ज़िंदगी क्या है? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब न जाने किस-किस अंदाज़ में दिया गया है, दिया जाता है। कोई इसे पहेली कहता है तो कई खूबसूरत सफ़र। कोई साइंस की भाषा में जवाब देता है तो किसी का अंदाज़ आध्यात्मिक होता है। किसी को यह ईश्वर का वरदान लगती है तो किसी को दुखों का पिटारा। दरअसल, जिसके जैसे अनुभव होते हैं, ज़िंदगी को देखने का उसका नज़रिया भी वैसा ही होता है। मुझे करीब 11 साल पहले आदरणीय हरभगवान चावला से ज़िंदगी का जो फलसफा सुनने को मिला, उस पर सोचने के बाद कोई वजह नज़र नहीं आई कि उनकी इन पंक्तियों से कोई असहमति जता सकूं। सबसे बड़ी बात तो यह लगी कि सदियों की कहानी को उन्होंने कुछ ही शब्दों में कह दिया था। दो टुकड़े, एक दूसरे से जुड़े हुए, लेकिन दोनों का सफ़र एकदम जुदा। बहुत संभव है कि ज़िंदगी आगे ऐसे अनुभव दे दे कि वह इन शब्दों से भटकी हुई लगे, लेकिन फिलहाल घूम-फिरकर यही फलसफा सामने आ जाता है। आप भी पढ़िए और सोचिए क्या यही नहीं है ज़िंदगी। चावला जी की इन पंक्तियों को एक बार फिर गिरीश ने अपने कैनवास पर उकेरा है। दोनों के हार्दिक आभार के साथ इसे आपके सामने रख रहा हूं।
रफ़्ता-रफ़्ता आंखों में बसती है इक नदी
फिर
कतरा-कतरा
आंखों से
रिसती है
उम्रभर।
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