Friday, December 22, 2017

चौथा जन्मदिन : गिर कर उठे, उठकर चले


हृदय हार्दिक के चौथे जन्मदिन की पोस्ट लिखना शुरू करने से पहले ध्यान दिला दूं कि पिछली पोस्ट के अंत में लिखा था... हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी फिर शुरू हो गई है। उसके तीसरे जन्मदिन के अगले कुछ दिनों में यह सब दिक्कतें शुरू हुईं। और बहुत से टेस्ट हुए हैं। कल गिर जाने से सिर में लगी। तीन टांके आए हैं। एक और परीक्षा शुरू हो चुकी है। पर इस बारे में अगले साल लिखूंगा..

यही पढ़ते वक्त एक साल पहले का पूरा वाकया जेहन में घूम गया। हालांकि चौथे साल यह फर्क दिखने लग गया कि अब यादें उतनी कठोरता से जेहन में नहीं लौटतीं, जितनी शुरू के तीन साल पहले लौटती थीं।


मैक्स के चक्कर चौथे साल भी
हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी फिर से शुरू होना बहुत तकलीफ वाली बात थी क्योंकि जो डर कुछ महीने थैरपी बंद रहने के दौरान गया था, वह और बड़ा होकर लौटा था। वह मुंह से पानी गिराता था, थोड़ी भी ऊंचाई से कूद नहीं पाता था, स्पीच में काफी पीछे था, ऐसे ही दूसरे कई सिम्प्टम थे जिनसे मन में शक रहता था। इस बीच ब्रेन की दवाई वेल्परिन को 2 साल पूरे हो रहे थे इसलिए न्यूरोलोजिस्ट डॉक्टर रेखा मित्तल को दिखाना था। 2 दिसंबर को इस चेकअप के लिए वहां गए तो उन्होंने वेल्परिन को टेपर करके बंद करने का तरीका बताया। यह सेंस्टिव दवाई 2 महीने में बंद होनी थी और डॉक्टर के मुताबिक, दवाई बंद होने के अगले 6 महीने काफी कीमती होते हैं। मैंने सीधे सवाल किया कि अब फिट आने के कितने चांस हैं। उम्मीद से इतर जवाब भी सपाट था, 60 पर्सेंट। अगर फिट आया तो दवाई फिर शुरू हो जाएगी, नहीं आया तो मानकर चलेंगे कि अगले कुछ महीनों में खतरा टल गया है।

मैंने हृदय के माइलस्टोंस के बारे में बात की तो उन्होंने कहा, डॉक्टर सुनीता भाटिया को एक बार दिखाना चाहिए। वह डिवेलपमेंटल पीडिट्रिशन हैं। यहीं से मन में वहम आने शुरू हो गए। पालम जाने के बाद मैक्स बार बार आना आसान नहीं रह गया था, इसलिए जब भी यहां आने की कोई मजबूरी बनती, मूड खराब हो जाता। एक दिन जैसे तैसे अरेंज किया और डॉक्टर भाटिया के पास पहुंच गए।

बच्चों की ग्रोथ मापने के लिए इस तरह के डॉक्टर खास प्रोसीजर अपनाते हैं। कुछ ब्लॉक्स, गेंद, पजल्स और ऐसे ही दूसरे खिलौने इस्तेमाल किए जाते हैं। उन्होंने हृदय से ब्लॉक रखवाए, गेंद उछलवाई, कुछ तस्वीरें दिखाकर उनके नाम वगैरह पूछे। तब वह यह सब करने के ज्यादा मूड में नहीं था लेकिन कुछ चीजें न कर सकने के अलावा उसने बहुत से काम करके दिखा दिए। हालांकि दो ब्लॉक्स का ब्रिज नहीं बना सका था, गेंद दूर तक नहीं फेंक सका था।

यह सब देखने के बाद डॉक्टर भाटिया ने मुझे बेरा टेस्ट और आइक्यू/डीक्यू टेस्ट करवाने की सलाह दी। बेरा टेस्ट कान का काफी सेंस्टिव टेस्ट है। आईक्यू टेस्ट साइकोलोजिकल टेस्ट है। इसे डॉक्टर संजीता कुंडू को करना था। पहले मेक्स पटपड़गंज में बेरा टेस्ट के लिए टाइम लिया। हृदय को नींद की दवाई देकर सुलाया गया और फिर टेस्ट किया गया। टेस्ट तब भी हुआ था जब हृदय एक महीने का था। तब सब सही था। दोबारा भी टेस्ट ओके आया।

