों ने पहला दिन इंजॉय किया। पूरा डेढ़ घंटा। और जब उनकी मम्मी लेने आई तो बोले, नहीं जाना घर। और भाग गए झूला झूलने। हालांकि इसके दो तीन दिन बाद हृदय ने थोड़ा रोना शुरू किया, पर कुछ कुछ दिन बाद सब ठीक होता गया। पूजा को भी दो-तीन घंटे का वक्त काम निपटाने के लिए मिलने लगा। उनकी जिंदगी में यह राहत डूबते को तिनके का सहारा जैसी थी।<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtwa9MAvIIdvxHEz7OnaDvrQawIe1qd2_LY-wVDDq0Vx7bBQydnMtpnT8PFTNbdHkuw5d2sJgvbqwUsRl5iKywqfTUa0WZlmr68yzviTg493Dn8_vWG3k4zv9G1GQWbTaX0s7gggZO1W4/s1600/IMG-20160705-WA0002.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtwa9MAvIIdvxHEz7OnaDvrQawIe1qd2_LY-wVDDq0Vx7bBQydnMtpnT8PFTNbdHkuw5d2sJgvbqwUsRl5iKywqfTUa0WZlmr68yzviTg493Dn8_vWG3k4zv9G1GQWbTaX0s7gggZO1W4/s400/IMG-20160705-WA0002.jpg" width="225" height="400" /></a></div>@ इसी साल दोनों ने कुछ शब्द सीखे। बोलना बढ़ा। हार्दिक हालांकि थोड़ा साफ और तेज बोलता रहा और हृदय कम। पर बच्चों के मुंह से कुछ भी सुनना बेहतरीन होता है। खास तौर से जब कभी वह बिना कहे आपसे कोई ऐसी वैसी बात कह दे, तो लगता है इससे खूबसूरत पल दुनिया में हो ही नहीं सकता। बाप के तौर पर मेरा तो सीना यूं फूलता कि बोलना सीख जाएंगे तो दुख तकलीफ और इच्छा अनिच्छा कह कर बता पाएंगे। एक खयाल भी अक्सर आता था कि अब इनको बोलना सीखते देख इतना सुखद लगता है, फिर कभी ऐसा भी होता है जब मां बाप को औलाद के बोल ही दुख दे रहे होते हैं। पर ऐसे खयाल अनियंत्रित होते हैं। आते भी मर्जी से हैं और जाते भी।<br />
@ हम सोचते थे कि ये थोड़ा बड़े हो जाएंगे तो समस्याएं कम होने लगेंगी। पर बच्चे शरारतें करने लगें तो समस्या बढ़ जाती है। खासकर जब दो एक उम्र के बच्चे हों। यही होने लगा। जो शरारत कुछ देर के लिए चेहरे पर मुस्कान लाती थी, वहीं दिन बीतते बीतते परेशानी पैदा कर देती। दोनों ने एक दूसरे के साथ खेलते कम, झगड़ते ज्यादा।<br />
@ हार्दिक हर वह खिलौना छीन लेता जो हृदय के हाथ में होता। और हृदय तब तक रोना बंद नहीं करता जब तक खिलौना वापस न मिल जाए।<br />
धीरे धीरे यह भी होने लगा कि हृदय हर उस खिलौने की जिद करने लगा जो हार्दिक के हाथ में होता। उलटा हम हार्दिक को कहते कि बेटा तू दे दे, तू समझदार है। हृदय बेशक बड़ा कहलाता है, पर हार्दिंक पहले समझने लगा।<br />
दोनों की कुछ शरारतें डराती थीं। पूजा वॉशरूम जाती तो हार्दिक बाहर से कुंडी लगा देता। उधर, मेन गेट के अंदर से ताला लगा होता। तो डर यह रहता कि अगर वॉशरूम का दरवाजा खोल नहीं पाया तो क्या होगा। जैसे तैसे हार्दिक को दरवाजा खोलना सिखाया।<br />
@ मेन गेट को तो ताला लगाकर रखना ही पड़ता था, नहीं तो दोनों कब गली में निकल जाएं, पता हीं न चले।<br />
@ बालकनी के दरवाजे की कुंडी तक खोलने लगे। बालकनी की ग्रिल इतनी चौड़ी थी कि पूरा बालक जरा सी चूक पर नीचे जा गिरे। तब एक और चिटकनी दरवाजे पर लगाई।<br />
@ कहीं घूमने नहीं जा सकते, पार्टी नहीं जा सकते, फोन पर बात नहीं कर सकते। फोन आते ही दोनों चिल्लाते थे कि पहले हम बात करेंगे। फ्रस्टेशन बढ़ने लगी, पूजा को सोने नहीं देते थे। यानी आपको जरा सा भी टाइम तब ही मिलेगा जब वे दोनों सो जाएंगे। तब खुद को नींद आ रही होती, इसलिए जरा जरा से काम भी कई कई दिन टले रहते।<br />
@ मैं अक्सर बच्चों के बाल्टी में डूबने की खबरें, करंट लगने की खबरें, या ऐसे दूसरे खतरों की खबरें पढ़ता। इसलिए डरा हुआ ही रहता। वॉशरूम बंद रखो। टॉयलेट बंद रखो, पावर पॉइंट्स टेप से सील कर दो, प्रेस मत लगाओ, पानी गरम करने की रॉड ऊंची रखो, पता नहीं क्या क्या। कितनी भी कोशिश कर लो, घर में हो तो भी और बाहर हो तो भी, चिंताएं दिमाग से निकल नहीं पातीं।<br />
@ फ्रस्ट्रेशन में मैं और पूजा खूब झुंझलाते। कई बार जरा जरा सी बात पर भी झगड़ जाते। पर फिर अहसास कर लेते कि ये वक्त ही ऐसा है। और इंतजार करते कि कभी तो हम नॉर्मल लाइफ में लौटेंगे।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFG8V_p7w6lmU5c4ebG95WeFiU28Sl-U8Lh-sQ37KszuxMoxvdH6C-y8Eu5SVZFBxYeUr6_DZdfa_UIHV1xB-dqqrvn6-31FLAxJadFwTcDARbrpHSKt_j6X_WiS9ePDIRFl_qn6xC6oI/s1600/IMG-20160825-WA0003.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFG8V_p7w6lmU5c4ebG95WeFiU28Sl-U8Lh-sQ37KszuxMoxvdH6C-y8Eu5SVZFBxYeUr6_DZdfa_UIHV1xB-dqqrvn6-31FLAxJadFwTcDARbrpHSKt_j6X_WiS9ePDIRFl_qn6xC6oI/s400/IMG-20160825-WA0003.jpg" width="400" height="400" /></a></div><br />
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सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-42329279085574254072015-11-09T13:10:00.001+05:302017-03-18T15:26:00.471+05:30और यूं आया दूसरा बर्थडे<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj10GZwp9udAm6tCA8FJ8WP_MZR_A-ucZCSLSdraCQNGNYXPsJoV0YeJFG-7Hj6kslwnptrW7Bl0VWmy3XHVrf_7IO8CP8GkFgJVxOO13BVB1WuqFimBvbDJDGvwlsfx0hV9B1MFV7iixY/s1600/IMG_20151026_195337.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj10GZwp9udAm6tCA8FJ8WP_MZR_A-ucZCSLSdraCQNGNYXPsJoV0YeJFG-7Hj6kslwnptrW7Bl0VWmy3XHVrf_7IO8CP8GkFgJVxOO13BVB1WuqFimBvbDJDGvwlsfx0hV9B1MFV7iixY/s200/IMG_20151026_195337.jpg" /></a><br />
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<b>बच्चों के एक साल का होने तक का अनुभव जब लिख रहा था तो एक ख्याल बार-बार मन में आ रहा था कि ये साल सबसे मुश्किल गया है, अब अगला साल इससे और आसान होगा, फिर उससे अगला साल और आसान। फिर धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर आने लग जाएगी। यह खुशफहमी इनके पहले जन्मदिन के इतने कम टाइम बाद ही चकनाचूर हो जाएगी, ऐसा तो ख्याल भी नहीं था।<i></i></b><br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJtBumjQxq3eqCakm79b7KicqSKZM5-nBT6B4_mlXDdL4s9HbMWFEWml0gnH3hkr84wWNH0k7JC9_-Z211ks5pUxZo-8rPuYGyMO_gtZwGVuSWexR8soWYLvwNRF8lxHB2jGoFh3r4Y5w/s1600/IMG-20151026-WA0005.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJtBumjQxq3eqCakm79b7KicqSKZM5-nBT6B4_mlXDdL4s9HbMWFEWml0gnH3hkr84wWNH0k7JC9_-Z211ks5pUxZo-8rPuYGyMO_gtZwGVuSWexR8soWYLvwNRF8lxHB2jGoFh3r4Y5w/s200/IMG-20151026-WA0005.jpg" /></a><br />
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वैसे यह पहले से तय था कि मम्मी एक साल तक बच्चों को साथ रहकर संभलवाएंगी। उसके बाद उन्हें भी ब्रेक लेना था क्योंकि पिछला साल जो बीता था, उसके स्ट्रेस का उन पर भी बुरा असर पड़ा था। घर का हर मेंबर तनाव से गुजरा था, गुजर रहा था। बेशक, यह फैसला तनाव कम करने की सोच के साथ लिया जा रहा था, लेकिन चाहे-अनचाहे यह फैसला तनाव को बढ़ाने वाला ही था। बिना मम्मी के एक-एक साल के दो बच्चों को अकेले संभालना उनकी मम्मी के लिए प्रैक्टिकली पॉसिबल नहीं था इसलिए तय किया कि हृदय हार्दिक कुछ वक्त के लिए अपनी नानी के पास जाएंगे। वहां संभालने के लिए दो-चार हाथ ज्यादा हैं। मम्मी-पापा पैतृक शहर लौटेंगे।<br />
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<b>बड़ा सा हो गया घर</b><br />
पहले जन्मदिन के ठीक एक हफ्ते बाद बच्चे चले गए। उसके दो दिन बाद मम्मी पापा चले गए। मैं घर में अकेला था। अकेलेपन का घोर-घनघोर अनुभव शादी से पहले वाली जिंदगी में था, इसलिए अकेलेपन से कभी डर नहीं लगा, लेकिन बच्चों के जाते ही घर अचानक बहुत बड़ा हो गया था। एक कमरे से दूसरे कमरे में जाओ तो लगता था पता नहीं कितनी दूर आ गए। खिलौने मैंने संभाल कर एक कमरे में रख दिए थे, लेकिन जब कभी उन पर नजर जाती थी तो लगता था वे मुझसे नाराज हैं, बात नहीं करना चाहते। टेडी बियर के चेहरे पर उदासी दिखती थी तो स्माइली चेहरे वाली मोटरकार की मुस्कुराहट भी बनावटी दिखती थी। मैं भी कुछ पूछता या कहता नहीं था उनसे, और अपने आप को किसी और काम में बिजी कर लेता था। बाहर वाले कमरे में नीचे बिछे गद्दे की चादर जो कभी शांत नहीं रही, उस पर अब कभी सिलवट नहीं पड़ रही थी। मैं जानता था कि अकेले घर में वक्त बिताना तनाव की वजह से 'आत्मघाती' हो सकता है, इसलिए तय किया कि बस सोने के लिए ही घर आया करूंगा। और फिर यही होने लगा।<br />
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<b>अस्पताल</b><br />
हफ्ते भर बाद ही छोटी दीदी की तबीयत बिगड़ी। 42-43 की उम्र में उन्हें प्रेग्नेंसी कॉम्पलिकेशन हो गई जिसके चलते अचानक अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। मेरे पास जब फोन आया तो ऑफिस छोड़कर मैं गंगाराम अस्पताल भागा। कुछ देर बाद दीदी को वहां लाया गया। डॉक्टर ने बताया कि ऑपरेशन करना पड़ेगा। अस्पतालों से ऐसा रिश्ता बन चुका था कि जब ऐसे मामलों में अस्पताल में होता था तो कम से कम घबराहट तो नहीं होती थी। आदत बन गई थी। ऑपरेशन के बाद दीदी को रूम में शिफ्ट कर दिया और रात को मैं घर आ गया। इसके बाद डॉक्टर ने दीदी को तीन महीने का फुल बेडरेस्ट बोल दिया। मम्मी हेल्प के लिए वहां पहुंच गई। पापा बड़े भाई के पास रुक गए।<br />
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<b>अस्पताल फिर</b><br />
महीना भर बीता। संडे का दिन घर पर बीतना होता था इसलिए पूरे हफ्ते मैं संडे को बिजी करने का सामान जुटाता था। संडे को कुछ देर से उठकर टीवी देखते हुए नाश्ता, झाड़ू, पोछा, बर्तन, कपड़े, शेविंग, नहाना धोना और खाने में शाम के 5 तो बजा ही देता था। 7 दिसंबर का संडे भी कुछ कुछ ऐसा ही था। शाम को नहाकर मैं टीवी के आगे बैठने का प्लान कर रहा था कि अचानक पत्नी का फोन आया। उठाते ही जैसी घबराई हुई आवाज सुनी, मैं सहम गया। पत्नी बस इतना बोल पा रही थी, फिर आ गया, फिर आ गया। मैं बार-बार कह रहा था कि शांत हो जाओ, आराम से बताओ क्या हुआ। फिर उन्होंने बताया कि हृदय को फिर फिट यानी दौरा पड़ गया है। घबराहट में वह उसके नाक में मिडासिप का स्प्रे भी ठीक से नहीं कर पाई। एक दो मिनट लंबा फिट बहुत डरावना होता है, लेकिन उसी वक्त अगर धैर्य से काम न करें, तो समस्या बढ़ जाती है। कायदे से, बच्चे को करवट दिलाकर उसके नाक में दो-दो स्प्रे मिडासिप के डालने होते हैं। और घबराहट में पत्नी ऐसा नहीं कर पाई। फिट अपने आप रुका तो मैंने फोन पर ही बुखार चेक करने को कहा। बुखार नहीं था। यह और ज्यादा चिंता की बात थी। इससे पहले दो फिट बुखार के साथ आए थे और ऐसे फिट को फैब्राइल सीजर कहते हैं। ये पांच साल में अपने आप ठीक हो जाते हैं, लेकिन इस बार फिट बिना बुखार आया। अफैब्राइल सीजर। ये खतरनाक संकेत होते हैं। मैंने डॉक्टर नवीन को फोन किया और बताया तो उन्होंने फिर वही ओहहो कहा। उनका कहना था कि वह पटना में हैं, लेकिन बच्चे को अस्पताल में दाखिल करना पड़ेगा। अब ईईजी और एमआरआई तो करना ही पड़ेगा। मैंने डॉक्टर तपीशा को फोन किया। उन्होंने कहा अस्पताल पहुंचो, मैं फोन कर देती हूं। मैंने पत्नी से कहा कि तुम अस्पताल पहुंचो, मैं कुछ ही देर में पहुंच जाऊंगा। पालम से मैक्स पटपड़गंज पहुंचने में कम से कम डेढ़ घंटा लगता है। मैं सर्द रात में तुरंत निकला। अस्पताल पहुंचा तो हृदय शांत था। रात 12 बजे उसे एडमिट किया गया। अगले दिन न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर रेखा मित्तल ने एमआरआई करवाया और फिर पता चला कि हृदय के ब्रेन में कुछ पैच दिखे हैं। यही फिट्स की वजह हो सकते हैं।<br />
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<b>वेल्प्रिन</b><br />
डॉक्टर रेखा ने कहा, बहुत सोच विचार के बाद तय किया है कि हृदय को वेलप्रिन शुरू की जाएगी। वेलप्रिन ब्रेन की दवाई है। इसे शुरू में दो साल के लिए दिया जाता है। दिन में दो बार। टाइम में कोई आगा पीछा नहीं। जिस वक्त देनी है, तो देनी है। एक भी डोज मिस नहीं होनी चाहिए। ऐसा हुआ, तो उसी दिन फिट आने की आशंका बन जाती है। फिर वेट के हिसाब से डोज होती है। 1.8 एमएल मतलब 1.8 एमएल। पॉइंट भर भी आगे पीछे नहीं। यह सुनकर बड़ा धक्का लगा। दो साल के लिए बच्चा और हम बंध गए। 9 बजे सुबह और 9 बजे शाम का वक्त तय हो गया। मैं बच्चों से दूर था लेकिन 9 बजे का टाइम जिंदगी में नश्तर सा घुस गया था। मैंने और मेरी पत्नी ने तय किया कि सुबह और शाम 9 बजे चाहे कहीं भी हों, बात करेंगे। कन्फर्म करेंगे कि दवाई दी कि नहीं। एक साल होने को है, कोई 9 ऐसा नहीं बजा जब मैंने कन्फर्म ना किया हो या पत्नी का मैसेज न आया हो। 10 मिनट का ग्रेस पीरियड है बस। दवाई देने का मैसेज नहीं आता तो मैं तुरंत कॉल करता हूं। 9 बजे किसी का फोन भी आ जाए तो बीच में ही काट देता हूं लेकिन यह नहीं भूलता कि दवाई कन्फर्म करनी है। पत्नी बच्चों में बिजी होने के कारण कभी मैसेज करना भूली नहीं कि हमारी खटपट शुरू।<br />
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वह काला दिन</b> <br />
दिसंबर का वह दिन मैं कभी नहीं भूलंगा। 9 दिसंबर को अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद भी हृदय की तबीयत ठीक नहीं हुई थी। उसे फिर बुखार ने पकड़ लिया जिससे यह डर गहराने लगाा कि कहीं फिर फिट न पड़ जाए। दो दिन से बुखार उतरा नहीं इसलिए डॉक्टर तपीशा ने कहा कि मेरे पास ले आओ। दवाई दी मगर तबीयत और बिगड़ती चली गई। चेकअप के दौरान ही हृदय उल्टियां कर रहा था। पत्नी के कपड़े उसकी उल्टी से भरे हुए थे। डॉक्टर ने उसे तुरंत अपने सीनियर डॉक्टर एस कुकरेजा के पास ले जाने को कहा। वहां डॉक्टर का इंतजार कर रही भीड़ के बीच सब बोल रहे थे कि कहीं कोई चूहा मरा हुआ है शायद, बहुत बदबू आ रही है। हम सहमे हुए से खड़े थे। बदबू वाइफ के कपड़ों से आ रही थी। हमारा पूरा ध्यान डॉक्टर के आने और हृदय को चेक कराने पर था। तमाम चेकअप के बाद डॉक्टर ने एक टेस्ट करवाने को कहा। इसमें पता चला कि कोई हेवी इन्फेक्शन है। फिर से हृदय को अस्पताल में एडमिट करवाना पड़ा। यानी डिसचार्ज के चार दिन बाद फिर। 13 दिसंबर को। आईसीयू में इलाज चल रहा था। हाई ग्रेड फीवर की वजह से डॉक्टर यह देखना चाहते थे कि कहीं बुखार दिमाग में तो नहीं चढ़ा। इसके लिए रीढ़ की हड्डी से सुई के जरिए पानी का सैंपल लिया जाता है। यह बहुत सेंसटिव टेस्ट होता है इसलिए बच्चा हिले न, इसके लिए उसे लोकल एनस्थीसिया दिया जाता है। यहीं गड़बड़ हो गई। एनस्थीसिया रिएक्ट कर गया और हृदय का शरीर नीला पड़ गया। दो मिनट तक उसके शरीर में सांस नहीं था। डॉक्टरों की टीम भी घबरा गई थी। जैसे-तैसे उसे ऑक्सीजन देकर, दवाइयों के इंजेक्शन देकर कवर किया गया। परमात्मा का शुक्र था कि सांस फिर आ गई और करीब 15 मिनट में हृदय नॉर्मल दिखने लगा। इसके बाद डॉक्टर ने बाहर आकर मुझे और पत्नी काे बताया कि अभी यह सब हो गया था। मैं सुन रहा था ध्यान से। बस यही पूछ पाया कि अब वह कैसा है? जवाब मिला कि ठीक है। तो और कुछ पूछने के लिए दिमाग इजाजत नहीं दे रहा था। डॉक्टर के जाने के बाद पत्नी की आंखें गीली और गला भरभराया हुआ देखा। उसे हौसला दिया। कहा अब सब ठीक है। अकेला हौसला दिए जा रहा था। आसपास कोई नहीं था जो मुझे हौसला दे सकता। इसलिए पत्नी को चुप करवाकर जरा सी ओट लेकर मैं रो लिया। मैं नहीं, एक बाप रो रहा था जो अपने बच्चों को तकलीफ से निकालने के लिए लड़ाई पर लड़ाई लड़ रहा था। फिर रहा नहीं गया। बड़े भाई को फोन किया और बोला कि एक बार आजा। वह पहुंचा तब तक खुद को संभाल चुका था। उसे कहा कि अब सब ठीक है।<br />
