Wednesday, April 24, 2013

ओपड़ी गुडग़ुड़ दी

हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे के बारे में जब कभी कोई जिक्र आता है तो मन में अजीब सा मिश्रित सा भाव तैर जाता है। मेरा ख्याल है कि हमारे देश के (शायद पाकिस्तान के भी) युवा अक्सर इस मिश्रित भाव से रूबरू होते होंगे। (मैं तो ऐसा ही सोचता हूं, हो सकता है ये मेरी गलतफहमी हो)। अब तक कहानियों किताबों में ही उन हालात के बारे में सुना है, जब अपनी जीवन भर की पूंजी, जन्मभूमि और अपनी जगह से मिला अपनापन छोड़कर एक पार के लोग दूसरी पार गए थे। अब तक अमृता प्रीतम और कुछ और की रचनाओं से वह तकलीफ महसूस करने की कोशिश की थी, लेकिन आज सआदत हसन मंटो की कहानी, 'टोबा टेक सिंह' पढऩे का टाइम मिला। बहुत सुना था इसके बारे में। इसे पढ़कर कैसा लगा, यह मैं यहां लिखूंगा नहीं। सोचता हूं इस कहानी को पढ़वाकर आपको महसूस ही करवा दूं, तब शायद इसे ज्यादा ठीक अभिव्यक्ति मिले। और हां...एक रिक्वेस्ट : 20-25 मिनट की फुर्सत और पेशंश हो तो ही पढऩा शुरू करें, वरना फिर कभी सही।
पढऩे लिखने की जिन्हें ज्यादा आदत या शौक नहीं, वे शायद मंटो के बारे में ज्यादा नहीं जानते होंगे, इसलिए थोड़ा सा बता दूं कि यह बहुत बड़े कहानीकार, फिल्म लेखक हुए हैं। इनकी कहानियों को पाकिस्तान में बैन भी किया गया। मुकदमा तक चला। बताते हैं कि इससे मंटो इतने आहत थे कि उनका दिमागी संतुलन तक बिगड़ गया था। भारत पाकिस्तान के बंटवारे को मंटो ने बहुत नजदीक से देखा था। बॉलिवुड में कई फिल्में लिखने के बाद उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया था। 1955 में उनकी मौत हो गई थी। उनकी कहानियां बवाल मचा दिया करती थीं। वाकई उनकी कलम में आग थी। यह कहानी मैंने http://gadyakosh.org/gk पर पढ़ी। रमेश तिवारी जी ने कल मुझे इस साइट के बारे में बताया था। साइट गजब की है और पढऩे के शौकीनों को यह कहने में ताज्जुब नहीं लगेगा। यह साइट से साभार ले रहा हूं। बस, कुछ बेहद मुश्किल उर्दू शब्दों को आसान हिंदी शब्दों में बदला है, वह भी बस इस मंशा से कि पढऩे में आसानी रहे। बाकी वर्ड टु वर्ड वही है।