यह सब करते वक्त मेरे पास अनवॉन्टेड थॉट आने फिर से शुरू हो चुके थे। आदतन खुद ही यह समझने की कोशिश की कि आखिर यह सब क्यों हुआ होगा। इसी बीच एक दोस्त को फोन मिलाया जो अपने बच्चे की स्पीच थैरपी करवा चुकी थीं। सारे सिम्प्टम्स और डॉक्टर क्या बोल रहे हैं, यह सब डिस्कस किया तो उसने कहा कि कुछ चीजें तो ऐसी हैं कि ऑटिजम का शक लगता है। जैसे गाड़ियों को या खिलौनों को लाइन में लगा देना। बच्चों के बीच न खेलकर अलग जाकर खेलना। एक दो और भी। यहां से मेरी धड़कनें तेज हो गईं। मैंने ऑटिजम को स्टडी किया। हम डॉक्टर नहीं हैं इसलिए कभी नतीजे पर नहीं पहुंच सकते, लेकिन अक्सर ऐसी स्टडी हमें डर के एक जाल में तो उलझा ही देती है। इसी जाल में मैं बुरी तरह फंस गया और निगेटिव खयालों ने मेरे लिए फिर परेशानी खड़ी कर दी।

मैंने डीक्यू/आईक्यू टेस्ट के लिए डॉक्टर कुंडू से बात की। उन्होंने कहा कि 19 दिसंबर को सुबह सुबह बच्चे को वैशाली लेकर आओ, मैं चाहती हूं कि जब बच्चा यह टेस्ट दे तो एकदम फ्रैश हो। यह एक घंटे का टेस्ट था। हम पहुंचे तो टेस्ट शुरू हुआ। हृदय ने कई ऐसी चीजें सही बताईं जिनकी मुझे उम्मीद नहीं थी। कुछ चीजें वह नहीं भी बता सका। डॉक्टर ने मुझे समझाया कि कम से कम ऑटिजम जैसा तो कुछ नहीं दिख रहा। हां, वह स्लो है। कुछ दिन बाद टेस्ट रिपोर्ट लेने को कहा। रिपोर्ट आई तो उसमें लिखा था कि हृदय का आईक्यू लेवल 97 है। यह औसत है। इसमें डॉक्टर ने सलाह दी थी कि स्पीच थैरपी और स्पेशल एजेकेशन शुरू की जाए। ऑक्यूपेशनल थैरपी कंटीन्यू की जाए। पेरंट्स को बिहेवरियल मैनेजमेंट फीचर आउटलाइन किए जाएं और उनको साइको एजुकेशन दी जाए।

मेरे साथ पूजा ने लड़ी लड़ाई
अब चैलेंज यह था कि ऑक्यूपेशनल थैरपी और स्पीच थैरपी एक साथ कैसे दिला सकते हैं। मैक्स तो बहुत दूर है। रोज नहीं आ सकते। इसलिए पालम में थैरपिस्ट ढूंढना शुरू किया। एक थैरपिस्ट मिले। वह घर आए और हृदय को चेक किया। कहा कि ज्यादा घबराने की बात नहीं लगती। मैं वीक में एक दिन आ जाया करूंगा। बाकी कुछ चीजें बताईं जो हम घर में करवा सकते हैं। कैसे बोलना है बच्चे के साथ और कैसे रिपीट कराना है। कैसे कहानी सुनानी है और फिर बीच बीच में पूछना है। कई बारीक चीजें थीं जो लिख ली थीं। मैं कई पिक्चर वाले चार्ट और कार्टून ऑब्जेक्ट्स लेकर आया और एक कमरे की सारी दीवारें ऐसी चीजें चिपका कर भर दीं। कहीं एयरोप्लेन है तो कहीं आकृतियां चिपकी हुई हैं। कहीं पशु पक्षी तो कहीं डोरेमॉन चिपका हंस रहा है। इन सबको बारी-बारी हृदय को बताते और फिर पूछते। यह चेक करते कि उसकी मेमरी ग्रो हो रही है या नहीं। वह कितना याद रख पा रहा है। उसके साथ हार्दिक अपने आप ही अपने जोहर दिखा रहा था। जो हम हृदय को कराते, वह भी कहता मुझे भी कराओ। उसकी मेमरी भी शार्प थी और स्पीच भी क्लीयर। उससे मैं हृदय को कंपेयर करता और अंदाजा लगाता कि कितने दिन बाद हृदय यहां पहुंचेगा। हृदय उससे करीब 3 महीने पीछे चल रहा था। यानी जाे काम हार्दिक आज कर रहा था, हृदय तीन महीने बाद उसे करना सीखता था। मेरे लिए यह भी संतोष की बात थी। धीरे-धीेरे उसकी स्पीच क्लीयर होने लगी।