बाहर सब ठीक था। अंदर कुछ दरक रहा था।<br />
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<b>यह टेस्ट किसका था</b><br />
इतना सब हो गया। बहुत डर लग रहा था। लेकिन वाइफ का हौसला बनाकर रखना जरूरी था। असल में तो वही संभाल रही थी दोनों बच्चों को। हार्दिक घर पर था। हृदय अस्पताल में। बीच-बीच में मैं हृदय के पास लेटता और वह घर जाकर हार्दिक को संभाल आतीं। उस दिन के अगले दिन जब वह घर गई हुई थीं तो डॉक्टर ने मुझसे कहा कि वह टेस्ट हो नहीं पाया लेकिन उसे बहुत जरूरी है उसे करना। मैं शॉक्ड था। जिस टेस्ट के चक्कर में यह सब हुआ, वह दुबारा करने की सोची भी कैसी जा सकती है? मैंने डॉक्टर तपीशा से बात की तो उन्होंने कहा कि एनस्थीसिया तो बिलकुल नहीं दिया जा सकता। फिर टेस्ट कैसे होगा? डॉक्टरों की एक टीम इस पक्ष में नहीं थी कि बिना एनस्थीसिया पंक्चर किया जाए और दूसरी टीम एनस्थीसिया रिपीट नहीं करवाना चाहती थी क्योंकि पहले यह रिएक्ट कर चुका था। दोनों ही तरफ यह तय था कि टेस्ट तो किया जाना है। यह बहुत बड़ी उलझन थी। काफी बहस मुसाहिब के बाद तय हुआ कि डॉक्टर रामलिंगम यह टेस्ट बिना एनस्थीसिया के करेंगे। मैं तो इस पर भी हैरान कि सुई लगाते ही बच्चा तो हिलेगा ही, और रीढ़ की हड्डी में सुई लगाना तो वैसे भी खतरनाक था। डॉक्टर राम और डॉक्टर तपीशा ने मुझे हौसला देते हुए बताया कि वह पहले भी ऐसे टेस्ट कर चुके हैं इसलिए चिंता न करूं। जब टेस्ट का टाइम आया तो मैं हृदय के बेड के पास ही था। डॉक्टर रामलिंगम ने कहा, डॉक्टर राम हैज कम। डोंट वरी। और बड़ी सी स्माइल की। दो नर्स को कमरे में जाने को कहा और कुछ सैंपल कलेक्टर लिए। मैं मन ही मन परमात्मा को सिमर रहा था। पांच ही मिनट बाद डॉक्टर राम बाहर आए और बोले हो गया। सब ठीक हो गया। अब मुस्कुराने की बारी मेरी थी।<br />
बाद में मुझे पता चला कि यह टेस्ट पहले बिना एनस्थीसिया के ही होता था। डॉक्टर राम सफदरजंग में ऐसे कई टेस्ट करते रहे हैं। नए डॉक्टर यह खतरा उठाने को तैयार नहीं थे। पर डॉक्टर राम और डॉक्टर तपीशा कॉन्फिडेंट थे। मैंने थैंक्स किया और हृदय के पास चला गया। कुछ देर बार डॉक्टर तपीशा पहुंचीं और बोलीं, मैंने कहा था ना सब ठीक होगा।<br />
खैर, बाद में कुछ टेस्ट से यह पता चल गया था कि हृदय को न्यूमोनिया है। सात दिन का एंटीबायोटिक का कोर्स हुआ और दो तीन दिन बाद उसके शरीर की तपिश कम होने लग गई। मैं हृदय को अस्पताल से उसकी नानी के घर ले गया। वहां हार्दिक इंतजार कर रहा था।<br />
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<b>एक छोटा वाकया</b><br />
वैसे यह वाकया छोटा सा है पर अस्पताल में आने जाने के बीच जो चल रहा था, उस लिहाज से इसका जिक्र बनता है। हृदय को अस्पताल से डिस्चार्ज करवाना था, उस दिन मुझे रुपयों की जरूरत थी। 19 दिसंबर 2014 को मैं ऑफिस आया था। वहां से करीब 8 हजार रुपये का कैश लेकर मैं बस से अस्पताल जाने के लिए चल दिया। पहले इतनी बार पर्स खो चुका था कि अब उसे पेंट की जेब में न रखकर, बैग में ही रखता था। पर तब दिमाग ऐसा चल रहा था कि पता ही नहीं चलता था कि क्या कर रहा हूं। लेने कुछ जाता था, और जाकर भूल जाता था कि क्या लेने आया। कभी बस से गलत स्टॉप पर उतर जाता था तो कभी स्टॉप मिस कर देता था। तो उस दिन पर्स को बैग में रखकर मैंने चेन बंद की या नहीं, याद नहीं लेकिन आइटीओ वाले स्टॉप से बस में चढ़कर मैं सचिवालय के स्टॉप को क्रॉस कर ही रहा था कि ध्यान बैग की खुली चेन पर गया। पर्स गायब था। जेबकतरा बस में ही था पर मैं कैसे समझता कि कौन है। लक्ष्मीनगर बस रुकी और वह भी उतर गया और मैं भी। पर्स में सारे ऑरिजनल आइडी कार्ड, एटीएम वगैरह थे। 8000 से ज्यादा कैश भी। कुछ सूझा नहीं। पुलिस स्टेशन पहुंचा और एफआईआर करवा दी। वक्त खराब हो रहा था क्योंकि हृदय को डिस्चार्ज करवाने का प्रोसेस भी शुरू करवाना था। जेब में पैसे नहीं थे। तब छोटे भाई को फोन किया और कार्ड ब्लॉक करवाया। उसने अपने दोस्त के हाथ गुड़गांव से रुपये भेजे। इस बीच मेरे पास एक फोन आया कि आपका पर्स यमुना बैंक मेट्रो स्टेशन पर मिला है। मैं वहां भागा। मेट्रो के एक स्टाफ ने मुझे पर्स दिया। उसमें कैश को छोड़कर बाकी सब कुछ सलामत था। यह भी राहत की ही बात थी। मैं वापस अस्पताल पहुंचा। वाइफ को यह कहकर बताया कि चिंता ना करना। रुपये आ जाएंगे। रुपये तो आ गए। पर यह खयाल दिमाग से जा नहीं रहा था कि परीक्षा ज्यादा ही सख्ती से ली जा रही है मेरी।<br />
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<b>दुबारा अस्पताल जाते रहना था</b><br />
दरअसल इसके बाद हृदय को कोई बड़ी दिक्कत तो नहीं हुई, लेकिन अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान एक टेस्ट बार-बार कोशिश के बाद भी नहीं हो सका था। ईईजी। इससे डॉक्टर को ब्रेन की हलचल नोट करनी थी। इसमें बच्चे को नींद की दवा देनी होती है और सोते हुए उसके सिर पर एक पेस्ट के जरिए कई सारे तार लगाए जाते हैं। इसके बाद कंप्यूटर पर उसे दर्ज किया जाता है। बच्चा जरा भी हिलना नहीं चाहिए। हृदय का यह टेस्ट करवाने के लिए पहले तो बेड पर ही मशीन लाई गई थी। लेकिन वह दवा की दो डोज देने के बाद भी सो नहीं रहा था। जैसे ही उसके सिर पर पेस्ट लगाया जाता, वह हिलाकर उसे हटा देता। जितनी डोज उसे दी थी, उससे ज्यादा दी नहीं जा सकती थी। इसलिए बिना टेस्ट किए वह चला गया। अस्पताल से जिस दिन छुट्टी दी गई] उस दिन फिर एक कोशिश की गई। तब भी यही हुआ। हैवी डोज के बावजूद वह ठीक से नहीं सोया। करीब 4 घंटे तक कोशिश के बाद फिर डॉक्टर ने कहा कि अभी टेस्ट नहीं हो पाएगा। इसलिए हम 9 जनवरी को घर से उसे ईईजी के लिए ले गए। उस दिन उसे पूरा दिन सोने नहीं दिया था ताकि दवा का असर जल्दी हो। खैर, जैसे-तैसे उस दिन यह टेस्ट हो गया और इसमें कोई बड़ी दिक्कत सामने भी नहीं आई। लेकिन न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर रेखा मित्तल ने एक चेकअप के दौरान हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी करवाने की सलाह दी। वजह यह थी कि वह चल नहीं पा रहा था। खड़ा होने में भी उसे तय समय से ज्यादा का टाइम लगा। हमें हालांकि वह नॉर्मल लग रहा था। फिर भी हम उसे ऑक्यूपेशनल थैरपिस्ट के पास ले गए। वहां रिव्यू के बाद उन्होंने कहा कि हृदय को बिलकुल इस थैरपी की जरूरत है। यह बहुत महंगी थैरपी है और इसके लिए रोज बच्चे को अस्पताल ले जाना था। यह आसान हो सकता था उन मांओं के लिए जिनके पास एक ही बच्चा हो। जिसका एक साल का एक और बच्चा हो वह कैसे रोज इस नियम को फॉलो करेगी, यह सोचकर मैं परेशान हो गया। लेकिन पत्नी ने कहा कि मैं कर लूंगी आप चिंता न करो। खैर, अब ऑक्यूपेशनल थैरपी का सिलसिला शुरू हुआ। तपती दुपहरी में उसे रोज अस्पताल एक घंटे के लिए ले जाया गया। हृदय के 18 महीने के होते-होते रिस्पॉन्स नजर आने लगा और वह पांव उठाने लगा। लेकिन थैरपी फिर भी कम नहीं हुई। दो महीने बाद बस उसके दिन कम होते गए। पहले सप्ताह में 6 दिन। फिर 5 दिन। फिर 4। ऐसे करते करते 4 महीने के बाद थैरपी बंद हुई। हृदय तब तक ठीक से चलने भी लगा था और उसका मुंह से पानी गिराने का सिलसिला भी कम हो गया था। वह कुछ कुछ शब्द बोलने भी लगा था। हालांकि हार्दिक उससे दो तीन महीने आगे निकल गया था। यानी जो काम हार्दिक सीख रहा था, हृदय उस तक दो तीन महीने बाद पहुंच रहा था। लेकिन डॉक्टर ने कहा कि यह सब चलता है।<br />
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<b>बच्चों के मां बाप का हालचाल</b><br />
बच्चों के साथ ही दिक्कत चल रही हो, ऐसा नहीं था। मैं और वाइफ दोनों भी लगातार चले आ रहे स्ट्रेस से टूटने लगे थे। वाइफ को बेहोशी आ जाती थी। डॉक्टर से बात करता था तो कहती थीं कि ब्लड प्रेशर बहुत कम रहता है जिसकी वजह से ऐसा होता होगा। जो दवाइयां दी जातीं वह ले लेतीं। यह सब देख देखकर मैं स्ट्रेस में आने लगा। लेकिन मेरी जिद हमेशा हार न मानने की रही। इस जिद का असर शरीर पर तो आ ही रहा था। हाइपरटेंशन की दवा 33 की उम्र में शुरू होना डॉक्टर और मेरे लिए बड़ी बात थी। बैड कॉलेस्ट्रॉल बढ़ा हुआ था। नमक और तली हुई चीजों पर रोक लग गई, वहीं दूसरी तरफ घर में कोई खाना बनाकर देने वाला नहीं था। बाहर का खाता था तो तबीयत सुधर नहीं पाती थी। कमर और हाथ में ऐसा दर्द रहने लगा था कि कोई पेन किलर काम नहीं करती थी। फिर एक दिन तय किया कि मुझे कुछ हो गया तो फिर इस लड़ाई में हार तय है इसलिए पहले खुद को सही करना पड़ेगा। प्रॉपर तरीके से दवाई लेनी शुरू की। खाने पर लगाम लगाई। जिम जॉइन किया। दो महीने में कुछ असर दिखना शुरू हो गया। इसके बाद मैं अपने शरीर पर कंट्रोल करता चला गया। उधर, वाइफ की तबीयत में भी सुधार दिखने लगा। जैसे ही हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी खत्म हुई मैं, बच्चों को अपने पास लाने की प्लानिंग करने लगा। कभी एक सप्ताह तो कभी पंद्रह दिन। कभी बुआ की हेल्प ली तो कभी किसी की।<br />
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मुसीबतें बस इतनी भर नहीं थी। और भी बहुत सी लड़ाइयां थीं जो गले आन पड़ी थीं। इन हालात में उनका सामना करना उलझन बढ़ाने वाला था। लेकिन जब बड़े टारगेट सामने हाें तो ऐसी लड़ाइयों में हार मानने का सवाल नहीं होता। इसलिए सब लड़ाइयां लड़नी जरूरी थीं। सब लड़ीं। रास्ता सचाई का हो तो लड़ना मुश्किल जरूर होता है, पर तब हार रोकने की जिम्मेदारी ऊपरवाले की होती है। वह आपको हारने नहीं देता।<br />
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ये आखिरी दो महीने</b><br />
सितंबर में बुआ ने हां भर ली कि दो महीने मैं तेरे पास लगा लूंगी। मैं बच्चों और वाइफ को ले आया। बुआ के साथ दो महीने बीते। बच्चे बहुत महीनों बाद घर आए। रहे। खेले। उनकी शरारतों को इतना करीब से देखा। उन्हें बड़े होते ठीक से देख नहीं पा रहा था इसलिए अब उनकी हर हरकत को मैं नोट कर रहा था। वाइफ से जब भी बात होती, वह एक ही शिकायत करती, पूरा दिन पापा पापा की रट लगाकर रखते हैं। मेरे लिए यह मजे की बात होती। ऑफिस से घर पहुंचने का टाइम होते ही दोनों गेट के पास लेटकर पापा पापा की आवाज लगाते। कई बार आधा आधा घंटा यही करते रहते। मैं जब देर से घर आता तो वाइफ मुझे यह सब बताती। घर पहुंचते ही वे मुझसे लिपट जाते। उनमें होड़ होती कि कौन मुझे पानी लाकर देगा और कौन मुझे चेंज करने के लिए कपड़े पकड़ाएगा। जब तक यह नहीं कर लेते, मेरे पास से सरकते नहीं। और उस वक्त उन्हें यह सब करने से रोकने की हिम्मत घर में किसी की नहीं थी। वरना रो-रोकर सिर पर घर उठाना तय था। इसके बाद हार्दिक इशारे से मुझे उस कमरे में चलने को बोलता जिसमें नीचे गद्दे लगाए हुए थे। वहां मैं घोड़ा बनता और वह दोनों मुझ पर सवारी करते। हार्दिक हृदय को धक्का देकर गिराता तो हृदय मेरे गाल पर हाथ लगाकर उसकी शिकायत इशारे से करता। वह कुछ शांत स्वभाव का है। हार्दिक इन दो महीनों में पक्का बदमाश बन गया। उसे कुछ करने से रोकने का मतलब था कि वह काम तो अब वह करेगा ही। चलते कूलर में हाथ देने की कोशिश की तो मैंने सूतली लाकर पूरी विंडो पर मानो एंब्रॉयडरी कर दी। ताकि उनका हाथ कूलर तक न पहुंचे। फिर तार को खींच कर काट दिया तो दिन में कूलर चलाना ही बंद कर दिया। वह खिड़की की जाली पकड़कर 6-7 फुट ऊंचा चढ़ने लगा था। डर लगता था कि गिर न जाए पर मना करने पर और ज्यादा करता था। हृदय से खिलौने छीन लेना या उसे गिरा देना तो उसका मिनटों का गेम था। हालांकि कान पकड़कर सॉरी भी झट से बोल देता था और गिरेबान पकड़कर पुच्च से गाल पर पारी भी टांक देता था। हृदय को प्यार करो, यह कहते ही वह उसके गाल पर पारी करता और उसे बाहों में भर लेता। यह देख हम हंसते। बुआ को सुनाई नहीं देता। तो दोनों इशारों से उनको समझाते कि मंदिर जाएंगे, सैंडल पहना दो। दोनों हाथ हिलाकर बोलते टन टन। मुंह में उंगली लगाकर बताते कि प्रशाद खाएंगे। डर उन्हें किसी चीज का नहीं था। न बिल्ली का न सांप का। न छिपकली का न सीटी वाले बाबा का। एक दिन हार्दिक ने खुद को कमरे में बंद कर लिया। अंदर अंधेरा था। जब फटकर रोया तो मेरे माथे से पसीना टपकने लगा। मैंने कुछ कोशिश की लेकिन दरवाजा नहीं खुला तो वाइफ ने समझाकर उससे सटकनी खोलने के लिए बोला। उसने आखिर सटकनी खोल दी। इसके बाद मैंने नीचे की सारी कुंडियां सील कर दीं। उनकी शरारतों की लिस्ट इतनी लंबी बन गई कि यहां पूरी तरह लिखना आसान नहीं इसलिए सब फोटो खींच कर रख लिए। 26 अक्टूबर आ गया। मैंने घर में गुब्बारे लगाए। इस बार बच्चों ने मदद की। बुआ के दो महीने पूरे हो गए थे। मम्मी एक हफ्ते के लिए आई थीं। जन्म दिन के तीन दिन बाद फिर से बच्चे नानी के पास चले गए। मम्मी घर चली गईं। और मैं अपनी दिनचर्या में। इस उधेड़बुन में कि बच्चों को फिर घर लाना है इसलिए कैसे सारा इंतजाम करना होगा।<br />
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एक प्रैक्टिकल बात<i></i></b><br />
बच्चे फूल होते हैं। बस प्यार करने के लिए। लेकिन इंसानी स्वभाव बस प्यार से नहीं बना। उसमें गुस्सा, झुंझलाहट, चिड़चिड़ाहट, हताशा और थकावट भी शामिल है। बच्चों को एक साथ पालने की जद्दोजहद में ये कई बार हावी हुए। कई बार हम बच्चों पर झुंझलाए। एक बार वाइफ ने किसी बात पर हार्दिक को चपत लगा दी। शायद चपत अंदाजे से कुछ ज्यादा लग गई। मैं ऑफिस से घर लौट रहा था। वाइफ का फोन आया और वह बहुत रोई। उसने कहा कि आज बहुत बड़ी गलती हो गई। मैंने समझाया कि कोई बात नहीं, आगे से ध्यान रखना। अपराधबोध घातक होता है। उसे कम करना जरूरी होता है। मैंने वही किया। कई बार मेरे साथ भी ऐसा हुआ। मुझे बच्चों पर गुस्सा आया। कई बार हमारी नींद पूरी न होने के कारण चिड़चिड़ाहट हुई तो कई बार दूसरे हालात के चलते। हम एक दूसरे पर भी झुंझलाए। बहुत सोचा कि इस दौर में ऐसा क्यों। तो एक ही बात समझ में आई कि हममें सब अच्छा अच्छा ही नहीं होता। इंसानी कमियां हममें भी हैं। इनको भी समझना पड़ेगा। इनसे भी निपटना पड़ेगा। यह लिखने का मकसद बस इतना भर है कि हम जब यह समझने लगते हैं कि हम सब कुछ परफेक्ट तरीके से करेंगे तो दबाव बढ़ जाता है। गलतियां होती हैं, इनसे दबाव में नहीं आना चाहिए।<br />
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<b>दूसरा साल</b><br />
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पहले साल के हालात से दूसरे साल के हालात बहुत अलग थे। दूसरा साल भी संघर्ष से भरा हुआ था लेकिन यह अलग तरह का संघर्ष था। रिश्तों के नए आयाम दिख रहे थे, हालात की बेरहम रफ्तार दिख रही थी, बेबसी के आगे हिम्मत के रगड़ते घुटने दिख रहे थे, लेकिन उम्मीदें और जिम्मेदारियां यहां भी लड़ते रहने और हार न मारने के लिए रोज कान में आवाज दे रही थीं। सीखने का सिलसिला चल रहा था। यह और बात है कि कितना सीख सके कितना नहीं। फिर भी जो न भूलने या पल्लू बांधने वाली बातें थीं, उसे लिख लेना बेहतर है।<br />