टोबा टेक सिंह
बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि बाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाए।
मालूम नहीं यह बात माकूल थी या गैर-माकूल थी। बहरहाल, सरकारों के फैसले के मुताबिक इधर-उधर ऊँची सतह की कॉन्फ्रेंसें हुई और दिन आखिर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गयी। वो मुसलमान पागल जिनके सगे सम्बन्धी हिन्दुस्तान ही में थे वहीं रहने दिये गये थे। बाकी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूंकि करीब-करीब तमाम हिन्दु सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिन्दू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफाजत में सरहद पर पहुंचा दिये गये।
उधर का मालूम नहीं। लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चर्चाएं होने लगी। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज बाकायदगी से जमींदार पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा-
– मोल्हीसाब। ये पाकिस्तान क्या होता है ?
तो उसने बड़े गौरो-फिक्र के बाद जवाब दिया-
– हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।
ये जवाब सुनकर उसका दोस्त चुप हो गया।
इसी तरह एक और सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा
– सरदार जी हमें हिन्दुस्तान क्यों भेजा जा रहा है - हमें तो वहां की बोली नहीं आती।
दूसरा मुस्कराया-
– मुझे तो हिन्दुस्तान की बोली आती है - हिन्दुस्तानी बड़े शैतानी आकड़-आकड़ फिरते हैं।
एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' का नारा इस जोर से बुलन्द किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया।
बाज पागल ऐसे थे जो पागल नहीं थे। उनमें प्रवृति ऐसे कातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे-दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जायें। ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान को क्या नसीब हुआ और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन असलियत से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उनकी गुफ्तगू (बातचीत) से भी वो कोई नतीजा हासिल नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे आज़म कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है। यह कहां है? इसका स्थल क्या है, इसके बारे में वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागलखाने में वो सब पागल जिनका दिमाग पूरी तरह खराब नहीं हुआ था, इस असमंजस में थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में। अगर हिन्दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है। अगर वो पाकिस्तान में है तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अरसा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान, और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ्तार हुआ कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठ कर दो घंटे दलीलें देता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के नाजुक मसले पर था। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया। डराया, धमकाया गया तो उसने कहा-
– मैं न हिन्दुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में। मैं इस दरख्त पर ही रहूंगा।
एक एम.एससी. पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग की एक खास क्यारी पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर जेलकर्मी के हवाले कर दिये और नंगधंडंग़ सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।
यन्यूट के एक मौटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक कार्यकर्ता था और दिन में पन्द्रह-सोलह बार नहाता था, एकदम यह आदत छोड़ दी। उसका नाम मुहम्मद अली था। और तो और, उसने एक दिन अपने जंगले में ऐलान कर दिया कि वह कायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखादेखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जंगले में खून-खराबा हो जाय, मगर दोनों को खतरनाक पागल करार देकर अलग-अलग बंद कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिन्दू वकील था जो मुहब्बत में फेल होकर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। इसी शहर की एक हिन्दू लड़की से उसे मुहब्बत हो गयी थी। गो उसने इस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल मिलाकर हिन्दुस्तान के दो टुकड़े कर दिये। उसकी महबूबा हिन्दुस्तानी बन गयी और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे, उसको हिन्दुस्तान वापस भेज दिया जायेगा। उस हिन्दुस्तान में जहां उसकी महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोडऩा नहीं चाहता था। इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी।
यूरोपियन वार्ड में दो एंग्लो-इण्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान को आजाद करके अंग्रेज चले गये हैं तो उनको बहुत रंज हुआ। वह छुप-छुप कर इस मसअले पर गुफ्तगू करते रहते कि पागलखने में उनकी हैसियत क्या होगी। यूरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ जाएगा। ब्रेकफास्ट मिलेगा या नहीं। क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इण्डियन चपाती तो नहीं खानी पड़ेगी?
एक सिख था जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक्त उसकी जबान पर अजीबोगरीब अल्फाज सुनने में आते थे, 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी बाल आफ दी लालटेन।' वो न दिन में सोता था न रात में। पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह बरस के लंबे अर्से में एक एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। अलबत्ता किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।
हर वक्त खड़ा रहने से उसके पांव सूज गये थे। पिंडलियां भी फूल गयीं थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के बारे में जब कभी पागलखाने में गुफ्तगू होती थी तो वह गौर से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या खयाल है तो बड़ी संजीदगी से जवाब देता, 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।'
लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह गवर्नमेंट ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है जहां का वो रहने वाला है। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि वो पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में। जो यह बताने की कोशिश करते थे वो खुद इस उलझाव में गिरफ्तार हो जाते थे कि स्याल कोटा पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिन्दुस्तान में चला जाएगा या सारा हिन्दुस्तान हीं पाकिस्तान बन जायेगा। और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब नहीं हो जायेंगे।
उस सिख पागल के केस छिदरे होके बहुत कम रह गए थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और बाल आपस में जम गये थे जिनके कारण उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गयी थी। मगर आदमी किसी को नुकसान पहुंचाने वाला नहीं था। पन्द्रह बरसों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाजिम थे वो उसके बारे में इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांधकर लाये और पागलखाने में दाखिल करा गये।
महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी खैर-खैरियत पता करके चले जाते थे। एक अरसे तक ये सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान हिन्दुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बन्द हो गया।