ऑक्यूपेशनल थैरपी भी घर पर ही शुरू की। जिम बॉल और दूसरे तरीकों से पूजा ने बेहिसाब मेहनत की और नतीजा फिर दिखना शुरू हो गया। स्पीच में सुधार दिखने लगा और बॉडी लेंग्वेज भी एक्टिव लगने लगी। ओरोमोटर प्रैक्टिस से हृदय ने मुंह से लार गिराना भी धीरे धीरे बंद कर दिया और कुछ हद तक जंप भी करने लगा। हार्दिक जिस तरह की कूंद फांद कर लेता है, वैसी तो खैर दूसरे बच्चे भी नहीं कर पाते लेकिन हृदय पर उसका एक असर यह जरूर पड़ रहा था कि वह देख कर सीख रहा था। पूजा ने इस साल ऐसी लड़ाई जीती थी कि मेरा संघर्ष मुझे इसके सामने दिखता तक नहीं था।

इस तरह धीरे-धीरे हृदय ने अच्छे से रिस्पॉन्ड करना शुरू कर दिया। ऑक्यूपेशनल थैरपी करना कम हो गया और फिर बंद। स्पीच थैरपी से भी ध्यान हट गया क्ंयोकि लगने लगा कि वह नए वर्ड सीख ही रहा है तो कवर कर लेगा। इस तरह उसकी दवाई भी बंद हो गई और थैरपी भी। तीन साल में यह सबसे संतोष वाली बात थी। संतोष की यह शुरुआत थी।

कुछ न कुछ तो चलता रहता है




लेकिन यही वह वक्त था जब मुझे यह उम्मीद छोड़नी थी कि जिंदगी में ऐसा भी वक्त होता है जब सब सही सही हो, और कुछ गड़बड़ नहीं हो। यही वह वक्त था जब यह समझ आ रहा था कि कुछ न कुछ जीवन भर चलता रहता है। थोड़ा या ज्यादा। दिसंबर में ही एक दिन जब मैं बस से घर लौट रहा था, वाइफ का फोन आया कि हृदय को सिर में चोट लग गई है। फोटो भेजी थी। फोटो देखकर दिमाग भन्ना गया। गहरा जख्म था। हार्दिक ने किचन में पानी मांगते वक्त खड़े खड़े हृदय को जरा सा धक्का दिया था और वह फर्श और दीवार के साथ लगी पत्थर की पट्टी पर इस तरह गिरा कि कट गया। करीब 3 इंच लंबा गहरा घाव था। मैंने फोन पर ही वाइफ को हौसला दिया और कहा कि जब तक मैं पहुंचूं, डॉक्टर सुधीर सबसे पास है, वहां ले जाओ। ऊपर किराए पर रहने वाली भाभी साथ गईं। मैंने फोन पर डॉक्टर से बस इतना कहा था कि टांगा लगाओ तो औजार जरा सटरलाइज कर लेना। शायद वह बुरा मान गया और मुझसे कहा कि टांगा लगाने की सुविधा हमारे पास नहीं है, बड़े अस्पताल ले जाओ। अब यह नई मुसीबत थी। मैंने वाइफ को कहा कि तुम लोग पास के तोमर अस्पताल पहुंचो, मैं सीधे वहीं आता हूं। जब पहुंचा तो हृदय शांति से खड़ा था। मैंने वहां उसको टांके लगवाए और घर ले आया। करीब एक सप्ताह बाद टांके खुले और धीरे धीरे जख्म भर गया। फरवरी की शुरुआत में हार्दिक खिड़की का गेट खोलते हुए गिरा और उसकी ठुड्डी कट गई। लंबा कट था लेकिन तब वह बिना टांके के ही भर गया। मार्च में दोनों के स्कूल में रिजल्ट डे था। प्ले स्कूल के बच्चों का क्या रिपोर्ट कार्ड और क्या नहीं, पर बच्चों के जीवन का पहला नतीजा था इसलिए मैं भी उनके स्कूल गया। हार्दिक अकैडमिक्स एक्सिलेंट था और उसे स्पोर्ट्स में ब्रॉन्ज मैडल मिला था। हृदय को वेरी गुड मिला था। हम मैडम से बात कर ही रहे थे कि भागते हुए हृदय को हार्दिक ने धक्का दे दिया। वह सामने बैंच से जा टकराया और इस बार उसकी ठुड्डी पर कट लग गया। इस तरह पहले टेंशन यह थी कि हृदय सही से चल फिर पाए, वहीं अब टेंशन यह हो गई कि भागते हुए खुद को चोट लगवा लेते हैं। ऐसी न जाने कितनी चोटें फिर पूरे साल लगती रहीं, लेकिन तब यह आदत पड़ चुकी थी। पहली चोट पर जिस तरह घबराए थे अब वैसा नहीं था। लेकिन हार्दिक जिस तरह की शरारत करने लगा, उसका जिक्र करूंगा तो आप भी घबरा जाएंगे।