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<b>@</b> बेबसी बहुत तकलीफ देती है। हालात में बहुत दम होता है। ये हिम्मती से हिम्मती इंसान को भी बेबस कर सकते हैं। फिर भी, बेबसी चाहे कितनी भी हो, खड़े रहना चाहिए। इस उम्मीद के साथ कि बेबसी का दौर बीतेगा।<br />
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<b>@ </b>रिश्ते स्वार्थों से भी बंधे हैं और हालात से भी। ये हिम्मत देने और लड़ने में बहुत मददगार होते हैं। लेकिन कोई भी लड़ाई किसी दूसरे के बूते नहीं जीती जा सकती। दम खुद में होना जरूरी है। निर्भरता खुद पर ही रखनी चाहिए। साथ कब किसका छूट जाता है, पहले से कभी नहीं कहा जा सकता। इसलिए खुद को यह यकीन दिलाते रहना चाहिए कि जिंदगी का सफर खुद का है, किसी दूसरे के पैरों के सहारे मंजिल नहीं मिलेगी। अपने पांव मजबूत रखिए। बस। लाठी डंडा सहारे भर के लिए हो सकते हैं। रफ्तार खुद बनाकर रखनी पड़ती है।<br />
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<b>@</b> हालात झुकाते हैं। झुकने में बराई नहीं। लेकिन अपना जमीर जिंदा रखना जरूरी है। कई बार हालात आपके जज्बे की भी परीक्षा लेते हैं। वे देखना चाहते हैं कि कितना प्रेशर आप झेल सकते हो। झुकना सीख लेना चाहिए, लेकिन यह भी सीखना जरूरी है कि कहां नहीं झुकना है। सही गलत की पहचान अपना जमीर ही करता है। झुकने से पहले उससे पूछ लेना चाहिए। बाकी, हालात झुकना सिखा देते हैं। अहम होता है तो टूटता भी है। चाहे किसी का भी क्यों न हो।<br />
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<b>@</b> कुछ हालात ऐसे होते हैं जिनके सामने समझौता ही सही विकल्प होता है। खुद से लड़ते रहने की जिद अक्सर खुद को ही नुकसान पहुंचाती है। सब कुछ अपनी पसंद का नहीं हाे सकता। और अपनी पसंद से ही जीने की जिद तो कभी साधुओं संन्यासियों को ही खुश नहीं रहने देती, हम तो फिर भी गृहस्थ हैं। कोशिश करो, पूरे दम से करो, फिर जो फल मिले, कबूल लो। अपनी पसंद के फल के लिए लड़ते रहने वाली लड़ाइयां अक्सर खुद को खत्म करने की जिद कहलाती हैं।<br />
<br />
<b>@ </b>हिम्मत बड़ी चीज है। बड़ी से बड़ी लड़ाई इसी के बूते लड़ी और जीती जा सकती है। धैर्य हिम्मत बढ़ाने का टॉनिक है। हालात जब एकदम खिलाफ हों तो चुपचाप उसे देखते रहना चाहिए। हिम्मत बटोर कर खुद को खड़ा रखना चाहिए। अक्सर तूफान कुछ वक्त के होते हैं। जो खुद को थामे रखते हैं, वही बचते हैं। बस, इस कुछ देर के लिए खुद को थामे रखने के पीछे ही जीत खड़ी होती है। यही सबसे मुश्किल भी है और यही सबसे जरूरी भी।<br />
<br />
जिंदगी सफर है, इसे पूरा करना हमारा धर्म भी है और जिम्मेदारी भी। हालात, लड़ाई, साथ, जुदाई, खुशी, नाखुशी सब कुछ अपने हाथ में नहीं। इसलिए हालात हालात पर निर्भर करता है कि आपका कदम क्या हो। उसी के हिसाब से तय करना चाहिए।<br />
<br />
बाकी तो जो सीखा, वह दिल में और जो झेला वह जेहन में रहेगा ही। शुक्रिया उस परमात्मा का जो बुरे वक्त में सिर पर हाथ धरता रहा। शुक्रिया मेरी जीवनसंगनी का, जिसने मुझसे बड़ी लड़ाई लड़ी और यहां तक पहुंचाया। शुक्रिया उन सबका जिन्होंने इस वक्त में साथ दिया। उनका भी जिन्होंने साथ न देकर कुछ सिखाया। शुक्रिया हालात का जिन्होंने रहम भी किया। और शुक्रिया अपने आप का, जो हारा नहीं। माफी उन सबसे जिनको हालात के चलते उनका हक नहीं दे सका। और उनसे, जिनके प्रति जाने अनजाने गलतियां कीं।<br />
<br />
प्यार और आशीष मेरे बच्चों के लिए। दुआ परमात्मा से कि उनको खुश जिंदगी दे। प्रार्थना भी, कि जब तीसरे साल के लिए लिखूं तो खुशियां ज्यादा लिखूं।<br />
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सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-89092018487017006472015-02-27T15:28:00.000+05:302015-11-16T12:25:07.181+05:30गुंजाइश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsHiJLOpTjDZPrPk4KTHBLUoXWNB2Xakh5qDF3Qcq2_wy4xaT3QWOAISHF7hDnSxpbLBDDfSxuGNZxIp0caEMRdfbywHiE-7ZqxbeBphigaMURuNxVgCIIf5wj1tul8RTq62qAICmSRQA/s1600/vivalavida.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsHiJLOpTjDZPrPk4KTHBLUoXWNB2Xakh5qDF3Qcq2_wy4xaT3QWOAISHF7hDnSxpbLBDDfSxuGNZxIp0caEMRdfbywHiE-7ZqxbeBphigaMURuNxVgCIIf5wj1tul8RTq62qAICmSRQA/s320/vivalavida.jpg" /></a><br />
<br />
<b></b>कभी साल-साल भर कुछ कहा नहीं जाता तो कभी हफ्ते भर में तीसरी बार ब्लॉग पर आना हो गया। इस बार तो अचानक ही हुआ। कल रात अचानक 3 बजे आंख खुल गई। बुखार था शायद। गले और बदन में दर्द भी था। अचानक ही समझ लो। लगा शायद बिना स्वेटर सुबह निकलने लगा हूं इसलिए या फिर एक नंबर पर पंखा चलाने लगा हूं इसलिए ये गड़बड़ हुई होगी। सोचा दुबारा सो लूं, आराम मिलेगा, पर आंख थी कि खुली रहकर जीरो पावर के बल्ब की हरी रोशनी निहार रही थी। घंटे भर ये कशमकाश चली और अचानक लगा कि जेहन में कुछ कुलबुला रहा है। हरी रोशनी ऐसा होता नहीं अक्सर। बहुत पहले जब लिखना शुरू किया था तो किसी ने बताया था कि मैं तो कागज पेंसिल साथ लेकर सोता हूं, क्या पता कब कोई खूबसूरत लाइन आए और सुबह तक खो जाए। मैं लिखने का उतना लालची तो नहीं, लेकिन रात को लगा कि आजकल तो सबके सिरहाने कागज पेंसिल होती है। मोबाइल चार्जर से लिपटा हुआ वहीं पड़ा था। उसे डिस्टर्ब किया। उठाया और नोटपैड पर लिखता चला गया। फिर ठीक वैसा लगा जैसे उलटी करने के बाद लगता है। उपमा बड़ी घृणा पैदा कर सकती है लेकिन सच तो यही है। मेरा क्या सबका यही सच है। खैर, ऐसा बहुत सालों बाद हुआ जब रात को कुछ लिखा हो। खैर, मेरे लिए अब इसे संजोना जरूरी हो गया है तो ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं। <br />
और हां, पढ़ लेना बस, ज्यादा सोचना मत। <br />
<br />
<b><br />
जेहन का ज़हर भी बातों में उतर आता है<br />
मेरा ज़िक्र जो आता है, उसका चेहरा उतर जाता है<br />
<br />
बरसों की गरमजोशी, झटके में पिघलती है<br />
सचाइयों का खंजर जब दिल में उतर जाता है<br />
<br />
रिश्तों में तकरीरों की गुंजाइश नहीं बची<br />
वो जब भी घर आता है, चुपचाप ही आता है<br />
<br />
बरसों जिसे पाला था वो लायक नहीं रहा<br />
बेटा भी बाप को अब मुश्किल से सुहाता है<br />
<br />
गुजरो जो सामने से दुआ सलाम तो रहे<br />
ये मोड़ दोस्ती में कइयों को रुलाता है<br />
<br />
ये कैसी बंदगी है ये कैसी बुतपरस्ती<br />
खुदा का घर भी आखिर मुश्किल में याद आता है<br />
<br />
सोहन समझ रहा था, ये सब हैं साथ मेरे<br />
पर नाराज़गी में अक्सर मंज़र बदल जाता है</b><br />
<br />
सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-13222461140785772712015-02-25T13:35:00.000+05:302015-02-25T13:35:57.266+05:30बच्चे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">29 जनवरी को कुछ ट़वीट किए थे। उनमें से तीन निकालकर ब्लॉग पर डालने का मन किया। पिछली पोस्ट की तरह इनकी भी कोई भूमिका नहीं लिख रहा। <br />
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</div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK-4wV7w-4DYQxKDgBdUAl-pTKanEfzGv5VtxKl5mgXETdhOZ-gU8aQJoMfGAn6Y2U_RR1fbVxlIFSVxHmqPej-W_iXVLirlsc3nsVun5sRqWHpeBdAigS_2GEMzy_Kkmko5BqsbsZ5nI/s1600/Teddy4.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK-4wV7w-4DYQxKDgBdUAl-pTKanEfzGv5VtxKl5mgXETdhOZ-gU8aQJoMfGAn6Y2U_RR1fbVxlIFSVxHmqPej-W_iXVLirlsc3nsVun5sRqWHpeBdAigS_2GEMzy_Kkmko5BqsbsZ5nI/s320/Teddy4.jpg" /></a><br />
<br />
<br />
<b>बच्चों के बिना सूना है मेरे कमरे का गलीचा<br />
सोफे पे खिलौने भी गुमसुम से पड़े हैं<br />
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होती नहीं टेडी की आपस में बातचीत<br />
नाराजगी में इनके भी तेवर से चढ़े हैं<br />
<br />
मुमकिन है बाप कुछ खिंचे खिंचे से रहें<br />
दिल में तो इनके भी अरमान बड़े हैं</b>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-60740731835341709742015-02-21T13:03:00.000+05:302015-02-21T13:03:09.846+05:30तकदीर का कैमरा और फ्री स्पेस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgf4s91QqE0PUbIaAFYxwbLKyu8RUJblm_v2IuBYaII9heOpXlWfqCGV40m6K2IeIuSz8hEOeMZQF_CAuUacwmF1HCBBqs1_HdC22F-n7_59bayTh5mNJOPf9lij3VYHqvfQ0OazaRQwdc/s1600/04022011055.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgf4s91QqE0PUbIaAFYxwbLKyu8RUJblm_v2IuBYaII9heOpXlWfqCGV40m6K2IeIuSz8hEOeMZQF_CAuUacwmF1HCBBqs1_HdC22F-n7_59bayTh5mNJOPf9lij3VYHqvfQ0OazaRQwdc/s320/04022011055.jpg" /></a><br />
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294 जीबी यादों को टटोलते हुए कभी कभी आप उलझ जाते हैं, अपने जेहन में बरसों से पड़ीं हिडन फाइलों में। कानों में लगी लीड इंस्ट्रूमेंटल बजा रही होती है लेकिन आप सुन रहे होते हैं वे धुनें जो अब मायने नहीं रखतीं, इससे ज्यादा कि वे आपके ही जीवन के संगीत का हिस्सा हैं। आप तस्वीर दर तस्वीर देख रहे होते हैं, लेकिन असल में आपकी नजरें खरोंच रही होती हैं उस तस्वीर को जो शायद ठीक से बन नहीं पाई कभी। आप देख तो रहे होते हैं कम्प्यूटर स्क्रीन पर नजरें गड़ाकर, लेकिन असल में आप वह सब देखना नहीं चाह रहे होते। आप उस बहाने से देख रहे होते हैं वे तस्वीरें जो आपने खींचनी चाहीं थीं कभी मगर खींच नहीं सके, क्योंकि तकदीर के कैमरे पर क्लिक करने वाली उंगली आपके पास होती ही नहीं। कुछ देर देखकर फिर आप अचानक देखते हैं राइट क्लिक से हार्ड डिस्क का फ्री स्पेस। नीले और गुलाबी गोले का गुलाबी स्पेस देखकर आप झूठ मूठ में खुश होते हैं। आप सोचते हैं कुछ और तस्वीरें आ सकती हैं अभी आपकी हार्ड डिस्क में। और फिर आप उन तस्वीरों की कल्पना करने लगते हैं जिन्हें खींचा ही नहीं गया है अभी तकदीर के कैमरे से।सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-85909696545131958442014-10-27T10:27:00.000+05:302017-03-18T15:42:12.313+05:30हृदय, हार्दिक के जन्मदिन पर यह गिफ्ट किसे?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b>कल हृदय और हार्दिक का पहला जन्मदिन था। पिता के रूप में मेरा भी। और मां के रूप में मेरी पत्नी का। तो इन चार जनों के जन्मदिनों पर कुछ सहेजने की इच्छा को रोक नहीं सका। हालांकि सोचा तो यह भी है कि हर साल इस तरह से जीये हुए जीवन को समेटने की कोशिश करूंगा, लेकिन इसका आखिरी फैसला इस एक साल के बीच का वक्त करेगा, इसलिए तब की तब ही देखेंगे। फिलहाल, जब तक मैं यह तय करूं कि दोनों के जन्मदिन पर यह गिफ्ट किसे दे रहा हूं, आप इससे सांझे हो सकते हैं। </b><br />
<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiR__IndeAAYVgAu7JKiT6BLsMQnZp2eVShBmB162AYRWiylCtbpTaZz5IWQquiyGFKk1wgIySVttHYHeobtOWGfLu8SXBm8DOrg0X2qfY7_pLv7vLqf0x4SHsfsu41lSXSUrucn_p-ngQ/s1600/hridayhardik.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiR__IndeAAYVgAu7JKiT6BLsMQnZp2eVShBmB162AYRWiylCtbpTaZz5IWQquiyGFKk1wgIySVttHYHeobtOWGfLu8SXBm8DOrg0X2qfY7_pLv7vLqf0x4SHsfsu41lSXSUrucn_p-ngQ/s320/hridayhardik.jpg" /></a><br />
<br />
<br />
पिता बने एक साल हो गया है। सब पिताओं का पहला साल खास होता होगा। यही सोच कर ख्याल आ रहा था कि अपने इस एक साल की खासियतों को सोचूं और लिख कर रख लूं ताकि भूलने ना पाऊं। हां, कभी-कभी खास लम्हों के भी भूल जाने का डर रहता है। वक्त बड़ा इरेजर है।<br />
<br />
सोचने बैठा तो लगा किसी ऐसे कमरे में घुस गया हूं जहां सब बिखरा पड़ा है। कमरा भरा पड़ा है, पर उसमें क्या काम की चीज है और क्या कूड़ा कबाड़ा, पहली नजर में तय नहीं हो पा रहा। पहले एक एक कर छांटना पड़ेगा। फिर ही कुछ तय हो पाएगा कि क्या रखना है, और क्या फेंक देना है।<br />
<br />
छांटता हूं तो पहले पहल अपने जुड़वां बच्चे ही दिखते हैं। हार्दिक और हृदय। उनकी मां दिखती है। अपनी मां दिखती है। परिवार के वे लोग दिखते हैं जिनका चाहे जैसा भी रहा, सहयोग रहा। डॉक्टर दिखते हैं। अस्पताल दिखता है। दवाइयां दिखती हैं। बच्चों का धीरे धीरे, बहुत धीरे धीरे बड़ा हाेना दिखता है। <br />
<br />
फिर उनकी अठखेलियां दिखती हैं, मुस्कुराहटें दिखती हैं, गिर गिर कर उठना दिखता है। मां से पहले पा पा बोलना दिखता है (मेरी इस बात पर मेर सिवा कोई और यकीन नहीं करता, हो सकता है ये मेरा वहम है)। उनका रोना दिखता है, हंसना दिखता है। <br />
<br />
फिर एक संघर्ष दिखता है। उन्हें अब तक पालने का। मेरा अकेले का नहीं। मेरी पत्नी का, मेरी मां का। याद आती हैं शुरुआत की वो खत्म न होने वाली रातें जब मेरी पत्नी लगातार तीन साढ़े तीन महीने या तो दो घंटे सोई या तीन घंटे। कभी कभी न दिन में सोयी और न रात में। मेरी मां ने भी अपने हिस्से के जगराते हमें दे दिए। दो बच्चों को भरी सर्दी में संभालना, सहेजना और वह भी तब जब एक तो अक्सर रहता ही अस्पताल में था। रिश्तों के संघर्षों ने भी तभी एंट्री मारी थी। लड़ तो सब अपने अपने हिस्से के रहे थे, पर मुझे हमेशा यह वहम रहता था कि मैं अकेला लड़ रहा हूं। जब जब कोई टूटता दिखा, मैं मजबूत होकर उसकी जगह लड़ता दिखा। वरना टूटा हुआ सा उनकी लड़ाई देखता रहा। हार्दिक को साढ़े चार महीने तक बड़ी बड़ी बीमारियों की आशंकाओं के बीच से गुजरते, फिर निकलते देखा। मैक्स अस्पताल जाना रुटीन का हिस्सा होते देखा। वो वक्त देखा जब लगता था मैं मैक्स में ही काम करता हूं शायद। दवाइयों के नाम और टेस्ट की रिपोर्ट लाना ले जाना, घर आकर दवाइयाें के टाइम, देने के तरीके समझाना, रोज की डेवलेपमेंट नोट करना, फिर डॉक्टर को बताना, रोज नई बीमारियों के नाम सुनना, उनको नेट पर सर्च कर यूं पढ़ना मानो पेपर की तैयारी कर रहा हूं, सब दिखने लगता है। उन सारी बड़ी बड़ी बीमारियों के मुशकिल मुशकिल नाम याद हैं जिनके टेस्ट हुए। हर टेस्ट के बाद प्रार्थना हुई कि यह बीमारी ना निकले बस। डॉक्टर नवीन तो लगता है इस एक साल के पूरे हिस्से में कभी दूर हुए ही नहीं। डॉक्टर वोहरा, डॉक्टर कुसुम सभ्रवाल, डॉक्टर मधु, डॉक्टर तनेजा, पता नहीं कितने डॉक्टरों से इस बीच जान पहचान बनी। बात हुई। सब दिखता है। <br />
<i>(इन चार पांच महीनों को कुछ दिन पहले एक आर्टिकल की शक्ल में हेल्दी जिंदगी नाम की वेबसाइट की लॉन्चिंग के वक्त लिखा था। इस साइट में नई सुबह नाम से एक सेक्शन है जिसका सबसे पहला आर्टिकल 'खुशी की उंगली पकड़ आया था स्ट्रगल' 9 जुलाई 2014 को लगा था। <a href="http://healthyzindagi.com/struggle-life-hope-happiness/"><b>उसका लिंक यह है : </b></a><br />
<br />
हार्दिक के ठीक होने के बाद दोनों पांच महीने के थे जब हम घर बदलकर पालम आ गए थे। ये सात महीने भी घिच्च पिच्च ही नजर आते हैं। कभी टेंशन से भरे दिन नजर आते हैं तो कभी बच्चों की किलकारियां। बड़ी मजेदार हरकतें भी याद आती हैं बच्चों की। पूरा दिन शांत रहने वाला हृदय रात को हार्दिक के सोते ही चिल्लाने लगता था। जोर जोर से आवाजें देता था। पता नहीं किसे। पर तब वह पूरी मस्ती के मूड में होता था। हम उसे कहते थे चुप हो जा, तो वह और जोर से चिल्लाता था। उसके बाद ही साेता था। पहले वह मेरी मां के पास सोता और हार्दिक अपनी मां के पास। फिर जब वह बीमार हुआ, उसके बाद से अदला बदली हो गई।<br />
