आना जाना जीवन का दस्तूर है। अक्सर रिश्तों का भी। पाने और पाकर खोने के अहसास से शायद ही कोई बचा हो। यही शाश्वत सत्य है, और इसे कोई टाल नहीं सकता। लेकिन यह जानते हुए भी अक्सर इसे नकार देने का मन करता है। एक दबी दबी सी गूंज मन में भटकती रहती है... उसे जाना था तो फिर आया क्यों? उसे खोना था तो पाया क्यों? उसका साथ कुछ और देर नहीं ठहर सकता था क्या? कुछ और दूर वह साथ नहीं चल सकता था क्या?
बिखरना ही होता है तो क्यों सिमट जाते हैं कुछ पल। हमारे भीतर। और फिर ठहरे रहते हैं कुछ लम्हे, बिखर जाने के बहुत देर बात तक। सरासर असंभव दिखता है पर फिर भी लगता रहता है कि शायद कहीं फिर से सिमट जाएं वे बिखरे हुए पल। नहीं सिमटते। सिमटना नहीं होता उन्हें, क्योंकि बिखरना उनकी नियती है। नियती है तो फिर अफसोस क्यों? जितने दिन साथ रहे, उन पलों को क्यों न जी भर जिएं। क्योंकि वे चले भी गए तो क्या... कुछ और पल हैं जो आने के इंतजार में हैं.... उन्हें जाने दीजिए.... उन्हें आने दीजिए। कूहू की इस कविता की तरह... जो कल से घूम रही है मेरे जेहन में... जिसे ब्लॉग पर उतारने को उतावला हूं मै.... थैंक्स कूहू....
जिस वक्त सुबह ने आंखें खोलीं
घरों की मुंडेरों ने बताया... कुछ देर पहले बारिश हुई थी
किसी पत्ते पर ठहरी थी खूबसूरत बूंद
इंद्रधनुष की गोलाई लिए....धीरे से आगे बढ़ी
पत्ता हिला था हल्का सा... या उसका दिल धड़का था?
बूंद बही अपनी निशानी छोड़कर,
आखिरी सिरे पर जा टिकी...
फिर कहां रुकने वाली थी वो चंचल बूंद
पत्ता झुककर देखता रहा धरती की ओर...
मिट्टी में उसको मिलते हुए
पत्ते और भी थे शाख पर, सब चुप रहे
ये खेल देखकर हवा भी देर तक थमी रही
बारिश के बाद यही होता है अक्सर
ये जीवन का चक्र कहां रुकता है
हवा का नर्म झौंका है...
पत्ते ने मुस्कुराकर आसमान को देखा
सावन है...बारिश फिर होगी...
-कुहू
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