उतार-चढ़ाव और धूप-छांव से भरी ज़िदगी में कभी-कभी ऐसे पलों से सामना हो जाता है, जिनके बीतने का इंतज़ार पहाड़ से भी भारी लगने लगता है। कुछ लम्हे अपने पांव पर पत्थर बांध कर आते हैं। इनके बोझ से हमारे कंधे झुक जाते हैं। इनकी सख्ती से हमारा अंतर्मन छिल जाता है। इनका रुके रहना हर पल सताता है। हर घड़ी इनका आकार पहले से ज्यादा बड़ा नज़र आता है। आदरणीय हरभगवान चावला की लिखीं कुछ पंक्तियां इस दर्द की जो तस्वीर पेश करती हैं, वह दस साल से मेरे जेहन में चस्पां है। जितने आसान शब्दों में उन्होंने अपनी बात कही, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल लगता है उन पलों को जी पाना। उनकी ये पंक्तियां आपकी नज़र कर रहा हूं। शायद आप इस अहसास से पहले से वाकिफ होंगे।
मैं चाकू से पहाड़ काटता रहा
मैं अंजुरियों से समुद्र नापता रहा
मैं कंधों पर ढोता रहा आसमान
मैं हथेलियों से ठेलता रहा रेगिस्तान
यूं बीते
ये दिन
तुम बिन।
3 comments:
मैं चाकू से पहाड़ काटता रहा
मैं अंजुरियों से समुद्र नापता रहा
मैं कंधों पर ढोता रहा आसमान
मैं हथेलियों से ठेलता रहा रेगिस्तान
यूं बीते
ये दिन
तुम बिन।
बहुत सुन्दर..........
मैं चाकू से पहाड़ काटता रहा
मैं अंजुरियों से समुद्र नापता रहा
मैं कंधों पर ढोता रहा आसमान
मैं हथेलियों से ठेलता रहा रेगिस्तान
यूं बीते
ये दिन
तुम बिन।
बहुत सुन्दर..........
कहना तो बहुत कुछ चाहती हूं मगर शब्द नहीं मिल रहे, शायद कम पड रहे हैं......
nice
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