हार्दिक हृदय से ज्यादा एक्टिव है। दो मिनट छोटा जरूर है पर दांत पहले उसके आए। बड़े से खिलौने छीनना पहले उसने सीखा। भोला हृदय बस रोकर रह जाता और ये छोटा तीर खिलौने छीन लेता, उसे पकड़ कर गिरा देता, उसके बाल नौंच लेता या उसे नीचे पटककर उसके ऊपर बैठ जाता। इसलिए दोनों को एक दूसरे से दूर रखना ही पहली कोशिश रही। हार्दिक ने हृदय से पहले खड़ा होना सीखा। कदम उठाना सीखा। गद्दे से उतरना सीखा। घुटनों के बल चलना सीखा। पर हृदय आराम से सही, बाद में वहां तक पहुंचा।<br />
<br />
यहीं याद आता है बच्चों का अपनी नानी के घर जाना और पीछे से पापा का बीमार हो जाना। उनका ऑपरेशन। उसके बाद से शुरू हुए ऐसे उलटे दिन जो दिखते हैं तो खीझ होती है, दुख होता है, गुस्सा आता है, परेशानी होती है, पर, ये दिन भी सहेजने हैं क्योंकि सीखा इनसे भी है। अगस्त, सितंबर और अक्टूबर। बाप रे। <br />
<br />
क्या दिखता है? पहले पापा का ऑपरेशन। छह दिन मेरा अस्पताल में उनके साथ रहना। तभी मेरी कमर में मसल पेन और बुखार का शुरू होना और छह दिन दवाई खाकर अस्पताल में टिके रहना। पापा का एक हफ्ते बाद घर आना और दो चार दिन बाद हृदय को बुखार के साथ फिट आना। ऑफिस में मीटिंग में था जब कॉल आई थी कि हृदय बेहोश हो गया है, आप घर पहुंचो। मैंने कहा था नहीं, तुम उसे लेकर जो भी अस्पताल दिखे, वहीं पहुंचो, मैं सीधे अस्पताल पहुंचता हूं। एक अस्पताल से प्राइमरी चेकअप के बाद जब उसे होश आ गया तो मैं उसे मैक्स ले आया था। (पापा भी अपने चेकअप के लिए साथ अस्पताल चल रहे थे)। डॉक्टर नवीन ने कहा था, एक साल का होने से पहले फिट आए तो कुछ टेस्ट करने जरूरी होते हैं, इसलिए एक दिन के लिए भर्ती करना पड़ेगा। एक के बजाय वह दो दिन भर्ती रहा आैर टेस्ट सारे नॉर्मल आए। यह कहकर घर भेज दिया गया कि खतरा नहीं है। कुछ बच्चों में ऐसा हो जाता है। क्या सावधानियां बरतनी हैं, ऐसा दुबारा हो तो क्या करना है, यह समझकर हम वापस घर के लिए चल पड़े थे। हार्दिक मम्मी के पास था और जब हम मेट्रो में थे तभी फोन आया कि हार्दिक को तेज बुखार हो गया है। घर पहुंचना भारी हो गया था। उसे मम्मी संभाल रही थी जिसे न दवाइयों का पता था, न कुछ और। उसे बस बच्चे को परेशान देखकर या तो रोना आता था, या भगवान से दुआ करना। जिनके मकान में किराए पर थे, उन भाभी जी से फोन पर बात कर हार्दिक का बुखार चेक करवाया और दवाई दिलवाई। घर पहुंचे तो देखा हार्दिक का गला चॉक था और जब वह रोता था तो आवाज भी नहीं निकलती थी। डॉक्टर नवीन को वट्सएप पर मैसेज किया तो उन्होंने दवाई बता दी। दो दिन बाद सुधार होना शुरू हुआ ही था कि हृदय की तबीयत फिर बिगड़नी शुरू हो गई। हार्दिक पांच दिन बाद ठीक हुआ, लेकिन उसी रात 4 बजे हृदय को फिर बुखार हुआ। बुखार चेक किया तो 100 पहुंचा था। थर्मामीटर नीचे भी नहीं रखा कि उसे फिर फिट आ गया।<br />
सब घबरा गए कि इतनी रात को क्या करें। मैंने मिडासिप के दो स्प्रे उसकी नाक में किए। 15 सेकेंड बाद हृदय नॉर्मल हो गया। रो रहा था बुखार से। तुरंत डॉक्टर नवीन को फोन किया। उन्होंने कहा, कोई बात नहीं, बुखार उतारो, और शाम को मिलो। शाम को लेकर डॉक्टर के पास पहुंचे और बताया कि फिट आने के बाद से उसने रोना बंद नहीं किया। <br />
<br />
फिर याद आता है, डॉक्टर नवीन का वो ओहो। उनका कहना था कि पहली बार फिट आया था तो ईईजी जैसे बड़े टेस्ट नहीं किए थे। एक ही हफ्ते में दूसरा एपिसोड नहीं होना चाहिए था। तुरंत भर्ती करवाओ। हमने ऑटो किया और सीधे पहुंचे मैक्स। हृदय फिर भर्ती। इतने दिनों के बीच मेरे बदन, खासकर कमर में दर्द और बुखार एक दिन के लिए भी नहीं गया था। मैंने दवाई ली थी, लेकिन रेस्ट का एक घंटा भी नसीब नहीं हुआ था इसलिए तबीयत काबू से बाहर होती जा रही थी। खैर, दो दिन हृदय भर्ती रहा। ईईजी और तमाम दूसरे बड़े टेस्ट बता रहे थे कि बड़ा खतरा नहीं है। सिंपल फाइबरल सीजर है। घर पहुंचे। अगले दिन पापा को फॉलोअप के लिए अस्पताल लाना था। उन्हें यूरोलोजिस्ट के अलावा जनरल फिजीशियन और endocrinologist को दिखाना था। यूरोलोजिस्ट ने ओके बोल दिया था। बाकियों को दिखाया। फिर जो कुछ हुआ उसे मैं कबाड़ा कहूंगा और यहां उसका जिक्र किए बगैर उठाकर फेंक दूंगा बाहर। फेंक दूंगा, पर रहेगा भीतर ही।<br />
<br />
बच्चों के ठीक होने के बाद पहले मैंने अपना चेकअप कराया। दो महीने तक दवा खाई और जब ठीक नहीं हुआ तो सारे मेडिकल टेस्ट करवाए। कुछ कुछ निकला। चार पांच जगह गड़बड़ थी। हाई बीपी की दवा 33 की उम्र में खाने लगा था। डॉक्टर ने कहा था, रेस्ट किए बिना कुछ नहीं हो सकता। और मैंने डॉक्टर से कहा था सॉरी डॉक्टर, रेस्ट अभी नहीं हो सकता।<br />
<br />
तभी वाइफ को सीरियस वीकनेस की प्रॉब्लम होने लगी थी। चक्कर आ जाना रोज की बात होने लगी। पास के डॉक्टर को दिखाया, तो बात नहीं बनी। डॉक्टर कुसुम को दिखाया तो कहा, 15 दिन दवाई खाओ, ठीक नहीं हुईं तो एमआरआई करवाना पड़ेगा। खैर, 15 दिन बाद एमआरआई नहीं हुआ और दवाई एक महीने आगे तक की लिख दी गई।<br />
<br />
इसके बाद कई ऐसी समस्याएं मुंह बाएं खड़ी थीं जो जीवन के सबसे बड़े घटनाक्रम होते हैं। उनको कचरा सिर्फ इसलिए कहूंगा क्योंकि उन्हें भूलना या फेंकना बस में नहीं, और साथ रखने की हिम्मत अभी जुटानी है।<br />
<br />
खैर, एक दोस्त ने कहा था ऐसी चीजें लिखते वक्त ज्यादा इमोशनल होने से बचना चाहिए। बैलेंस टूट जाता है। जो नहीं लिखना चाहिए वह भी लिख जाते हो। सो बहुत सा सामान कचरा बताकर फेंक देता हूं और बहुत सा कचरा बिना बताए सिमेट देता हूं। और यहां लिखता हूं वो सबक जो हृदय और हार्दिक के पहले बर्थ डे पर एक साल के दौरान सीखने को मिले।<br />
<br />
1<br />
जीवन में कभी भी कुछ भी हो सकता है। बुरे से बुरा भी और अच्छे से अच्छा भी। आप बहुत से मामलों में कुछ नहीं कर सकते। इसलिए बुरे से बुरे को सहना सीखना चाहिए और अच्छे से अच्छे को हजम करना।<br />
<br />
2<br />
संघर्ष कर्म है। कर्म समझकर ही करना चाहिए। पीछे नहीं हटना चाहिए। फल की ज्यादा नहीं सोचनी चाहिए। बुरे फल का अंदेशा हो तो भी अच्छे के लिए कर्म करना बंद नहीं करना चाहिए।<br />
<br />
3<br />
दुख और सुख पूरे जीवन में आते जाते रहेंगे। दोनों ही हालात में स्थिर रहना सीखना चाहिए। कभी कभी हार मानने का मन करता है। हार मान भी लेते हैं। पर पूरी कोशिश फिर से उठने की करनी चाहिए। हालात कितने भी बुरे क्यों न हों, एक दिन जरूर चले जाते हैं।<br />
<br />
4<br />
जब पूरा जमाना आपको अपने खिलाफ लगे, तब भी अपने पर भरोसा रखो। अपने पर यकीन नहीं है तो कोई लड़ाई जीतना तो दूर, लड़ी ही नहीं जा सकती। खुद को ऐसे हालात में कमजोर महसूस करो तो देखो कि कहां से मजबूती मिलेगी। जहां से भी मिले, लो। और लड़ो। जीवन कुरुक्षेत्र है। बिना लड़े कोई नहीं जी सकता।<br />
<br />
5<br />
साथ कभी भी किसी का भी छूट सकता है। कोई परमानेंट साथी नहीं होता। सब रिश्ते दुनियावी हैं। रिश्ता छूटे, टूटे, बड़ी बात नहीं। बस खुद को मत टूटने दो। रिश्ते फिर भी जुड़ सकते हैं। आप टूट गए तो गए काम से।<br />
<br />
6<br />
भगवान पर भरोसा सबसे बड़ी ताकत है। जब आप अपनी लड़ाई उसे समर्पित कर देते हो या उसे अपनी लड़ाई में शामिल कर लेते हो तो समझो आपकी ताकत बढ़ गई। आप आधी लड़ाई तो तभी जीत जाओगे। आधी जीतने में यह आस्था या भरोसा साइकलॉजिकल और स्प्रिचुअल पार्ट प्ले करेगा। जिस दिन मैंने हार्दिक की बीमारी के बाद इसका परिणाम ऊपरवाले के हवाले किया था, मैं उस मामले में कभी निराश नहीं हुआ।<br />
<br />
7<br />
पूर्वाग्रहों पर जीवन जीना आग पर चलने जैसा है। पहले से कहा या बताया गया सब कुछ सही हो, ये जरूरी नहीं। जिंदगी के अनुभव सबसे सही पढ़ाई करवाते हैं। इससे पहले मैं पता नहीं कितने मामलों में खुद की सोच को एकदम पत्थर की लकीर जैसा मानता था, जो सब अब तक मिट गईं। पता नहीं कितने मामलों में मेरा घमंड धराशायी हो गया। जहां जहां मैं खुद को फन्नेखां समझता था, आधी से ज्यादा जगह मेरी हेंकड़ी निकल गई। और यह भी तय है कि अब भी जो कुछ जानता समझता हूं, सिर्फ उसी के भरोसे काम नहीं चलने वाला। अनुभवों से सीखने का कोर्स जारी रखना पड़ेगा। उम्रभर।<br />
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हैपी बर्थ डे हृदय और हार्दिक। <br />
तुम्हें आजाद जीवन जीने में मदद कर सकूं, इसकी पूरी कोशिश करूंगा। सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-76156448978739477372014-03-21T15:05:00.000+05:302014-03-22T09:41:41.032+05:30तमन्ना तुम कहां हो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRz9L5IofULLNT3aXPO3DQx1yZsilHvrm9o8JJ-04ol7gT3dBMmYinglp0o4YNucYQdxAI9NblXkK3G1Pmv3_yoL_ESKC7M3JIaQLqKxwdtaBMzxheLQowiAQQSuBOdsS5VPdm_nnZuCM/s1600/20140321_145319.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRz9L5IofULLNT3aXPO3DQx1yZsilHvrm9o8JJ-04ol7gT3dBMmYinglp0o4YNucYQdxAI9NblXkK3G1Pmv3_yoL_ESKC7M3JIaQLqKxwdtaBMzxheLQowiAQQSuBOdsS5VPdm_nnZuCM/s320/20140321_145319.jpg" /></a><br />
हमारे प्रफेशन में कहा जाता है कि खबर यहां वहां हर कहीं बिखरी पड़ी होती हैं, सूंघना आना चाहिए। यह सुनते और देखते बहुत वक्त हो गया। कई रिपोर्टरों को देखा भी ऐसा करते। लेकिन सतह पर साफ पानी सी तैरतीं घटनाओं के भीतर कितनी व्याकुल तस्वीरें होती हैं, ये कम ही लोग देख पाते हैं। कुछ वक्त पहले निधीश जी की किताब आई, तमन्ना तुम अब कहां हो। किताब तब आई जब जिंदगी में ज्वारभाटों का दौर चल रहा था इसलिए पढ़ने का मौका नहीं मिला। बस व्याकुलता बनी रही कि निधीश जी की किताब आई है तो पढ़नी जरूर है। फेसबुक पर समीक्षाएं पढ़ पढ़ कर यह व्याकुलता बहुत व्यग्र हो चुकी थी। कुछ दिन पहले पता चला चंद्रभूषण जी के पास यह किताब है तो उनसे मांग ली। निधीश जी की कविताएं पहले से पढ़ता रहा हूं इसलिए मन में डर था कि जब किताब पढूंगा तो ठीक वैसी घबराहट और बेचैनी से सामना होगा जैसी अमृता प्रीतम का नॉवल कोरे कागज पढ़ते वक्त हुई थी। खैर, अब किताब का कुछ हिस्सा पढ़ लिया है। मेरा डर सही था इसलिए बीच बीच में पढ़ना बंद कर देता हूं। छटपटाहट होती है। कुछ सचाइयों का इलाज एसकेपिज्म ही होता है। <br />
किताब में नए तरह का लेखन है। एक एक लाइन में पूरी पूरी कहानी है। पढ़ते हुए लगता है जैसे निधीश जी कह रहे हों, शब्द कम खर्च करके भी बात पूरी कही जा सकती है। वह अलग अलग अखबारों और वेब साइट्स के एडिटर रहे हैं। मेरे ब्लॉग में पहले भी कई जगह मैंने उनका जिक्र किया है। उनके साथ काम किया है, यह मैं अक्सर इतरा कर बताता हूं। लग रहा है कि यह बुक पढ़ने के बाद मेरी इतराहट और बढ़ेगी। इसकी कुछ झलकियां ब्लॉग पर साझा करके मैँ इसे उपकृत करना चाहता हूं। यह कहते हुए कि यह बुक जरूर पढ़ना। पढ़ते वक्त जरूर कुछ न कुछ, किसे न किसे, मिस करोगे। बुक नहीं पढ़ी तो बहुत कुछ मिस कर दोगे।<br />
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एक दो लाइन की कहानियां</b><br />
<i>1 मुझे दस साल लगे अपने हिंसक पति को छोड़ने में। अब वह कसमें खा रहा है कि वह बदल गया है और मुझे वापस चाहता है। आख़िर अब न कहने में इतनी दिक्कत क्यों हो रही है।</i><br />
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2 जब मेरे बच्चे मुसीबत लगने लगते हैं, तो मैं बांझ औरतों के ब्लॉग्स पढ़ती हूं और ख़ुद को फिर भाग्यशाली मानने लगती हूं।<br />
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<i>3 मुझे कैंसर है जिसमें 4 फीसदी लोग ही 5 साल से ज्यादा बचते हैं। मैं इतना अकेला हूं कि शॉवर में खड़ा होकर रोज़ रोता हूं।</i><br />
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<b>रेडियो पर गाना</b><br />
देर रात पार्टी से लौटते वक्त उसकी कार के रेडियो में वह गाना बजने लगा। बाहर बारिश हो रही थी। उसने गाड़ी सड़क के किनारे लगा ली। और गाना ख़त्म होने के थोड़ी देर बाद तक स्टार्ट नहीं की। वह रोना चाहता था। पर फिर उसे लगा कि वह नशे में है। उसने रेडियो बंद कर दिया। खिड़की खोल दी। बारिश का पानी भीतर आने लगा। वह ज़ोरों से अपने बेसुरे गले से उस गाने का फटा बांस करने लगा।<br />
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<b><br />
न नज़रें चुराईं</b><br />
<i>वह दोपहर की शिफ्ट में अखबार में बैठा काम कर रहा था। यकायक उसे लगा उसकी कुर्सी को किसी ने धक्का दिया है। पर कोई नहीं था। मुड़कर देखा तो किसी ने कहा अर्थक्वेक। उनका दफ़्तर पहली मंज़िल पर था। सभी बाहर भागे। वह अंदर की तरफ। जहां वह बैठती थी। फिर वे दोनों बाहर निकले। बिना हाथ में हाथ लिए। पर बिना नज़रें चुराए। सिर्फ़ एक झेंप के साथ कि कहीं कोई देख लेता तो लोग क्या कहते। जान बचाने की सभी को फिक्र थी। किसी ने नोटिस नहीं किया। उसके बाद वह उस पर थोड़ा ज़्यादा मरने लगी। और उसके लिए वह थोड़ा और कीमती हो गई।</i>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-50059987552049300652014-01-02T12:17:00.000+05:302014-01-02T12:17:59.837+05:30कौन स्कॉबी?स्कॉबी कौन है, यह मैं बताना नहीं चाहता। बहुत पर्सनल सा सवाल है। लेकिन यह सच है कि कभी कभी पर्सनल चीजों की नुमाइशें हम लगा लिया करते हैं। मैं खुली नुमाइश नहीं लगा रहा, लेकिन किसी उदास भाव से मुक्ति का कभी कभी कोई और जरिया बचता भी नहीं। स्कॉबी करीब 10 साल से मेरे बेहद व्यक्तिगत और अकेले वक्त का साथी है। बेहद अजीब बात यह है कि वह कभी मुझसे मुस्कुराकर नहीं मिलता। न ही मुस्कुराने देता है। इसलिए मैं उसके साथ हर वक्त कम्फर्टेबल महसूस नहीं करता। पर जैसा कि मैंने कहा, एक खास वक्त जब कोई और मेरे साथ नहीं होता, स्कॉबी मुझे जॉइन कर लेता है। कभी कभी तो वह सालों बाद मिलता है। ऐसे में कई बार याद भी नहीं रहता। पर यही सबसे बड़ी दिक्कत है। स्कॉबी के न होने पर उसको भूल जाना ही सबसे बड़ी विडंबना है। इसी से वह नौबत आती है, जब स्कॉबी को आकर याद दिलाना पड़ता है कि वह भी है। इस विडंबना पर ही यह कविता लिखी गई है। ब्लॉग पर डाल रहा हूं ताकि याद रहे कि स्कॉबी को भूलना नहीं है।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-W4vhgDr3KYiCbH56_oXwxcNwbnKOaFsPx0Ds99aLOI29VxKcT0z1CtHvgdmqw8VVBsf8AgMri25-4X0qLrKRPQI03rJyxOtqPviYTAm2Nz55Zh6r6JGUfq_ihqsNEHwCPK2Qy1uczkU/s1600/GustonPainterInBed1973_kuspit12-4-20.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-W4vhgDr3KYiCbH56_oXwxcNwbnKOaFsPx0Ds99aLOI29VxKcT0z1CtHvgdmqw8VVBsf8AgMri25-4X0qLrKRPQI03rJyxOtqPviYTAm2Nz55Zh6r6JGUfq_ihqsNEHwCPK2Qy1uczkU/s400/GustonPainterInBed1973_kuspit12-4-20.jpg" /></a><br />
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<b>स्कॉबी को जानते हो?<br />
कौन स्कॉबी<br />
अच्छा अच्छा, हां जानता हूं<br />
नहीं, तुम झूठ बोल रहे हो<br />
नहीं जानते<br />