उसका नाम बिशन सिंह था। मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसको ये मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने दिन बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उसके अजीज व सम्बन्धी उससे मिलने के लिए आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। मानो वो जेलकर्मी से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघा करता। अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज-बन कर मिलने वालों के पास आता। वो उससे कुछ पूछते तो वह खामोश रहता या कभी-कभार 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी वेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी लालटेन' कह देता। उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गयी थी। बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी आपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंख में आंसू बहते थे। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है। जब सन्तोषजनक जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब- दिन बढ़ती गयी। अब मुलाकात नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बन्द हो गयी थी जो उसे उनकी आमद की खबर दे दिया करती थी।
उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि वो लोग आयें जो उससे हमदर्दी का इजहार करते थे ओर उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वो उनसे अगर पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो यकीनन वो उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में, क्योंकि उसका ख्याल था कि वो टोबा टेकसिंह ही से आते हैं जहां उसकी जमीनें हैं।
पागलखाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में तो उसने आदत के अनुसार कहकहा लगाया और कहा
– वो न पाकिस्तान में है न हिन्दुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं लगाया।
बिशन सिंह ने इस खुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत से कहा कि वो हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वो बहुत बिजी था, इसलिए कि उसे ओर बेशुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ वाहे गुरूजी दा खलसा एन्ड वाहे गुरूजी की फतह। जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल।' उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमान के खुदा हो, सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान दोस्त मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हट गया और वापस आने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका - ये तुमसे मिलने आया है - तुम्हारा दोस्त फजलदीन है।
बिशन सिंह ने फजलदीन को देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा।
– मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फुर्सत ही न मिली। तुम्हारे सब आदमी खैरियत से चले गये थे मुझसे जितनी मदद हो सकी मैंने की। तुम्हारी बेटी रूप कौर...। वह कुछ कहते कहते रूक गया। बिशन सिंह कुछ याद करने लगा
– बेटी रूप कौर ।
फजलदीन ने रूक कर कहा-
– हां वह भी ठीक ठाक है। उनके साथ ही चली गयी थी।
बिशन सिंह खामोश रहा। फजलदीन ने कहना शुरू किया-
– उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी खैर-खैरियत पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो। भाई बलबीर सिंह और भाई बिधावा सिंह से सलाम कहना - और बहन अमृत कौर से भी। भाई बलबीर से कहना फजलदीन राजी-खुशी है। वो भूरी भैंसें जो वो छोड़ गये थे उनमें से एक ने कट्टा दिया है, दूसरी के कट्टी हुई थी पर वो छ: दिन की हो के मर गयी और और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना, मैं। हर वक्त तैयार हूं और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरून्डे (गजक जैसे) लाया हूं।
बिशन सिंह ने मरून्डे की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलदीन से पूछा- टोबा टेकसिंह कहां है?
– टोबा टेकसिंह... उसने कद्रे हैरत से कहा - कहां है! वहीं है, जहां था।
बिशन सिंह ने पूछा - पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में?
– हिन्दुस्तान में...। नहीं-नहीं पाकिस्तान में...।
फजलदीन बौखला-सा गया। बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया - 'ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी हए फिटे मुंह।'
तबादले की तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की सूचियां पहुंच गयी थीं, तबादले का दिन भी तय हो गया था। सख्त सर्दियां थीं। जब लाहौर के पागलखाने से हिन्दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के दस्ते के साथ् रवाना हुई तो संबंधित अफसर भी साथ थे। वाहगा के बार्डर पर दोनों तरफ से सुपरिटेंडेंट एक दूसरे से मिले और कागजी कार्रवाई खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रजामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे उनको कपड़े पहनाये जाते, तो वो फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते। क़ोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है। आपस में लड़-झगड़ रहे हैं, रो रहे हैं, बक रहे हैं। कान पड़ी आवाज सुनायी नही देती थी। पागल औरतों का शेरोगोगा अलग था और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत बज रहे थे।
पागलों की प्रवृति इस तबादले के हक में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है। चंद जो कुछ सोच रहे थे, 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे। दो-तीन बार फसाद होते-होते बचा, क्योंकि बाज मुसलमान और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया।
जब बिशन सिंह की बारी आयी और वाहगा के उस पार संबंधित अफसर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा - टोबा टेकसिंह कहां है? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में? -अफसर हंसा - पाकिस्तान में।
यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने बाकी मांदा साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे। मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया, और जोर-जोर से चिल्लाने लगा - टोबा टेकसिंह कहां है- ओपड़ी गुडग़ुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी टोबा टेकसिंह एन्ड पाकिस्तान।'
उसे बहुत समझाया गया कि देखो अब टोबा टेकसिंह हिन्दुस्तान में चला गया है। अगर नहीं गया तो उसे फौरन वहां भेज दिया जाएगा। मगर वो न माना। जब उसको जबरदस्ती दूसरी तरफ ले जाने की कोशिश की गयी तो वह बीच में एक जगह इस अन्दाज में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे वहां से कोई ताकत नहीं हटा सकेगी।
आदमी चूंकि किसी को नुकसान पहुंचाने वाला नहीं था इसलिए उससे जबरदस्ती न की गयी। उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और बाकी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले शान्त बिशन सिंह के हलक से आसमान को फाड़ देने वाली चीख निकली - इधर-उधर से कई अफसर दौड़ आये और देखा कि वो आदमी जो पन्द्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा, औंधे मुंह लेटा था। उधर खारदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था - इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में जमीन के इस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था।



फोटो - साभार गूगल

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