हार्दिक ने जब नचाना शुरू किया



हृदय के स्लो होने की चिंता जा रही थी लेकिन हार्दिक के हाइपर एक्टिव होने से कई समस्याएं चिंता का कारण बन रही थीं। मसलन, वह ग्रिल के सहारे इतना ऊपर चढ़ जाता था कि छत को हाथ लगा देता था। उससे उतरने को कहो तो एक हाथ छोड़कर मानो धमकी दे रहा हो कि पास आए तो कूद जाऊंगा। ग्रिल पर चढ़कर बल्ब गिरा देता था, तस्वीरें तोड़ देता था या कोई और बखेड़ा खड़ा कर देता था। इतनी टेंशन देता था कि कभी यह समझ नहीं आया कि इसका क्या इलाज करें। न किसी बात का डर था, न चिंता। उसकी पिटाई भी होती थी इस बात पर, पर रोते हुए बड़ी मासूमियत से बोलता कि क्या करूं, मेरा मन करता है ऊपर चढ़ने का। अब इसका क्या जवाब दोगे आप।
हार्दिक के चंचल होने के कारण ही उसे स्कूल के एनुअल फंक्शन में एक गाने पर ग्रुप परफॉरमेंस के लिए चुना गया था। हम सब गए उसकी परफॉरमेंस देखने। गाना था आई लव माई स्कूल। बेहतरीन परफॉर्म किया और मैंने उसके वीडियो और तस्वीरें खींचीं। तब तक वह 3 साल का नहीं हुआ था, पर मोबाइल में सबवे सफर और टेंपल रन इतनी फास्ट खेल लेता था कि मैं खुद कभी उसके नजदीक भी नहीं फटक पाया। अपने नाम की स्पैलिंग दोनों ने 3 साल की एज में याद कर ली और मेरा फोन नंबर भी। कोई भी पूछे कि पापा का नंबर क्या है तो बता देते थे। धीरे धीरे सब याद कर रहे थे, और मुझे यह संतोष मिल रहा था कि गाड़ी पटरी पर आ रही है। ये सीखने लगे हैं तो धीरे धीरे सब करना सीख लेंगे।


फिर आई मुसीबत

महीने दो महीने भी साधारण नहीं बीते होंगे कि एक दिन जून में पूजा को पेट में दर्द उठा। पेट दर्द की उनकी हिस्ट्री पुरानी रही है इसलिए मुझे लगा कि यह गैस्टिक पेन होगा। मगर इस बार तो बला कुछ और थी। मैंने तुरंत बाइक निकाली। तब रेवाड़ी से भाभी आई हुई थीं। बच्चों को उनके पास छोड़कर भागा डॉक्टर के पास। डॉक्टर ने बोला कि बड़े अस्पताल ले जाओ। दूसरे अस्पताल गया। कई टेस्ट हुए। पित्त की थैली में स्टोन था। डर था कि अपेंडिक्स न हो। पर अल्ट्रासाउंड से कुछ साफ हीं हुआ। सीटी कराने को कहा गया। तब पूजा की गायना के पास गए। कुछ दिन दवाइयां खाईं, कुछ फर्क पड़ा लेकिन तब तक सिर में दर्द की ऐसी टेंडेंसी बन चुकी थी कि नया डर सताने लगा। पेट दर्द को ठीक है पर ये सिर दर्द, वह भी ऐसा कि लगे अभी कोई नस फटेगी। फिर कुछ अनवॉन्टेड थॉट्स आने लगे। और फिर यह सब बढ़ते बढ़ते हालात इतने खराब हुए कि मैंने तय किया कि मैक्स वैशाली जाते हैं। वहां डॉक्टर ने बताया कि समस्या तो कुछ बड़ी है पर दवाइयां चलेंगी कम से कम साल भर। अब दवाइयां चल रही हैं, दाे तीन चक्कर अस्पताल के लग चुके हैं, लेकिन इसका जिक्र अगले पोस्ट में।