जानते होते तो तुम्हें पता होता कि दया कितनी क्रूर होती है<br />
और यह भी पता होता कि प्यार कभी सुरक्षित नहीं होता<br />
अकेला रह जाना तुम्हें अजीब नहीं लगता,<br />
तुम्हें यह भी पता होता कि मदद करना मुसीबतों को न्यौता देना होता है<br />
और यह भी कि जिंदगी भर समझौते करने के बाद भी खुशी की गारंटी नहीं मिलती<br />
पाप से बचने की कोशिश कभी कभी जिंदगी का सबसे बड़ा पाप करवा देती है<br />
तुम स्कॉबी को नहीं जानते<br />
इसलिए तुम स्कॉबी को समझ भी नहीं सकते<br />
तुम्हें याद है ना स्कॉबी मर चुका है<br />
जैसे स्कॉबी की बात करते हुए <br />
मर जाता है <br />
तुम्हारे भीतर कुछ।</b><br />
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फोटो : गूगल से साभार<br />
सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-51378651128561823682013-12-16T13:49:00.000+05:302013-12-16T13:51:42.886+05:30बात मत टालो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjK1RNbVnW5reI5kANCB-6lQT5sDjVchJDwprLYXGhoDRrcYK9T5fAvpGzhob7l3E5GJ_c-lG6EXYoep4jCmdDRn_FY28hm9t0LRJJX009tC07YVbE55fbXKQ7JU7sUCjf_pkaYyhgyNkA/s1600/untitled.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjK1RNbVnW5reI5kANCB-6lQT5sDjVchJDwprLYXGhoDRrcYK9T5fAvpGzhob7l3E5GJ_c-lG6EXYoep4jCmdDRn_FY28hm9t0LRJJX009tC07YVbE55fbXKQ7JU7sUCjf_pkaYyhgyNkA/s400/untitled.jpg" /></a></div><br />
गड्डमड्ड है। सही है कि गलत, पता नहीं, मगर है तो सही। एक ही पल में शीतल और उसी पल में सिहरन पैदा करने वाला। मुस्कुराहट को नौंचती उदासी को क्या कहना चाहोगे?<br />
<br />
मुस्कुराहट देखनी है तो देख लो, दिख जाएगी। मगर कुछ और मत पूछना। इस मुस्कुराहट की कोई किस्म नहीं होती। होती भी होगी तो अभी पता नहीं। पहली बार कोई मिले तो उसे पहचानने में वक्त तो लगता ही है। हां, बस इतना पता चला है कि है ये मुस्कुराहट ही। <br />
<br />
नहीं, वो उदासी वुदासी कुछ नहीं, ऐसे ही गलती से लिखा गया। लिखा गया तो क्या जरूरी है कि मिटाया जाए। मिटाना कभी कभी अपने हाथ में होता भी नहीं। और कभी होता है तो भी जरूरी तो नहीं मिटाने का भी मूड हो। मिटनी होगी तो अपने आप मिट जाएगी।<br />
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देखो कुछ चीजें समझना आसान नहीं होता और कुछ को समझाना। कुछ चाहकर भी समझ नहीं आतीं और और कुछ चाहकर भी समझना नहीं चाहते। इसी लिए तो कहते हैं गड्डमड्ड। ये ऐसा शब्द है जिसे अपने अपने तरीके से समझा जा सकता है। ये व्याकरण से बाहर है। सबका अपना अपना है, और किसी का अपना नहीं।<br />
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चलो कुछ और बात करो। उन फूलों की बात करो जो घर के बगीचे में अभी नए खिले हैं। नागफनी के उन कांटों की नहीं, जो थे तो उसी बाग में मगर पहले कभी नजर नहीं आए। फूल को देखोगे तो बगीचा आंखों को सुहाएगा। नागफनी कभी सुहाती है क्या! <br />
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सुहाए न सुहाए, होती तो है ना।<br />
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तुमने वो नई प्रेम कहानियां पढ़ीं जो अभी अभी बाजार में नई आई हैं? 'तमन्ना तुम अब कहां हो'। नहीं पढ़ीं! पढ़ने का मन नहीं, कहकर बात मत टालो। कभी कभी पढ़कर मन बदल जाता है। हां हां, ठीक है, प्रेम कहानियों में भी अंत दुखद होते हैं, पर तुम पूरी मत पढ़ो। जब अंत होने लगे तो पढ़ना छोड़ दो।<br />
<br />
सुनो, एक बात कहूं, नाराज तो नहीं होओगे? <br />
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ये सोचने की प्रैक्टिस करो कि सब ठीक हो जाएगा। ये बड़ी मजेदार प्रैक्टिस होती है। होना वोना कुछ हो न हो, लगने लगता है कि हो जाएगा। <br />
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बाए! टेक केअर।<br />
सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-90554287492028776082013-08-19T09:48:00.000+05:302013-08-19T15:31:34.521+05:30अमृता का नॉवल पढऩे के बाद......<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgl-lV8ugibkjaKV4XPYg_BBlTsM68OgDjcyrsVJ0r1TxB1rxQGtgT5gQ-Ot83ziyxz9TQPql-0R0dJPj2GjnMbErn5aOb4f6dNiTA7EMMYQ_e6QDLfvlPt_O2l0ShKhKG39HLyyovcz7A/s1600/MODERN.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgl-lV8ugibkjaKV4XPYg_BBlTsM68OgDjcyrsVJ0r1TxB1rxQGtgT5gQ-Ot83ziyxz9TQPql-0R0dJPj2GjnMbErn5aOb4f6dNiTA7EMMYQ_e6QDLfvlPt_O2l0ShKhKG39HLyyovcz7A/s400/MODERN.jpg" /></a></div><br />
कुरुक्षेत्र में था। प्रो. कथूरिया वेस्ट लैंड पढ़ाने आए थे। तब अंग्रेजी डिपार्टमेंट के हेड थे। यूं पढ़ाया था कि लगा ईलियट का वेस्ट लैंड भी मेरा वेस्ट लैंड ही है। एक घंटे की क्लास थी। इस एक घंटे में न जाने कितने वेस्ट लैंड तब मेरे बैंच पर मेरे साथ बैठे थे। मुझे डिस्टर्ब नहीं कर रहे थे, लेकिन मैं समझ गया था कि अब नहीं क्लास के बाद डिस्टर्ब करेंगे। क्लास के बाद एक एक कर ये वेस्ट लैंड किसी जहरीली बेल की तरह मेरे हाथ, पांव, सीने, सिर से लिपटने लगे। घबराकर प्रो. कथूरिया के पास गया उनके ऑफिस में। सोचा वेस्ट लैंड के एक्सपर्ट हैं, इनसे बचना भी सिखाएंगे। बातों बातों में उन्होंने कहा... हर किसी का अपना कुरुक्षेत्र होता है। मेरा भी है। तुम्हारा भी। उम्र भर यह कुरुक्षेत्र हमारे भीतर रहेगा। लडऩा तो पड़ेगा ही। लड़ते रहना सीख लेना चाहिए। <br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQccoEH2wAj62x2bjDMablmA-c5pkMK2IOZpGIPqTFPv_nzehKq5NFnbXjJBpRRdHtmsh6TXIAgCaPGBdcry618CpHk-VJATnGeHKnBVnQujv_34raAVB6C3HsPRxIESk8HE_oMQkYmFY/s1600/amrita3.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQccoEH2wAj62x2bjDMablmA-c5pkMK2IOZpGIPqTFPv_nzehKq5NFnbXjJBpRRdHtmsh6TXIAgCaPGBdcry618CpHk-VJATnGeHKnBVnQujv_34raAVB6C3HsPRxIESk8HE_oMQkYmFY/s200/amrita3.jpg" /></a></div><br />
8-9 साल हो गए उन बातों को। अब कुरुक्षेत्र की आदत पड़ चुकी है। फिर भी कभी कभी इस कुरुक्षेत्र में अभिमन्यु सा अकेला रह जाने का अहसास हो ही जाता है। कभी कभी। अक्सर नहीं। दो-तीन दिन पहले अमृता प्रीतम का नॉवल कोरे कागज पढ़ते वक्त यह अहसास लौटा था। कुछ जलते हुए अक्षर अक्सर पढऩे वाले का मन सुलगा देते हैं। अमृता के ही शब्द हैं... कागज को शाप है कि वह नहीं जलता। नहीं तो न जाने कितनी किताबें अपने आप सुलग जातीं। खैर, इस कुरुक्षेत्र से निकलने के लिए अक्सर मैं अक्षरों को हथियार बनाने की कोशिश करता हूं। तब भी यही किया। मेरी लिखीं ये लाइनें अब आपके लिए.... <br />
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<b>कभी कभी कुछ ऐसा कहने का मन करता है, जो शब्दों से नहीं कहा जा सकता। <br />
कभी कभी यूं चुप रहने का मन करता है, जैसा खामोशी से नहीं रहा जा सकता। <br />
चुपचाप कुछ कहकर अंदर उठते शोर को शांत करके देखो, बड़ा मजा आएगा। <br />
बेमतलब बातों के जंगल में सन्नाटे के साथ सैर करके देखो, बड़ा मजा आएगा। <br />
कुछ कहना, ना कहना <br />
चुप रहना, ना रहना <br />
कभी कभी सब बेमानी है <br />
जिंदगी पांव में धूप लपेटे अंधेरे की कहानी है </b><br />
<br />
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<br />
पेंटिंग गूगल से साभारसोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-90026969791024620242013-06-15T14:57:00.001+05:302013-06-15T14:57:47.732+05:30दीवार से लटकती बेल<b>कभी वो बेल देखी है जो जिसका तना मजबूत नहीं होता। वो जो ऊपर बढ़ती है तो अपने ही पत्तों के बोझ से झुक जाती है। फिर उसमें से तार जैसे महीन धागे से निकलने लगते हैं और वो जिससे भी टच होते हैं, उसे के चारों और घूम जाते हैं। फिर बेल उसके सहारे ऊपर उठती है। फिर अपने ही पत्तों के बोझ से झुकती है तो उसमें से निकला वो तार जैसा धागा फिर अपने आसपास किसी और चीज से लिपट जाता है। फिर देखते ही देखते वह बेल अपने आप ऊपर की और बढ़ती जाती है और एक दिन भरी पूरी हो जाती है। अपनी हरियाली से पूरी दीवार को ढंक लेती है और उसकी वजह से उसके आसपास का सब कुछ हरा भरा, सुंदर सुंदर सा लगने लगता है। <br />
<br />
दीवार से लटकती ऐसी बेलें सबने देखी होगी। पर ऐसी ही कुछ बेलें हमारे बीच में भी पलती हैं, जो अक्सर हम देखते हैं पर उन पर गौर नहीं करते। मैंने ऐसी बेलें बहुत करीब से देखी हैं। मुझे उनका अपने आसपास किसी न किसी से लिपट कर ऊपर बढ़ते जाना बहुत सुहाता है। आज सुबह अखबार में पूजा प्रसाद का आर्टिकल पढ़ा। पूजा ने ऐसी ही तीन बेलों का जिक्र किया था। कुछ ही देर में लगा कि अखबार से कुछ तार जैसे धागे निकल कर मेरे चारों और लिपट रहे हैं। फिर जेहन में कई सारी बेलें आ गईं और उनके तार जैसे धागे भी। जैसे तैसे उन धागों से निकलकर ऑफिस के लिए चल दिया। रास्ते भर सोचता रहा, क्या कोई बेल ऐसे ऊपर बढऩे पर खुश होती होगी या उसे यह पछतावा होता होगा कि मेरा तना इतना मजबूत क्यों नहीं कि मैं बिना किसी से लिपटे ऊपर बढ़ सकूं। <br />
<br />
पता है, कुछ बेलें ऐसी भी होती हैं जो अपने मजबूत तनों की कद्र नहीं करतीं। जब वे ऊपर बढ़ जाती हैं तो उन्हें लगता है उसके ऊपर बढऩे में उसके तने का कोई रोल नहीं। उसका तना बेकार है। उसे अपनी हरियाली दिखती है बस। ऐसी बेलें अगर मजबूत तना नहीं होने के कारण तार जैसे धागों के सहारे ऊपर बढ़ती बेलों को देखें तो उन्हें पता चले कि उनका तना ही है जिसकी वजह से वे आसानी से ऊपर बढ़ी हैं। मैं उस आर्टिकल को एज इट ईज ब्लॉग पर डाल रहा हूं। <br />
<br />
भगवान करे बिना मजबूत तने की बेलें ऐसे ही ऊपर बढ़ती रहें। <br />
<br />
और मजबूत तने वाली बेलें अपने तने का शुक्रिया अदा करना सीखें।</b><br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs1TgppFjytrGcu4LAqwMeRpnxBUW1YErC-zuBNwQbykWCm-sDEQ7egJLC3IRmejfukiXj33CbBIkQ-_YrnsQm7n425CPE15dAxswXRelVgGk8TadmZAUjKbbedMfqGBFQZEQxHO0kY1A/s1600/branch1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs1TgppFjytrGcu4LAqwMeRpnxBUW1YErC-zuBNwQbykWCm-sDEQ7egJLC3IRmejfukiXj33CbBIkQ-_YrnsQm7n425CPE15dAxswXRelVgGk8TadmZAUjKbbedMfqGBFQZEQxHO0kY1A/s320/branch1.jpg" /></a></div><br />
एक है विनय। बेहद कम हंसता है। हंसी आए भी तो माथे पर शिकन लाकर हंसी को दबा लेता है। हंसना बच्चा होने की निशानी है, ऐसा लगता है उसे।<br />
एक है मृणाल। हर समय अपनी देहयष्टि और रूप-रंग को लेकर परेशान और सतर्क रहती है। कहती है, अपने लिए लड़का खुद ही ढूंढना है उसे। इसलिए, आम लड़कियों से 'ज्यादा एलीजिबल' होना चाहिए उसे।<br />
एक है गौरव। उसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है। वह किसी हमउम्र से नजदीकी बढ़ने पर खुद को जल्द ही उससे दूर कर लेता है। कहता है, उसके ऐज ग्रुप की लड़कियां मेंटली और इमोशनली बहुत ही 'बच्ची' होती हैं। उसे कोफ्त होती है।<br />
तीनों की उम्र 19 से 23 के बीच है। तीनों पढ़ रहे हैं। दिल्ली में रहते हैं। मिडल क्लास फैमिली से हैं। इन तीनों में एक और समानता है- पिता के हाथ का अहसास इनकी हथेलियों से काफी पहले गुम हो गया था। बचपन में ही तीनों अपने-अपने पिता खो चुके हैं। इत्तेफाक से, पिछले दो महीने में मैं इन तीनों के अलावा भी कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आई जिनके पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं।<br />
बड़ा होना इतना भी बड़ा नहीं कि उम्र से पहले ही बड़ा हो लिया जाए। ऐसा सा ही कुछ मैं विनय को कहती। लेकिन कुछ अजीब सा छाती पर अटा सा पड़ा रहता है उसके। वह बोलने-चालने में निपुण है और उसके व्यवहार से उसके जहनोदिल पर बिछी उस मोटी परत का अंदाजा नहीं लगता जिसे वयस्कता कहते हैं। एक अजीब सा अपराध बोध उसे महसूस होता है यदि वह रिलैक्स रहता है। उसे लगता है कि उसे और जिम्मेदार होना चाहिए। वह परिवार से संबंधित कई जिम्मेदारियां उठाता है। घर बाहर के कई काम करता है। सोसायटी का लोकप्रिय 'बेटा' है। कई आंटियों की जब-तब मदद करता है। लेकिन, सबका राजा बेटा विनय खुद की एक्सपेक्टेशन्स पर खरा नहीं उतर पाता। सच तो यह है (जैसा कि उसने खुद कहा भी) कि वह अपने भीतर अपने पिता को देखना चाहता है। वह अपने व्यवहार में अपने पिता सा होना चाहता है। परिवार में खुद को पिता के रूप में देखने के लिए वह ऐसी असंभव जद्दोजहद कर रहा है जो उसे कतई नहीं करनी चाहिए। आखिर वह एक अलग शख्सियत है। लेकिन, जिंदगी 'चाहिए' पर नहीं चलती। उम्मीदें 'चाहिए' के आधार पर नहीं जन्म लेतीं।<br />
मैं छोटी थी, तब अक्सर सुनती थी, फलां के पिता नहीं हैं न, इसलिए वह बड़ा ही बदमाश किस्म का है... पढ़ने-लिखने में फिसड्डी है... मां की सुनता नहीं है... उद्दंड है...। लेकिन, देख रही हूं कि पिता जब कोमल उंगलियों को परिपक्व होने से पहले ही झटक कर चले जाते हैं, तब वे कोमल उंगलियां वक्त से पहले ही प्रौढ़ हो जाती हैं। बीच के कुछ साल, जैसे, जिंदगी से गायब हो जाते हैं। इन गायब दिनों को भर पाना संभव है क्या? कैसे? कल के दिन मुझे विनय,मृणाल और गौरव बहुत याद आएंगे। कल फादर्स डे है न।... और मैं कल के दिन अपने पिता से लिपट कर बस रोना चाहती हूं।<br />
सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-47489753938617249442013-05-30T11:21:00.000+05:302013-08-17T14:49:29.184+05:30गौरेया मेरे पास आई थी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdxuFVu5c7GYimFeyHWkn83xSAEQVCHstlYW6BL4qaZ7Thqrk-EMAsI0-g9VEYF-M1NMucZLv81_k1R_qHaF0BG5yrFxj888TBlfDb0kPXiQJpxdIcMUoGVE7fIHc1O9HVsGyRZ_GNbFw/s1600/sparrow+copy.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjdxuFVu5c7GYimFeyHWkn83xSAEQVCHstlYW6BL4qaZ7Thqrk-EMAsI0-g9VEYF-M1NMucZLv81_k1R_qHaF0BG5yrFxj888TBlfDb0kPXiQJpxdIcMUoGVE7fIHc1O9HVsGyRZ_GNbFw/s320/sparrow+copy.jpg" /></a><br />
निधीश त्यागी जी की बात याद आ गई। एक दिन उन्होंने कहा था कि कविता गौरेया की तरह होती है, बुलाओ तो नहीं आती, अपने आप ही आती है। कुछ दिन पहले यह गौरेया मेरे पास आई थी। मैंने इसके पंख सहलाए थे और दोनों हाथों से उठाकर अपने कंधे पर बिठाया था। लेकिन फिर नींद आ गई और अगले दिन गौरेया का ख्याल भी उसकी तरह उड़ गया। इसके नन्हें पंजों के निशान वाला कागज मेरे पास रह गया था। जब जब इन निशानों को देखा, सोचा सबको दिखाता हूं कि गौरेया आई थी। पर फिर पता नहीं क्यों, कागज मोड़ के फिर जेब में रख लेता था। आज अचानक इस कागज ने पड़े पड़े फडफ़ड़ाना शुरू कर दिया। लगा कि वही गौरेया कहीं किसी जाल में उलझ गई है और पंख फडफ़ड़ा रही है। इसकी छटपटाहट को दूर ना किया तो बेचारी कहीं मर ना जाए। मैंने कागज निकाला और उन पंजों के निशान समेत हवा में उड़ा दिया। यह निशान अब मेरे ब्लॉग पर छप गए हैं। मैं जब चाहे इसे देख सकूंगा। आप भी देख सकते हैं। पता नहीं आपको गौरेया दिखाई दे या नहीं, पर मुझे दिख रही है। जब तक यह फिर नहीं आती, मैं इन्हीं निशानों से काम चलाऊंगा। <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b>कितना बोर हो गया है ये टेलिविजन <br />
