Thursday, March 25, 2010

रिश्ते


कुछ चीज़ों की भूमि‍काएं नहीं होतीं। उन्हें कहने से पहले चुप होना पड़ता है। खामोश।
फरवरी 2008 में लि‍खे कुछ शब्दों को आज जब पढ़ रहा था, तो यही लगा। हो सकता है अपने ही लि‍खे इन शब्दों की भूमि‍का लि‍ख नहीं पा रहा था, इसलि‍ए ऐसा लगा हो। या शायद लगा कि‍ चुपचाप भी तो कुछ कहा जा सकता है।
मित्र गि‍रीश ने बि‍ना शब्दों के कुछ कहा है इस बारे में। अपने मन से। अपनी कला की ज़ुबान में। आप उसे देख सकते हैं। चाहें तो सुन भी सकते हैं और महसूस भी कर सकते हैं। जि‍न शब्दों के जरि‍ए मैंने अपनी बात कभी लि‍खी थी, इस इलस्ट्रेशन से उसने वह बात कहनी चाही है।









सबका कुछ नाम होता है
तुम्हारा
मेरा
चांद का
नदी का
ज़मीं का
लेकि‍न पता नहीं क्यों
कभी-कभी लगता है
जि‍नका नाम नहीं होता
वे भी जीते हैं
हमारे साथ-साथ
हमेशा
जब तक जीते हैं हम
जैसे कुछ रिश्ते
बेनाम

Saturday, March 20, 2010

उसे मैं नहीं जानता था


ज़िंदगी कब कौन सा रंग ले आए, हममें से शायद कोई नहीं जानता। यह तो ऐसी क़ि‍ताब है जि‍सका हर पन्ना पहले वाले से जुदा होता है। सबकी क़ि‍ताब अलग-अलग, सबकी कहानी अलग-अलग। अपनी क़ि‍ताब और कहानी हम नहीं जानते। बस, पढ़ते रहना ही हमारी नि‍यती है। फि‍र भी इसके कुछ रंग कभी-कभी दूसरों के रंगों से मि‍लते-जुलते होते हैं। जब-जब ऐसे रंग सामने आते हैं, एक अजीब सा जुड़ाव महसूस होता है, अपने और अनजानों के बीच। तभी तो कि‍सी बेगाने की मुस्कुराहट भी जाने-अनजाने हमारे होठों से रिश्ता बना लेती है। कभी-कभी कि‍सी के आंसुओं से हमारी आंखों में भी नमी उतर आती है। कभी कि‍सी का हार कर बैठ जाना हमें अच्छा नहीं लगता और हम कुछ कर सकें ना कर सकें, उसके कांधे पर रखने के लि‍ए हमारे हाथ में हलचल हो ही जाती है। तब हम उनके लि‍ए अनजाने नहीं रहते।
कभी-कभी अनजान लोगों के साथ चलना भी अच्छा लगता है। है ना?
अगर लगता है तो वि‍नोद कुमार शुक्ल की यह कवि‍ता भी आपको अच्छी लगेगी।

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलि‍ए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।

Sunday, March 14, 2010

सब ठीक है


कि‍सी से मि‍लते वक्त ज्यादातर हम सभी सबसे पहले पूछते हैं ...और क्या हाल है? और लगभग हर बार जवाब होता है ...बढ़ि‍या। बढ़ि‍या ना हो तो भी जवाब यही होता है। आप भी जानते हैं क्यों। कई बार नहीं भी जानते कि‍ क्यों सब ठीक ना होते हुए भी हम कह देते हैं कि‍ सब ठीक है। ऐसे में मुझे नि‍धीश त्यागी जी की यह कवि‍ता अक्सर याद आती है। मुझे लगता है कि‍ यह हम सबसे जुड़ती है। उन्हें जब ऑफि‍स में देखा करता था तो कतई नहीं लगता था कि‍ वे ऐसी कवि‍ताएं भी लि‍खते होंगे। बहुत सख़्त दि‍खते थे। फिर 12 अप्रैल 2007 को बीबीसी पर छपी उनकी यह कवि‍ता पढ़ी तो उनके अंदर बैठे कवि‍ से मिलने का मौका मि‍ला। आज जब लंबे समय बाद उनसे बात हो रही थी, तो वे कह रहे थे, "कवि‍ता गौरैया की तरह होती है। वह ख़ुद आपके पास आती है, आप उसे बुला नहीं सकते। ......कवि‍ता आपको उस वि‍षय से आजाद कर देती है। अंदर कुछ अटका होता है जो बाहर आ जाता है। " उनकी यह कवि‍ता अक्सर मेरे जेहन में तैरती है। ख़ासतौर से तब, जब मैं कहता हूं, "...बढ़ि‍या... बहुत बढ़ि‍या।"
गि‍रीश ने एक इलस्ट्रेशन बनाया है। त्यागी जी और गि‍रीश दोनों के आभार के साथ यह आपको पढ़वा रहा हूं।


क़ि‍ताब का पन्ना थोड़ा पीला पड़ गया है
थोड़ा और कुम्हला गए हैं सूरजमुखी
थोड़ी लम्बी कतार है एटीएम पर
थोड़ी कम हरी है बगीचे की दूब
थोड़ा ज्यादा झड़ गए हैं पेड़ों से पत्ते
थोड़ी मुश्किल से आ रहे हैं हलक तक शब्द
थोड़ी देर से डूब रहा है सूरज
थोड़ा ज्यादा ठहर रहा है लाइट्स पर ट्रैफिक
थोड़ा रास्ता बदल लि‍या है चांदनी ने
थोड़ा झूठ बोलना पड़ रहा है कि‍ सब ठीक है।