एक नुकसान


इस साल एक और नुकसान हुआ जिसे भूलना आसान नहीं। इसलिए कि इसमें भी कहीं न कहीं बच्चे जुड़े हुए थे। दरअसल, शुरुआत से ही मेरी और पूजा की इच्छा थी कि बच्चों की परवरिश से जुड़े लम्हों को सहेजना है। जो जो काम वे पहली बार करें, कम से कम उसकी एक तस्वीर खींची जाए ताकि बच्चे जब बड़े हों तो देख सकें। हम यह काम कर रहे थे। हर दुख तकलीफ के दौरान भी बच्चों की मुसकुराहटों, शरारतों, मुश्किलों, सब तरह के पलों को अपने मोबाइल में कैद कर रहे थे। बच्चे एक साल का होने के बाद करीब 9 महीने मेरे साथ नहीं थे, मगर उनकी हर हरकत मेरे पास वट्सऐप से आती थी। उनके करीब 3 साल मेरे पास एक हार्डड्राइव में कैद थे जो 500 जीबी की थी। करीब 400 जीबी डाटा उसमें था जिसमें बच्चों के इन 3 सालों के अलावा मेरे भी करीब 10-12 साल थे। एक दिन इसे ऑफिस ले गया था। वहीं ड्रोर में पड़ी थी। हफ्ते भर लेकर ही नहीं आया। एक दिन शाम को पता चला कि ऑफिस में आग लग गई है। मैंने इस उम्मीद में रात बिताई कि हमारे वाले फ्लोर तक आग नहीं आएगी, उससे पहले ही बुझ जाएगी। दोपहर में ऑफिस आया तो देखा आग बुझ गई थी मगर दोपहर होते होते फिर सुलग गई। इस बार हमारे वाला पहला फ्लोर उसकी चपेट में आया। सब जल गया। इसके अगले दो महीने वह हार्ड डिस्क खयालों में ऐसी घूमी कि बता नहीं सकता। एक दिन जब फ्लोर देखने का मौका मिला तो जैसे तैसे अपनी सीट तक गया। जब देखा कि वहां कुछ भी नहीं बचा है, उसके बाद खयाल टूटना शुरू हुआ। धीरे धीरे उससे ध्यान हटा। हालांकि आज भी वह हार्ड डिस्क जब याद आती है तो अजीब सा लगता है। लगता है जैसे सिखा के गई हो कि पिछला सब हटा दिया जाए तो भी आगे की जिंदगी चलती रहती है। उस पर ज्यादा फरक नहीं पड़ता।

कुछ कुछ यूं ही

इस साल भी अच्छे अनुभवों के साथ कुछ ऐसे अनुभव मिले जिससे समझ आया कि सब उजला उजला नहीं होता। जिंदगी ब्लैक एंड वाइट है। बच्चों को पालते वक्त आप बस उन पर प्यार ही नहीं लुटा रहे होते, अलग अलग वजहों से झुंझलाहटों और चिड़चिड़ाहटों को भी जीते हैं। हमने ये भी जिया। कभी कभी लगा कि बहुत मुश्किल है अब यह सब बर्दाश्त करना, मगर हर बार यह कहकर एक दूसरे को तसल्ली दी कि पिछले जो साल निकले, उनसे तो लाख दर्जे सही है यह साल। इसलिए हाथी निकल गया, पूंछ भी निकलने दो।

यह साल बच्चों के तेजी से बढ़ने का साल था। वे पहले से ज्यादा साफ बोलने लगे थे। उनकी इच्छाएं इसी साल सबसे पहले सुनने को मिलीं। शिकायतों का उनका लहजा बताता था कि बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी है। अब एक दो नहीं, चार लोगों की इच्छा अनिच्छा देखकर चलना होगा। उनकी बेमौसम फलों की डिमांड हो या कार खरीदने की इच्छा, उनको समझाना बहुत मुश्किल था कि ऐसा क्यों नहीं कर सकते। हालांकि उनको रुपयों पैसों का कोई मोह अभी नहीं है, वे अब भी एक रुपये के लॉलिपॉप या पांच रुपये के लेज चिप्स के पैकेट से ज्यादा खुश होते हैं। हां, रोज नए कपड़े पहनने की जिद या अपनी रेलगाड़ी या अपनी कार खरीदने जैसी जिद कभी-कभी भारी पड़ जाती है।

खैर, शब्दाें में यादों को संजोना कठिन काम होता है। इसलिए इतना ही। अभी उसमें लगते हैं जिसे शायद अगले साल लिखें।




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