300 चैनल हैं पर एक पर भी ढंग का प्रोग्राम नहीं आता<br />
इंटरनेट भी तो कम बोरिंग नहीं<br />
पचास साइट खोल ली एक पर भी टिकने का मन नहीं<br />
कूलर का पंप चलाओ तो ठंडा ज्यादा<br />
न चलाओ तो कमबख्त कितनी गर्म हवा देता है<br />
सोफे पर सोऊं या बेड पर जाऊं<br />
गली के बच्चे कितने नीरस हैं, कोई शोर ही नहीं<br />
मां पूछती है क्या सब्जी बनाऊं, क्या बताऊं<br />
खाने का मन नहीं, भूख तो लगी है लेकिन<br />
चलो टहल के आता हूं, <br />
रहने दे यार, धूल धक्कड़ में कैसा टहलना<br />
फेसबुक पर क्या खाक चेक करूं, <br />
कोई ढंग की पोस्ट ही नहीं करता, हां मैं भी नहीं<br />
और ये गानों को क्या हुआ, सारे फेवरिट कानों को खा रहे हैं<br />
वक्त पैर पर पत्थर बांधे औंधे मुंह पड़ा ऊंघ रहा है<br />
जी करता है इसका इल्जाम अपने सिर पे ले लूं<br />
खुद उसकी जगह बेहोश हो जाऊं<br />
और उसे होश में लाकर उड़ा दूं आसमान में।</b>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-39655122976607300502013-04-24T15:13:00.001+05:302013-04-25T12:29:05.716+05:30ओपड़ी गुडग़ुड़ दी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPw756KT0g_KU42AwSAgWe7k8ThOBFvxk4thCIwBJmuFfILjVIj47kajmO8eNSMgR3I_kQwmzc58i6tCpEYhVVJdbetCB_K1egE-GfYfOTZzw4lKvUdaNLRQHLU53k8uMNiJbYVxI1UDs/s1600/old.JPG" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPw756KT0g_KU42AwSAgWe7k8ThOBFvxk4thCIwBJmuFfILjVIj47kajmO8eNSMgR3I_kQwmzc58i6tCpEYhVVJdbetCB_K1egE-GfYfOTZzw4lKvUdaNLRQHLU53k8uMNiJbYVxI1UDs/s320/old.JPG" /></a><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"></div><b>हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे के बारे में जब कभी कोई जिक्र आता है तो मन में अजीब सा मिश्रित सा भाव तैर जाता है। मेरा ख्याल है कि हमारे देश के (शायद पाकिस्तान के भी) युवा अक्सर इस मिश्रित भाव से रूबरू होते होंगे। (मैं तो ऐसा ही सोचता हूं, हो सकता है ये मेरी गलतफहमी हो)। अब तक कहानियों किताबों में ही उन हालात के बारे में सुना है, जब अपनी जीवन भर की पूंजी, जन्मभूमि और अपनी जगह से मिला अपनापन छोड़कर एक पार के लोग दूसरी पार गए थे। अब तक अमृता प्रीतम और कुछ और की रचनाओं से वह तकलीफ महसूस करने की कोशिश की थी, लेकिन आज सआदत हसन मंटो की कहानी, 'टोबा टेक सिंह' पढऩे का टाइम मिला। बहुत सुना था इसके बारे में। इसे पढ़कर कैसा लगा, यह मैं यहां लिखूंगा नहीं। सोचता हूं इस कहानी को पढ़वाकर आपको महसूस ही करवा दूं, तब शायद इसे ज्यादा ठीक अभिव्यक्ति मिले। और हां...एक रिक्वेस्ट : 20-25 मिनट की फुर्सत और पेशंश हो तो ही पढऩा शुरू करें, वरना फिर कभी सही। <br />
पढऩे लिखने की जिन्हें ज्यादा आदत या शौक नहीं, वे शायद मंटो के बारे में ज्यादा नहीं जानते होंगे, इसलिए थोड़ा सा बता दूं कि यह बहुत बड़े कहानीकार, फिल्म लेखक हुए हैं। इनकी कहानियों को पाकिस्तान में बैन भी किया गया। मुकदमा तक चला। बताते हैं कि इससे मंटो इतने आहत थे कि उनका दिमागी संतुलन तक बिगड़ गया था। भारत पाकिस्तान के बंटवारे को मंटो ने बहुत नजदीक से देखा था। बॉलिवुड में कई फिल्में लिखने के बाद उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया था। 1955 में उनकी मौत हो गई थी। उनकी कहानियां बवाल मचा दिया करती थीं। वाकई उनकी कलम में आग थी। यह कहानी मैंने http://gadyakosh.org/gk पर पढ़ी। रमेश तिवारी जी ने कल मुझे इस साइट के बारे में बताया था। साइट गजब की है और पढऩे के शौकीनों को यह कहने में ताज्जुब नहीं लगेगा। यह साइट से साभार ले रहा हूं। बस, कुछ बेहद मुश्किल उर्दू शब्दों को आसान हिंदी शब्दों में बदला है, वह भी बस इस मंशा से कि पढऩे में आसानी रहे। बाकी वर्ड टु वर्ड वही है। </b><br />
<br />
<br />
<b>टोबा टेक सिंह</b><br />
बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि बाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाए। <br />
मालूम नहीं यह बात माकूल थी या गैर-माकूल थी। बहरहाल, सरकारों के फैसले के मुताबिक इधर-उधर ऊँची सतह की कॉन्फ्रेंसें हुई और दिन आखिर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गयी। वो मुसलमान पागल जिनके सगे सम्बन्धी हिन्दुस्तान ही में थे वहीं रहने दिये गये थे। बाकी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूंकि करीब-करीब तमाम हिन्दु सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिन्दू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफाजत में सरहद पर पहुंचा दिये गये। <br />
उधर का मालूम नहीं। लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चर्चाएं होने लगी। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज बाकायदगी से जमींदार पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा- <br />
– मोल्हीसाब। ये पाकिस्तान क्या होता है ? <br />
तो उसने बड़े गौरो-फिक्र के बाद जवाब दिया- <br />
– हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं। <br />
ये जवाब सुनकर उसका दोस्त चुप हो गया। <br />
इसी तरह एक और सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा <br />
– सरदार जी हमें हिन्दुस्तान क्यों भेजा जा रहा है - हमें तो वहां की बोली नहीं आती। <br />
दूसरा मुस्कराया- <br />
– मुझे तो हिन्दुस्तान की बोली आती है - हिन्दुस्तानी बड़े शैतानी आकड़-आकड़ फिरते हैं। <br />
एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' का नारा इस जोर से बुलन्द किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया। <br />
बाज पागल ऐसे थे जो पागल नहीं थे। उनमें प्रवृति ऐसे कातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे-दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जायें। ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान को क्या नसीब हुआ और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन असलियत से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उनकी गुफ्तगू (बातचीत) से भी वो कोई नतीजा हासिल नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे आज़म कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है। यह कहां है? इसका स्थल क्या है, इसके बारे में वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागलखाने में वो सब पागल जिनका दिमाग पूरी तरह खराब नहीं हुआ था, इस असमंजस में थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में। अगर हिन्दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है। अगर वो पाकिस्तान में है तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अरसा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान, और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ्तार हुआ कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठ कर दो घंटे दलीलें देता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के नाजुक मसले पर था। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया। डराया, धमकाया गया तो उसने कहा- <br />
– मैं न हिन्दुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में। मैं इस दरख्त पर ही रहूंगा। <br />
एक एम.एससी. पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग की एक खास क्यारी पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर जेलकर्मी के हवाले कर दिये और नंगधंडंग़ सारे बाग में चलना शुरू कर दिया। <br />
यन्यूट के एक मौटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक कार्यकर्ता था और दिन में पन्द्रह-सोलह बार नहाता था, एकदम यह आदत छोड़ दी। उसका नाम मुहम्मद अली था। और तो और, उसने एक दिन अपने जंगले में ऐलान कर दिया कि वह कायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखादेखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जंगले में खून-खराबा हो जाय, मगर दोनों को खतरनाक पागल करार देकर अलग-अलग बंद कर दिया गया। <br />
लाहौर का एक नौजवान हिन्दू वकील था जो मुहब्बत में फेल होकर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। इसी शहर की एक हिन्दू लड़की से उसे मुहब्बत हो गयी थी। गो उसने इस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल मिलाकर हिन्दुस्तान के दो टुकड़े कर दिये। उसकी महबूबा हिन्दुस्तानी बन गयी और वह पाकिस्तानी। <br />
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे, उसको हिन्दुस्तान वापस भेज दिया जायेगा। उस हिन्दुस्तान में जहां उसकी महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोडऩा नहीं चाहता था। इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी। <br />
यूरोपियन वार्ड में दो एंग्लो-इण्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान को आजाद करके अंग्रेज चले गये हैं तो उनको बहुत रंज हुआ। वह छुप-छुप कर इस मसअले पर गुफ्तगू करते रहते कि पागलखने में उनकी हैसियत क्या होगी। यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ जाएगा। ब्रेकफास्ट मिलेगा या नहीं। क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इण्डियन चपाती तो नहीं खानी पड़ेगी? <br />
एक सिख था जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक्त उसकी जबान पर अजीबोगरीब अल्फाज सुनने में आते थे, 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी बाल आफ दी लालटेन।' वो न दिन में सोता था न रात में। पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह बरस के लंबे अर्से में एक एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। अलबत्ता किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था। <br />
हर वक्त खड़ा रहने से उसके पांव सूज गये थे। पिंडलियां भी फूल गयीं थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के बारे में जब कभी पागलखाने में गुफ्तगू होती थी तो वह गौर से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या खयाल है तो बड़ी संजीदगी से जवाब देता, 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।'<br />
लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह गवर्नमेंट ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है जहां का वो रहने वाला है। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि वो पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में। जो यह बताने की कोशिश करते थे वो खुद इस उलझाव में गिरफ्तार हो जाते थे कि स्याल कोटा पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिन्दुस्तान में चला जाएगा या सारा हिन्दुस्तान हीं पाकिस्तान बन जायेगा। और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब नहीं हो जायेंगे। <br />
उस सिख पागल के केस छिदरे होके बहुत कम रह गए थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और बाल आपस में जम गये थे जिनके कारण उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गयी थी। मगर आदमी किसी को नुकसान पहुंचाने वाला नहीं था। पन्द्रह बरसों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाजिम थे वो उसके बारे में इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांधकर लाये और पागलखाने में दाखिल करा गये। <br />
महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी खैर-खैरियत पता करके चले जाते थे। एक अरसे तक ये सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान हिन्दुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बन्द हो गया। <br />
उसका नाम बिशन सिंह था। मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसको ये मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने दिन बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उसके अजीज व सम्बन्धी उससे मिलने के लिए आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। मानो वो जेलकर्मी से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघा करता। अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज-बन कर मिलने वालों के पास आता। वो उससे कुछ पूछते तो वह खामोश रहता या कभी-कभार 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी वेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी लालटेन' कह देता। उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गयी थी। बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी आपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंख में आंसू बहते थे। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है। जब सन्तोषजनक जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब- दिन बढ़ती गयी। अब मुलाकात नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बन्द हो गयी थी जो उसे उनकी आमद की खबर दे दिया करती थी। <br />
उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि वो लोग आयें जो उससे हमदर्दी का इजहार करते थे ओर उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वो उनसे अगर पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो यकीनन वो उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में, क्योंकि उसका ख्याल था कि वो टोबा टेकसिंह ही से आते हैं जहां उसकी जमीनें हैं। <br />
पागलखाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में तो उसने आदत के अनुसार कहकहा लगाया और कहा <br />
– वो न पाकिस्तान में है न हिन्दुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं लगाया। <br />
बिशन सिंह ने इस खुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत से कहा कि वो हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वो बहुत बिजी था, इसलिए कि उसे ओर बेशुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ वाहे गुरूजी दा खलसा एन्ड वाहे गुरूजी की फतह। जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल।' उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमान के खुदा हो, सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान दोस्त मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हट गया और वापस आने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका - ये तुमसे मिलने आया है - तुम्हारा दोस्त फजलदीन है। <br />
बिशन सिंह ने फजलदीन को देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा। <br />
– मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फुर्सत ही न मिली। तुम्हारे सब आदमी खैरियत से चले गये थे मुझसे जितनी मदद हो सकी मैंने की। तुम्हारी बेटी रूप कौर...। वह कुछ कहते कहते रूक गया। बिशन सिंह कुछ याद करने लगा <br />
– बेटी रूप कौर । <br />
फजलदीन ने रूक कर कहा- <br />
– हां वह भी ठीक ठाक है। उनके साथ ही चली गयी थी। <br />
बिशन सिंह खामोश रहा। फजलदीन ने कहना शुरू किया- <br />
– उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी खैर-खैरियत पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो। भाई बलबीर सिंह और भाई बिधावा सिंह से सलाम कहना - और बहन अमृत कौर से भी। भाई बलबीर से कहना फजलदीन राजी-खुशी है। वो भूरी भैंसें जो वो छोड़ गये थे उनमें से एक ने कट्टा दिया है, दूसरी के कट्टी हुई थी पर वो छ: दिन की हो के मर गयी और और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना, मैं। हर वक्त तैयार हूं और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरून्डे (गजक जैसे) लाया हूं। <br />
बिशन सिंह ने मरून्डे की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलदीन से पूछा- टोबा टेकसिंह कहां है? <br />
– टोबा टेकसिंह... उसने कद्रे हैरत से कहा - कहां है! वहीं है, जहां था। <br />
बिशन सिंह ने पूछा - पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में? <br />
– हिन्दुस्तान में...। नहीं-नहीं पाकिस्तान में...। <br />
फजलदीन बौखला-सा गया। बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया - 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी हए फिटे मुंह।' <br />
तबादले की तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की सूचियां पहुंच गयी थीं, तबादले का दिन भी तय हो गया था। सख्त सर्दियां थीं। जब लाहौर के पागलखाने से हिन्दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के दस्ते के साथ् रवाना हुई तो संबंधित अफसर भी साथ थे। वाहगा के बार्डर पर दोनों तरफ से सुपरिटेंडेंट एक दूसरे से मिले और कागजी कार्रवाई खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा। <br />
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रजामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे उनको कपड़े पहनाये जाते, तो वो फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते। क़ोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है। आपस में लड़-झगड़ रहे हैं, रो रहे हैं, बक रहे हैं। कान पड़ी आवाज सुनायी नही देती थी। पागल औरतों का शेरोगोगा अलग था और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत बज रहे थे। <br />
पागलों की प्रवृति इस तबादले के हक में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है। चंद जो कुछ सोच रहे थे, 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे। दो-तीन बार फसाद होते-होते बचा, क्योंकि बाज मुसलमान और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया। <br />
जब बिशन सिंह की बारी आयी और वाहगा के उस पार संबंधित अफसर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा - टोबा टेकसिंह कहां है? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में? -अफसर हंसा - पाकिस्तान में। <br />
यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने बाकी मांदा साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे। मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया, और जोर-जोर से चिल्लाने लगा - टोबा टेकसिंह कहां है- ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी टोबा टेकसिंह एन्ड पाकिस्तान।' <br />
उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबा टेकसिंह हिन्दुस्तान में चला गया है। अगर नहीं गया तो उसे फौरन वहां भेज दिया जाएगा। मगर वो न माना। जब उसको जबरदस्ती दूसरी तरफ ले जाने की कोशिश की गयी तो वह बीच में एक जगह इस अन्दाज में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे वहां से कोई ताकत नहीं हटा सकेगी। <br />
आदमी चूंकि किसी को नुकसान पहुंचाने वाला नहीं था इसलिए उससे जबरदस्ती न की गयी। उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और बाकी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले शान्त बिशन सिंह के हलक से आसमान को फाड़ देने वाली चीख निकली - इधर-उधर से कई अफसर दौड़ आये और देखा कि वो आदमी जो पन्द्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा, औंधे मुंह लेटा था। उधर खारदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था - इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में जमीन के इस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था। <br />
<br />
<br />
<br />
फोटो - साभार गूगलसोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-2370236900175454052013-02-13T12:17:00.000+05:302013-02-13T12:17:01.007+05:30हंसते हुए लड़के की तस्वीर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"></div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtHxEQMnMx4EX7UzB5g-eAFOEQa_Oh7dNRezF2J3Q3rDJDSsOdcEw7eGf6eIHCrb_eSETN2QF98AxSOEJ67N6CGhrN5zMiFiXujTCH1wSmXDK2Dp76fhqCB-jFm9zEM8FrjZq0djI8J0w/s1600/window.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtHxEQMnMx4EX7UzB5g-eAFOEQa_Oh7dNRezF2J3Q3rDJDSsOdcEw7eGf6eIHCrb_eSETN2QF98AxSOEJ67N6CGhrN5zMiFiXujTCH1wSmXDK2Dp76fhqCB-jFm9zEM8FrjZq0djI8J0w/s320/window.jpg" /></a> <br />
कहते हैं स्मृतियों की उम्र होती है। वक्त के साथ-साथ पहले वे धुंधली पड़ती हैं, फिर और धुंधली और फिर मिट सी जाती हैं। मिट सी इसलिए कह रहा हूं क्योंकि बाबा सिग्मंड फ्रायड कहते थे कि वे हमारे अनकॉन्शस माइंड में हमेशा के लिए कैद होती हैं। हमारे मर जाने के बाद भी। कई बार सपनों में आ जाती हैं। अगले पिछले जन्म की उनकी थ्योरी को बेतुका या बकवास कहने का अभी मेरा मन नहीं हैं, आपको कहना हो तो कह लीजिए। मेरा मन तो धुंधली हो रही स्मृतियों को शब्दों के रंग देकर थोड़ा चटक करने का है। हो सकता है ऐसा करने से धुंधली होने का उनका प्रोसेस शायद थोड़ा धीमा हो जाए और इन शब्दों के रंगों को देख-देख लगने लगे कि यह तस्वीर पुरानी नहीं पड़ेगी। पता नहीं सच में पुरानी नहीं पड़ेगी या मेरी खुशफहमी है, पर करके देखने में क्या जाता है। यह कविता स्मृतियों के साथ इसी खिलवाड़ का नतीजा है जो कल ही इस शक्ल में सामने आई है। कविताएं तो और भी लिखी हैं पर इससे अलग तरह का अपनापन महसूस हुआ है। आपसे शेयर कर रहा हूं... इसी बहाने अपनी स्मृतियों को टटोलना चाहें तो टटोल लीजिए :<br />
<br />
<b>सपने में एक रास्ता जाना पहचाना नजर आया<br />
टेढ़ी मेढ़ी गलियों के बीचों बीच बेतरतीब बहती काली गंदी नालियां<br />
कई साल से गड़े खूंटों पर बंधी गोबर से सनी भैंसें और उनकी कटिया<br />
आवारा बीमार आलसी कुत्तों की पूंछ खींचते नंगे पुंगे बच्चों का शोर<br />
कपड़े धोने वाली थापी और प्लास्टिक की बॉल से क्रिकेट खेलते किशोर <br />
उधड़ी हुई ईंटों वाली गलियों में सब्जी बेचते चेहरे में छिपी उदासियां<br />
घरों के बाहर सीढ़ी पर बैठी बूढ़ी चाचियां, ताइयां और मासियां<br />
और फिर नजर आया<br />
चर्र की आवाज से खुलने वाला घिसी हुई चौखट से लटका हुआ किवाड़<br />
टूटी हुई अंगीठी पर कालिख से मोटा हो चुका पानी गर्म करने का भगोना<br />
पुराने कपड़ों को गूंथ कर बनी रस्सी पर सूखता गीला तौलिया और बनियान<br />
दीवार पर ढिठाई से गढ़ी कील पर लटकती कचरी की सूखी माला<br />
टूटे हुए शीशे के टुकड़े, खाली कांच की बोतलें और एक टूटा हुआ मग <br />
सब के सब कुछ जाने पहचाने से<br />
जाना पहचाना सा ही था कड़ी वाली छत पर टूटी खिड़की वाला चौबारा <br />
और चौबारे में रखी पुरानी सीनरियां, कांसे की टोकनी और टूटा टेबल लैंप<br />
वहीं रखे हुए थे हाथ से लिखे नोट्स के जिरोक्स, फटे हुए रजिस्टर और उदास किताबें<br />
रसोई में रखी रहने वाली जाली जिसमें मां नमक मिर्च की शीशियां रखती थीं<br />
और इससे पहले कि कुछ और नजर आता नजर आ गई एक तस्वीर<br />
मकड़ी के जालों में छिपी कन्वोकेशन गाउन वाले हंसते हुए लड़के की तस्वीर<br />
आखिरी दिन कॉलेज ग्राउंड की रेत पर बड़े चाव से खिंचवाई थी<br />
पर अब अकेली है बाकी धूल में सनी पुरानी ग्रुप फोटुओं के साथ<br />
हंसता हुआ चेहरा भर था इसमें, पर हंसती नजर नहीं आ रही थी<br />
पता नहीं क्यों<br />
घर पर घर बदल जाते हैं दौड़ती भागती जिंदगी में<br />
पर घर नहीं बदलता, <br />
और <br />
ना ही बदलती हैं उसे छोड़ जाने की मजबूरियां।<br />
</b>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-5694767488452697192013-02-08T13:40:00.000+05:302013-02-08T13:40:26.939+05:30मेरा सफर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCRukUqXSt4Kt9b80L6AHTzl_uB4EMAtekDd2wezUz33TXcNmXZpsWZSOxJ4QQFtwh4wsplazmEUcACKlPzErAePQJmIp3_-ly-FI8g5V31lh6cFF194bS3700ZxcIBNlCVLpFn13ATxE/s1600/boy+walking.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left;margin-right:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="320" width="262" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCRukUqXSt4Kt9b80L6AHTzl_uB4EMAtekDd2wezUz33TXcNmXZpsWZSOxJ4QQFtwh4wsplazmEUcACKlPzErAePQJmIp3_-ly-FI8g5V31lh6cFF194bS3700ZxcIBNlCVLpFn13ATxE/s320/boy+walking.jpg" /></a></div>मेरे कुछ और शे'र। अक्टूबर और नवंबर 11 के दरम्यान अक्सर घर जाते वक्त कैब में लिखे। अलग-अलग दिन अलग-अलग मिजाज की अपनी उस तस्वीर को आज भी इन शे'रों में साफ देख लेता हूं। हालांकि बदलते वक्त में अपनी ही तस्वीर अक्सर पराई लगने लगती है। फिर भी.... खैर... कुछ शेर आपसे शेयर करता हूं... <br />
<br />
<br />
<b>तेरे सफर से जुदा है सफर मेरा <br />
तुझे थकने का इंतजार, मुझे चलने की जुस्तजू। </b> <br />
23 अक्टूबर-11 <br />
<br />
<b>मंजिलें चूमेंगी कदम, रास्ते मुसकाएंगे <br />
राहों को तन्हा न रखना, फासले मिट जाएंगे। </b><br />
23 अक्टूबर-11 <br />
<br />
<b>मुस्कुराहटों का दामन थामे रखना <br />
राह में दुश्वारियां हैं बहुत </b><br />
29 अक्टूबर-11 <br />
<br />
<b>तेरी छुअन से महके थे जो फूल, सूख भी गए तो क्या <br />
मेरे ख्यालों से तेरी खुश्बू कभी मिट ना पाएगी। </b><br />
30 अक्टूबर-11 <br />
<br />
<b>जिंदगी की फिक्रें बड़ी बेरहम होती हैं, <br />
बचपन को मसल देती हैं किसी फूल की तरह। </b><br />
2 नवंबर-11 <br />
<br />
<b>उनकी इस अदा का कोई इल्म नहीं था <br />
देखा इक नजर और सब लूट ले गए </b><br />
2 नवंबर-11 <br />
<br />
<b>बदलना मौसम का मिजाज है, हवाओं की शरारत नहीं <br />
ये तो खुशबुओं की सौदागर हैं, कभी इधर की कभी उधर की </b><br />
3 नवंबर-11 सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-2539951379732276452012-12-25T15:39:00.000+05:302012-12-25T15:39:42.527+05:30मैं और तुम <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRXBYhDsUc6PawutSO2GDvkQn2o208EHYL0h6SalDtA4x8n3kO1QGtttFmdwqZ9fLWORsdq4vVcq69bPFjk7sCNXiBDNm4vtKKxdDWNGXD5ETMyyYFhl9ZRmWg7Od2OyMFpZvGpZ1aeqA/s1600/snow+2.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left;margin-right:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="262" width="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRXBYhDsUc6PawutSO2GDvkQn2o208EHYL0h6SalDtA4x8n3kO1QGtttFmdwqZ9fLWORsdq4vVcq69bPFjk7sCNXiBDNm4vtKKxdDWNGXD5ETMyyYFhl9ZRmWg7Od2OyMFpZvGpZ1aeqA/s320/snow+2.jpg" /></a></div>कुहू की बरसात की उस बूंद के जमीन पर गिरकर एक पत्ते को मायूस कर देने के दो तीन दिन बाद ही बर्फ के ये सुनहरे कण मेरे जेहन पर बरस पड़ेंगे, इसका अंदाजा मुझे नहीं था। अंकी ने वट्स ऐप पर जब इस कविता को पेस्ट किया था तो फोन वैसे ही बजा था जैसे दूसरे मैसेज आने पर बजता है, लेकिन उस बजने और इस बजने में फर्क था। इस बार बजकर वह मैसेज टोन तो शांत हो गई, पर मेरे अंदर कुछ वायब्रेट हुआ था। भइया, ये पॉइम पढ़ो, अंकी ने कहा। मैंने इस पीडीएफ के डाउनलोड होने का इंतजार किया और रोमन लिपि में लिखी इस कविता को पढऩे लगा। लाइन दर लाइन, मेरे अंदर की वाइब्रेशन बढ़ती चली गई और जब यह पढ़कर खत्म की तो लगा ठंडी हवाएं मेरे गर्म कपड़ों से कह रही थीं, तुम किसी काम के नहीं। मेरा अंकी से पहला सवाल था, किसने लिखी है। जवाब मिला स्वाति ने। कौन स्वाति। .... मेरी दोस्त है। इंग्लिश पढ़ाती है। हम्म्....। मैंने कुछ वाक्य इस कविता पर डिस्कशन में बिताए और पूछा, इसे अपने ब्लॉग पर लगा सकता हूं क्या। अंकी ने कहा, लगा लीजिए। <br />
इस कविता के बारे में मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता। मैं चाहता हूं इस ठंडक के अंदर की गर्माहट आप खुद महसूस करें। <br />
मेरी क्रिसमस। <br />
<br />
<br />
<b>मैंने बर्फ देखी है तो सिर्फ <br />
रुपहले पर्दे पर गिरते हुए <br />
या किताबों, अखबारों के <br />
बेजान पन्नों पर <br />
बर्फ को कभी छुआ नहीं मैंने <br />
कभी पिघली नहीं वो मेरे हाथों में <br />
<br />
हां, इतना पढ़ा है जरूर <br />
कि बर्फ के कोई भी दो कण <br />
एक से नहीं होते <br />
अब्र से गिरते हैं <br />
और समा जाते हैं <br />
गर्द में <br />
<br />
मैंने बर्फ को देखा है सिर्फ <br />
पर कभी जाना नहीं <br />
कुछ लम्हों के खेल की <br />
इस सर्द जिंदगी में <br />
कहीं मैं और तुम <br />
बर्फ के ये टुकड़े तो नहीं <br />
<br />
-स्वाति</b><br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-77616303477229011812012-12-21T13:54:00.000+05:302012-12-21T13:56:18.579+05:30उन्हें जाने दीजिए....<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0O-CSmBUn0t6d_E070ZuM7ckPYOwDWjmD4F61MPSyUmve-yV_hKQSYGqyltmZ9XhgtqYAw6WpAkAfOgEoKr9O14MrLtPKjYScbNmeArkpr6u5NFflFKKAYYBR1LRzMVfpSE5veyvy_pc/s1600/leaf.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left;margin-right:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="217" width="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0O-CSmBUn0t6d_E070ZuM7ckPYOwDWjmD4F61MPSyUmve-yV_hKQSYGqyltmZ9XhgtqYAw6WpAkAfOgEoKr9O14MrLtPKjYScbNmeArkpr6u5NFflFKKAYYBR1LRzMVfpSE5veyvy_pc/s320/leaf.jpg" /></a></div><br />
आना जाना जीवन का दस्तूर है। अक्सर रिश्तों का भी। पाने और पाकर खोने के अहसास से शायद ही कोई बचा हो। यही शाश्वत सत्य है, और इसे कोई टाल नहीं सकता। लेकिन यह जानते हुए भी अक्सर इसे नकार देने का मन करता है। एक दबी दबी सी गूंज मन में भटकती रहती है... उसे जाना था तो फिर आया क्यों? उसे खोना था तो पाया क्यों? उसका साथ कुछ और देर नहीं ठहर सकता था क्या? कुछ और दूर वह साथ नहीं चल सकता था क्या? <br />
बिखरना ही होता है तो क्यों सिमट जाते हैं कुछ पल। हमारे भीतर। और फिर ठहरे रहते हैं कुछ लम्हे, बिखर जाने के बहुत देर बात तक। सरासर असंभव दिखता है पर फिर भी लगता रहता है कि शायद कहीं फिर से सिमट जाएं वे बिखरे हुए पल। नहीं सिमटते। सिमटना नहीं होता उन्हें, क्योंकि बिखरना उनकी नियती है। नियती है तो फिर अफसोस क्यों? जितने दिन साथ रहे, उन पलों को क्यों न जी भर जिएं। क्योंकि वे चले भी गए तो क्या... कुछ और पल हैं जो आने के इंतजार में हैं.... उन्हें जाने दीजिए.... उन्हें आने दीजिए। कूहू की इस कविता की तरह... जो कल से घूम रही है मेरे जेहन में... जिसे ब्लॉग पर उतारने को उतावला हूं मै.... थैंक्स कूहू....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b> दूर तक आसमान नीला और धुला था<br />
