Sunday, October 16, 2011

खुशी

1 सितंबर 2008 को खुशी पर एक स्पेशल पेज निकालते वक्त मैंने लिखा था...
खुशी और जिंदगी का रिश्ता एक दूसरे की उम्र जितना लंबा होता है। बिना खुशी जिंदगी जिंदगी नहीं और जिंदगी नहीं तो कुछ भी नहीं। इंसान सारी जिंदगी खुशी पाने के लिए ही भागता है। .... दरअसल, खुशियां समेटने की यह जो दौड है, वह ही जीवन है। यह सफर ही जिंदगी का सफर है। खुशियां समेटते जाएं तो बहुत छोटा और छोडते जाएं तो बहुत लंबा!

आज करीब 6 महीने बाद जब ब्लॉग पर यह पोस्ट डालने बैठा तो एक हादसा हो गया। दोस्त सुमन ने पानी का जग स्विच बोर्ड के पास रखा और अचानक स्विच आफ हो गया। जो लिखा था सब उड गया। यह पहली बार नहीं था इसलिए इस बार उतना बडा झटका नहीं लगा। दुबारा लिखने का हौसला करके इसे लिख दिया। पोस्ट का विषय भी कुछ ऐसा ही था। दरअसल, नीचे जो आपको पढवा रहा हूं वह साइकॉलजी की दुनिया की सबसे मशहूर प़त्रिका साइकॉलजी एंड लाइफ का एक एडिटोरियल है जो कुछ साल पहले पढा था। फोंट की कुछ दिक्कत की वजह से ढ और ड के नीचे बिंदी नहीं लगा पा रहा, असुविधा के लिए माफ कीजिएगा! उम्मीद है यह ए​डिटोरियल आपके भी किसी सवाल का जवाब खोजने में मदद करेगा।

प्रसन्नता प्राय: गर्मियों के मौसम की हवा जैसी सुखद होती है, वह न सूचना देकर आती है और न ही सूचना का कोई संकेत जाते हुए देती है। हमें चाहिए कि हम सदैव इसके स्वागत के लिए तैयार रहें, मगर ऐसी इच्छा न करें कि वह हमेशा हमें ही सुख देती रहे। इसके साथ ही यदि हम निराशा और असफलता की शीत हवा को सहन करना भी सीख जाएंगे और अगर हमारे अंदर यह भाव भी कायम रहेगा कि हम किसी प्रकार के निराशजनक व्यवहार को, असफलता और ऐसा ही और भी बहुत कुछ सहन कर सकते हैं तो समझ लीजिए भविष्य में हम और भी प्रसन्नता प्राप्त करने योग्य हो जाएंगे। अगर हम चाहें कि इस जीवन में हमें अंतहीन प्रसन्नता प्राप्त हो जाए तो हमारी इस इच्छा की पूर्ति असंभव है। जीवन में अगर हम कुछ इच्छा कर सकते हैं तो वह यह कि हमें प्रसन्नता का हमारा हिस्सा प्राप्त होता रहे, बस।

Monday, May 16, 2011

साहि‍ल कि‍धर गए?

12 मार्च 2010 को बस में एफएम सुनते हुए एक ग़ज़ल सुनी थी। बहुत प्यारी लगी थी। तब एक कागज़ के टुकड़े पर नोट कर ली थी। आज एक डायरी खोली तो उसमें यह दि‍खी। टाइम मि‍ल गया था इसे ब्लॉग पर डालने का, तो बि‍ना कि‍सी भूमि‍का के इसे पोस्ट कर रहा हूं। उलझनों, शि‍कायतों और ऐसे ही दूसरे अहसासों के लबरेज इस ग़ज़ल को पढ़कर आपको भी अच्छा लगेगा। इसे कि‍सने लि‍खा, काफी कोशि‍श के बाद भी पता नहीं चल सका। आप में से कि‍सी को इसकी जानकारी मि‍ले तो प्लीज मुझे बताएं।