जिस वक्त सुबह ने आंखें खोलीं<br />
घरों की मुंडेरों ने बताया... कुछ देर पहले बारिश हुई थी<br />
<br />
<br />
किसी पत्ते पर ठहरी थी खूबसूरत बूंद<br />
इंद्रधनुष की गोलाई लिए....धीरे से आगे बढ़ी<br />
पत्ता हिला था हल्का सा... या उसका दिल धड़का था?<br />
<br />
<br />
बूंद बही अपनी निशानी छोड़कर,<br />
आखिरी सिरे पर जा टिकी...<br />
फिर कहां रुकने वाली थी वो चंचल बूंद<br />
<br />
<br />
पत्ता झुककर देखता रहा धरती की ओर...<br />
मिट्टी में उसको मिलते हुए<br />
पत्ते और भी थे शाख पर, सब चुप रहे<br />
ये खेल देखकर हवा भी देर तक थमी रही<br />
<br />
<br />
बारिश के बाद यही होता है अक्सर<br />
ये जीवन का चक्र कहां रुकता है<br />
हवा का नर्म झौंका है...<br />
पत्ते ने मुस्कुराकर आसमान को देखा<br />
सावन है...बारिश फिर होगी...<br />
<br />
<br />
-कुहू</b>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-68039694018822729072012-10-27T15:07:00.000+05:302012-10-27T15:07:02.639+05:30भले ही अब हम ऑफिस जाने लगे हैं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZHx9wn37KItP23qJ8f0z4GUYEpa9i-xB36br5bOtf8fAWL17GYj7d1dLAZgaZDIQonJwINpw9__vsL9PGMeQOE-4vWBd7wN34VnXoWNYguqZG5B0h8MCxNuiqxa6wTdxkTksdNJc_KXI/s1600/children-playing_original.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left;margin-right:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="180" width="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZHx9wn37KItP23qJ8f0z4GUYEpa9i-xB36br5bOtf8fAWL17GYj7d1dLAZgaZDIQonJwINpw9__vsL9PGMeQOE-4vWBd7wN34VnXoWNYguqZG5B0h8MCxNuiqxa6wTdxkTksdNJc_KXI/s320/children-playing_original.jpg" /></a></div>बातों बातों में कितनी खूबसूरत बातें सामने आ जाती हैं, पहले से पता नहीं होता। कुछ देर काम से खाली हुआ तभी फेसबुक पर गुंजन जैन ने पिंग किया। गुंजन ने आईआईएमसी से जर्नलिज्म किया है और एनबीटी में काम कर रही हैं। इधर-उधर की बात से घूमते-घुमाते उसने बताया कि उसे लिखना भी अच्छा लगता है, मगर दिल से। मैंने कहा कुछ सुनाओ तो उसने अपनी दो तीन रचनाएं लिख दीं। वाकई बेहद खूबसूरत अंदाज है। मैंने गुंजन से पूछा इनमें से एक ले लूं? तो उसने कहा, ले लो। तो आप भी पढि़ए और बताइए कैसी लगी।<br />
<br />
<b>भले ही अब हम ऑफिस जाने लगे हैं<br />
पर आज भी<br />
बस या ट्रेन में चढ़ते ही खिड़की वाली सीट कब्जाना,<br />
ऑफिस से निकलते वक़्त सर्द रातों में मुंह से धुआं उड़ाना,<br />
गाड़ियों पर जमी ओस पर उंगली से अपना नाम लिखना,<br />
आसमान के फ्रेम में बादलों से अलग-अलग तस्वीरें बनाना,<br />
अब भी कभी-कभी चॉकलेट के लिए मचलकर मम्मी पापा से जिद करना,<br />
कोई तो है जो हमसे ये करवाता है,<br />
जो तन्हाई में भी हमें गुदगुदाता है,<br />
अकेलेपन में चेहरे पर मुस्कराहट लाता है,<br />
दिल में बैठा वो बच्चा हमसे आज भी नादान शरारतें करवाता है,<br />
और<br />
इस समझदार दुनिया में मासूमियत को खोने नहीं देता</b>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-58095861694653799822012-10-20T12:17:00.001+05:302012-10-20T12:17:57.201+05:30जो कहा नहीं वो सुना करो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9Dl8k1hBupaYg2XNEwuyZWClHaIFzg-U4kXSs2l-ZTgeNBIYF817iAn9_AnDdX95Ij5Io2gcXry0Uuuuct__Qrh7T_0fkOIL5rvEKoKRkFOTVl9J9PeMtk8ZJCxAeCPnxMR5rr-CCTYM/s1600/man-thinking-alone.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left;margin-right:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="287" width="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg9Dl8k1hBupaYg2XNEwuyZWClHaIFzg-U4kXSs2l-ZTgeNBIYF817iAn9_AnDdX95Ij5Io2gcXry0Uuuuct__Qrh7T_0fkOIL5rvEKoKRkFOTVl9J9PeMtk8ZJCxAeCPnxMR5rr-CCTYM/s320/man-thinking-alone.jpg" /></a></div><br />
बशीर बद्र की एक खूबसूरत गजल कई दिन से ड्राफ्ट में रखी थी। इसके कई शेर ऐसे हैं जिन्होंने बशीर को एक तरह से अमर कर दिया। बच्चे बच्चे की जुबान पर यह शेर रहे हैं। अगर मुझे ठीक से याद है तो 11-12 साल पहले बशीर बद्र ने एक मुशायरे में बताया था कि यह जो कोई हाथ भी ना मिलाएगा वाला शेर है, इसे मिस यूनिवर्स का खिताब जीतने से पहले सुष्मिता सेन ने मंच पर सुनाया था। मुझे पहले से यह शेर याद था, लेकिन जब बशीर ने यह बात बताई, तब तो यह और खास लगने लगा। आप भी पढि़ए यह गजल.... अच्छी लगेगी<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<b><br />
<br />
यूं ही बेसबब ना फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो<br />
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो<br />
<br />
कोई हाथ भी ना मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से<br />
ये नए मिज़ाज़ का शहर है, ज़रा फा़सले से मिला करो<br />
<br />
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जाएगा<br />
तुम्हे जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो<br />
<br />
मुझे इश्तिहार सी लगती हैं, ये मुहब्बतों की कहानियां<br />
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो<br />
<br />
कभी हुस्न-ए-पर्दा नशीं भी हो, ज़रा आशिकाना लिबास में<br />
जो मैं बन संवर के कहीं चलूं, मेरे साथ तुम भी चला करो<br />
<br />
ये ख़िज़ां की ज़र्द शाम में, जो उदास पेड़ के पास है<br />
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो<br />
<br />
नहीं बेहिज़ाब वो चांद सा, कि नज़र का कोई असर नहीं<br />
उसे तुम यूं गर्मी-ए-शौक से, बड़ी देर तक ना तका करो<br />
</b>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-16497716291407826482012-10-13T13:18:00.000+05:302012-10-13T13:18:27.185+05:30 फितरत<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhv9dAhzmWPXd-0mmpdq7hubGdtjA3lWUGVQ4f9hPilPQcD2dg90L6H5t7R38DwaEzko9v5M7kofG_dnmDEeMPkx9-6DLPNBB-Cze5RTm9XiZBMuLf5JtarnI2wH5bsodoJpLJTCoubrkQ/s1600/deepak.jpg" imageanchor="1" style="clear:left; float:left;margin-right:1em; margin-bottom:1em"><img border="0" height="240" width="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhv9dAhzmWPXd-0mmpdq7hubGdtjA3lWUGVQ4f9hPilPQcD2dg90L6H5t7R38DwaEzko9v5M7kofG_dnmDEeMPkx9-6DLPNBB-Cze5RTm9XiZBMuLf5JtarnI2wH5bsodoJpLJTCoubrkQ/s320/deepak.jpg" /></a></div><br />
कभी कभी कुछ पुराने शेर पोस्ट करने की कोशिश करूंगा। फिलहाल ये दो। पिछले साल अक्टूबर में लिखे थे।<br />
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<i>बड़ी देर से उलझा हूं अंधेरों के बीच, <br />
आ भी जाओ के रोशन हो जाए राह मेरी </i><br />
<br />
<b>रोशनी का जिक्र क्या, जलने की फिक्र क्या, <br />
जलना तो आखिर फितरत है चरागों की </b><br />
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<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-21304213349425816602012-06-22T23:21:00.000+05:302012-06-22T23:21:27.184+05:30वो पुराना बक्सा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDzqZOGhqayiLcNlBpBXS2QFOvnWK4Kua3zlmS9Pplshjnrw_XkfuIBasbUeT84EBWOJJK61FioCG9w3t2zFZxBPdy45KkgDMtAvolRxv2PMThDixUc-QteFhbAwwWIcHCYOb4J7KYFCo/s1600/6995542980_3bfa84528a_z.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDzqZOGhqayiLcNlBpBXS2QFOvnWK4Kua3zlmS9Pplshjnrw_XkfuIBasbUeT84EBWOJJK61FioCG9w3t2zFZxBPdy45KkgDMtAvolRxv2PMThDixUc-QteFhbAwwWIcHCYOb4J7KYFCo/s320/6995542980_3bfa84528a_z.jpg" width="320" /></a>
प्लास्टिक की पाइप में भरा चूरन याद है? और सरकंडे के आगे कागज की चक्करी लगाकर गली-गली दौडऩा? याद होगा। नहीं याद तो याद कीजिए स्कूल में रिसेस से पहले ही चुपके से टिफिन खोलना और अचार के साथ एक परांठा खा लेना। या फिर वो पहली पेंटिंग जिसे बनाकर अपने कमरे की एक दीवार पर सेलो टेप से चिपकाया था। ज्येमेट्री बॉक्स में रखे वो हरे पत्ते जिनके बारे में पूछने पर हम बताते थे कि यह विद्या का पौधा है, साथ रखो तो पढ़ाई अच्छी आती है। मुझे आज यह सब याद आ रहा है। और भी बहुत कुछ याद आ रहा है। जैसे वो कटी पतंग लूटने के लिए ऊंची दीवारों से छलांग लगा देना। और वो दस पैसे की दो रोचक (हाजमोला) की गोलियां। बचपन की इन खट्टी-मीठी यादों में झांकने की वजह है एक कविता। कुछ दिन पहले ऑफिस में गुंजन में अपनी फेसबुक फ्रेंड प्रतीक्षा पांडे की इस कविता को लाइक किया था। फिर एक एक कर सबको इसे पढ़वाया। इस कविता को पढ़ते ही तय किया कि इसे ब्लॉग पर डालूंगा। लेकिन 10 दिन से वक्त नहीं मिल पाया। आज मौका मिलते ही आप तक इसे पहुंचा रहा हूं... उम्मीद है पसंद आएगी।<br><br>
मां<br><br>
जब वो पुराना बक्सा खाली करना<br><br>
तो ध्यान से देखना<br><br>
उस गहरे हरे रंग के बैग<br><br>
और सफेद कवर वाली रजाई के बीच<br><br>
परतों में मुड़ी हुई<br><br>
एक याद रखी होगी<br><br>
मिलेगा एक फटा हुआ पन्ना चंपक का<br><br>
ऊपर भोलू भालू लिए खड़ा होगा<br><br>
मेरी प्लास्टिक की गेंद<br><br>
शायद निकले एक दुलहन की तरह सजी हुई गुडिय़ा<br><br>
जिसकी एक आंख गायब होगी<br><br>
और बाल बिखर गए होंगे<br><br>
एक ज्योमेट्री बॉक्स भी होगा<br><br>
अंडरटेकर के स्टिकर के साथ<br><br>
और एक वॉटर कलर पेंटिंग<br><br>
जिस पर सूरज मुस्कुराता होगा<br><br>
सुनो आहिस्ता खींचना इन्हें<br><br>
वरना कुछ कंचे गिरकर बिखर जाएंगे<br><br>
और उसके ऊपर फिसलकर भाग जाएगा<br><br>
बीता हुआ वक्त<br><br>
तुम चेल्पार्क की इंक से<br><br>
नोट कर लेना हर एक सामान<br><br>
अपने मन के उन पीले पन्नों पर<br><br>
जिन्हें तुम बंद करके भूल गईं<br><br>
पुरानी अठन्नियों सा फिजूल न होने देना<br><br>
तुम याद का हर वह टुकड़ा<br><br>
जो फेनोप्थेलीन की गोलियों सा महकता<br><br>
उस पुराने बक्से में रखा है</div>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-13948448069749548512011-10-16T00:33:00.006+05:302011-10-16T00:59:26.882+05:30खुशी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiv9ymnyT23iPyAhnl652D1RR4QKrXMaituRSCgmvCjmtWLdMSfZK07lHh6jqARKRDiNYemoCcEoV-cwWqIdZ8XNPAOd2MU1iZJUdfZ5QSvlV49Lnw_Uftn-0OtfVrJS-6piylBMgYebrk/s1600/31happychild-max.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 224px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiv9ymnyT23iPyAhnl652D1RR4QKrXMaituRSCgmvCjmtWLdMSfZK07lHh6jqARKRDiNYemoCcEoV-cwWqIdZ8XNPAOd2MU1iZJUdfZ5QSvlV49Lnw_Uftn-0OtfVrJS-6piylBMgYebrk/s320/31happychild-max.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5663803004118339794" /></a> <strong>1 सितंबर 2008 को खुशी पर एक स्पेशल पेज निकालते वक्त मैंने लिखा था...<br />खुशी और जिंदगी का रिश्ता एक दूसरे की उम्र जितना लंबा होता है। बिना खुशी जिंदगी जिंदगी नहीं और जिंदगी नहीं तो कुछ भी नहीं। इंसान सारी जिंदगी खुशी पाने के लिए ही भागता है। .... दरअसल, खुशियां समेटने की यह जो दौड है, वह ही जीवन है। यह सफर ही जिंदगी का सफर है। खुशियां समेटते जाएं तो बहुत छोटा और छोडते जाएं तो बहुत लंबा! </strong><br />आज करीब 6 महीने बाद जब ब्लॉग पर यह पोस्ट डालने बैठा तो एक हादसा हो गया। दोस्त सुमन ने पानी का जग स्विच बोर्ड के पास रखा और अचानक स्विच आफ हो गया। जो लिखा था सब उड गया। यह पहली बार नहीं था इसलिए इस बार उतना बडा झटका नहीं लगा। दुबारा लिखने का हौसला करके इसे लिख दिया। पोस्ट का विषय भी कुछ ऐसा ही था। दरअसल, नीचे जो आपको पढवा रहा हूं वह साइकॉलजी की दुनिया की सबसे मशहूर प़त्रिका साइकॉलजी एंड लाइफ का एक एडिटोरियल है जो कुछ साल पहले पढा था। फोंट की कुछ दिक्कत की वजह से ढ और ड के नीचे बिंदी नहीं लगा पा रहा, असुविधा के लिए माफ कीजिएगा! उम्मीद है यह एडिटोरियल आपके भी किसी सवाल का जवाब खोजने में मदद करेगा। <br /><br /><strong>प्रसन्नता प्राय: गर्मियों के मौसम की हवा जैसी सुखद होती है, वह न सूचना देकर आती है और न ही सूचना का कोई संकेत जाते हुए देती है। हमें चाहिए कि हम सदैव इसके स्वागत के लिए तैयार रहें, मगर ऐसी इच्छा न करें कि वह हमेशा हमें ही सुख देती रहे। इसके साथ ही यदि हम निराशा और असफलता की शीत हवा को सहन करना भी सीख जाएंगे और अगर हमारे अंदर यह भाव भी कायम रहेगा कि हम किसी प्रकार के निराशजनक व्यवहार को, असफलता और ऐसा ही और भी बहुत कुछ सहन कर सकते हैं तो समझ लीजिए भविष्य में हम और भी प्रसन्नता प्राप्त करने योग्य हो जाएंगे। अगर हम चाहें कि इस जीवन में हमें अंतहीन प्रसन्नता प्राप्त हो जाए तो हमारी इस इच्छा की पूर्ति असंभव है। जीवन में अगर हम कुछ इच्छा कर सकते हैं तो वह यह कि हमें प्रसन्नता का हमारा हिस्सा प्राप्त होता रहे, बस।</strong>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-456233388967144659.post-29972535670742571122011-05-16T23:44:00.008+05:302011-05-17T23:00:25.431+05:30साहिल किधर गए?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgEHBe113ssWQ92bMMLM1oVkR6fpuQA63mQJSfOM1A7v1bmHf9L-hWPpw5EkApQeGpK_jKc6sg9gcGWCk3dEzn3lQXLM2vFaRFSEYZD8i1wbK1mZom3XChnRGNPV2Lun_Miv071vTq4Ypc/s1600/sea+man+alone.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 217px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgEHBe113ssWQ92bMMLM1oVkR6fpuQA63mQJSfOM1A7v1bmHf9L-hWPpw5EkApQeGpK_jKc6sg9gcGWCk3dEzn3lQXLM2vFaRFSEYZD8i1wbK1mZom3XChnRGNPV2Lun_Miv071vTq4Ypc/s320/sea+man+alone.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5607383261942231410" /></a> 12 मार्च 2010 को बस में एफएम सुनते हुए एक ग़ज़ल सुनी थी। बहुत प्यारी लगी थी। तब एक कागज़ के टुकड़े पर नोट कर ली थी। आज एक डायरी खोली तो उसमें यह दिखी। टाइम मिल गया था इसे ब्लॉग पर डालने का, तो बिना किसी भूमिका के इसे पोस्ट कर रहा हूं। उलझनों, शिकायतों और ऐसे ही दूसरे अहसासों के लबरेज इस ग़ज़ल को पढ़कर आपको भी अच्छा लगेगा। इसे किसने लिखा, काफी कोशिश के बाद भी पता नहीं चल सका। आप में से किसी को इसकी जानकारी मिले तो प्लीज मुझे बताएं। <br /><br /><strong>जब वो मेरे करीब से हंसकर गुज़र गए<br />कुछ ख़ास दोस्तों के भी चेहरे उतर गए<br /><br />अफसोस डूबने की तमन्ना ही रह गई<br />तूफान ज़िंदगी में जो आए गुज़र गए<br /><br />हालांकि उनको देख कर पलटी ही थी नज़र<br />महसूस ये हुआ के जमाने गुज़र गए<br /><br />कोई हमें बताए कि हम क्या जवाब दें<br />मंज़र ये पूछते हैं कि साहिल किधर गए।</strong>सोहनhttp://www.blogger.com/profile/14857912366245266691noreply@blogger.com1