जब वो मेरे करीब से हंसकर गुज़र गए
कुछ ख़ास दोस्तों के भी चेहरे उतर गए

अफसोस डूबने की तमन्ना ही रह गई
तूफान ज़िंदगी में जो आए गुज़र गए

हालांकि‍ उनको देख कर पलटी ही थी नज़र
महसूस ये हुआ के जमाने गुज़र गए

कोई हमें बताए कि‍ हम क्‍या जवाब दें
मंज़र ये पूछते हैं कि‍ साहि‍ल कि‍धर गए।

Monday, April 11, 2011

उसे भूलने की दुआ करो

बशीर बद्र की एक गज़ल दो तीन दिन पहले ध्यान आई थी। कुछ ऐसा हुआ था कि इसका शे,र बार-बार जेहन में कौंध रहा था। शे,र कुछ इस तरह है... अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जाएगा, तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो। - शायद ही कोई हो, जिसे किसी ने या जिसने किसी को भुलाया न हो। चाहे चाहकर या ना चाहकर। वैसे भी यह जाहिर सी बात है कि जिंदगी की राह में लोगों के आने-जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है... कभी रुकता नहीं। लेकिन जब किसी का जाना चुभने लगता है, तो ये बातें अतार्किक लगने लगती हैं। तब यह समझ नहीं आता कि कैसे कोई आकर चला गया। तब तो सवाल ही सवाल घेरे रहते हैं कि किसी को आना था तो गया क्यूं या किसी को जाना था तो आया क्यूं। खैर, आपके या मेरे सोचने से कुछ होना नहीं है। जिसने आना होता है, वो आता है और जिसे जाना होता है वो चला जाता है। आपके मुखातिब वह गज़ल है, जिसके कुछ शे,र विश्वप्रसिद्ध हैं।

यूं ही बेसबब ना फि‍रा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची कि‍ताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी ना मि‍लाएगा, जो गले मि‍लोगे तपाक से
ये नए मि‍ज़ाज़ का शहर है, ज़रा फा़सले से मि‍ला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हे जि‍सने दि‍ल से भुला दि‍या, उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तिहार सी लगती हैं, ये मुहब्बतों की कहानि‍यां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्न-ए-पर्दा नशीं भी हो, ज़रा आशि‍काना लि‍बास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूं, मेरे साथ तुम भी चला करो

ये ख़ि‍ज़ां की ज़र्द शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो

नहीं बेहि‍ज़ाब वो चांद सा, कि‍ नज़र का कोई असर नहीं
उसे तुम यूं गर्मी-ए-शौक से, बड़ी देर तक ना तका करो

Thursday, March 3, 2011

लड़की

पांच महीने से ज्यादा हो गए इस बार ब्लॉग पर आए। मैं खुद हैरान हूं। इस बात से नहीं कि इतना टाइम हो गया उस ब्लॉग पर लिखे, जिसे मैंने अपने आप से बातचीत का आइना समझकर शुरू किया था। ज्यादा हैरानी इस बात से है कि एक ही ढर्रे पर कैसे इतने वक्त तक चला जा सकता है! एक जैसी दिनचर्या, मगर अपने लिए वक्त नहीं! खैर, आज अचानक ख्याल आया कि ब्लॉग तो देख लूं। तभी पद्म सिंह के दो कमेंट्स भी नज़र आए। निदा फाज़ली की एक नज़्म ‘फूल जब खिल के बहक जाता है’ के बारे में उन्होंने अपनी जिन भावनाओं का इज़हार किया, वह दिल को छू गईं। किसी नज़्म की किसी के जीवन में ऐसी भी कद्र होती है, इसे मैं समझ सकता हूं। बस, पढ़ते-पढ़ते लगा कि आज कुछ शेयर किया जाए। तभी वह बुक हाथ आ गई, जिसका जिक्र मैंने पद्म के कमेंट के रिप्लाई में किया है। इसमें एक नज्म है ‘सोने से पहले’। मुझे बहुत अच्छी लगती है। निदा ने इसमें ‘हर लड़की’ के बारे में लिखा है। पता नहीं कौन इसे कितना समझता होगा, लेकिन अक्सर मुझे लगता है कि इच्छाओं का दबाना और समझौतों को इज्जत देने की मुद्रा में उनके आगे नत मस्तक हो जाना ज्यादातर लड़कियों का स्वभाव बन जाता है। यह उनकी मजबूरी होती है या कुछ और मुझे नहीं पता, लेकिन सोचता हूं इच्छाओं को दबाने से ज्यादा तकलीफदेय क्या होता होगा? बेशक वक्त बदल रहा है। लड़कियों के लिए भी। लेकिन कुछ चीजें अब भी नहीं बदलीं, और समझौतों से लड़कियों को जोड़ा जाना उन्हीं में से है। समझौते करते बेशक लड़के भी हों, पर कुछ मामलों में वे उतने नहीं लगते जितने लड़कियों को करने पड़ते रहे हैं.... खैर, आप यह नज़्म पढि़ए


हर लड़की के
तकिये के नीचे
तेज़ ब्लेड
गोंद की शीशी
और कुछ तस्वीरें होती हैं
सोने से पहले
वो कई तस्वीरों की तराश-खऱाश से
एक तस्वीर बनाती है
किसी की आंखें किसी के चेहरे पर लगाती है
किसी के जिस्म पर किसी का चेहरा सजाती है
और जब इस खेल से ऊब जाती है
तो किसी भी गोश्त-पोश्त के आदमी के साथ
लिपट कर सो जाती है


फोटो- गूगल से साभार