अक्सर हम अपने व्यवहार को लेकर दूसरों से शिकायतें सुनते हैं। दूसरों के व्यवहार से हमें भी बहुत शिकायतें रहती हैं। कई बार हमें लगता है कि हमसे जो शिकायतें दूसरों को होती हैं, वे नाजायज होती हैं, ठीक नहीं होतीं। इसी तरह कई बार जिनसे हम शिकायत कर रहे होते हैं, वे भी हमसे कहते हैं कि हम गलत समझ रहे हैं। ऐसे में यह असमंजस होना लाजमी है कि आखिर सही व्यवहार किसे कहा जाए। व्यवहार कुशलता की जो कसौटियां बनाई गई हैं, कैसे हम उन पर खरा उतर सकते हैं या कैसे उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए हम दूसरों को कोई सलाह दे सकते हैं। मुझे लगता है कि न तो कभी ऐसा हो सकता है कि हमारे व्यवहार को लेकर कोई हमसे शिकायत न करे, और न ही ऐसा हो सकता है कि हमें हमेशा दूसरों का व्यवहार पसंद आए। बस, यह हो सकता है कि हम अगर व्यवहार बनने और उसमें ढलने की प्रक्रिया को समझ लें, सीख लें तो काफी हद तक हमारी शिकायतें कम हो सकती हैं। 25 जून 2007 को मैंने दैनिक भास्कर में जयप्रकाश चौकसे का एक लेख पढ़ा था। उन्होंने बेहद सटीक अंदाज़ में इस पहलू पर प्रकाश डाला था। अगर मैं ज्यादा नहीं भूल रहा तो शायद यह लेख उन्होंने सलमान खान के विषय में लिखा था। हो सकता है ऐसा न भी हो, लेकिन यह सही है कि इसमें जो कुछ कहा गया, वह हम सबके लिए गौर करने लायक है। साभार यह लेख आपके लिए ब्लॉग पर डाल रहा हूं।
दूसरों से हम एक ख़ास किस्म के सदाचरण की उम्मीद रखते हैं, लेकिन जब वह हमारी अवधारणा के विपरीत कुछ करता है, तो हम उसे बुरा या सनकी मान लेते हैं। यह सोच दोषपूर्ण और एकपक्षीय है। आखिर कोई व्यक्ति कब तक अपने बारे में बनाई गई दूसरों परिभाषा को जबरन जीता रहे, ढोता रहे। भीतर जैसा है, वैसा ही उजागर होने की इच्छा को असाधारण या सनक मान लेना भी दोषपूर्ण है। सभी सनकी सच्चे या सफल सिद्ध नहीं होते, लेकिन ऐसा कोई जीनियस भी नहीं हुआ है, जिसे पहले सनकी न समझा गया हो। सदियों तक धरती को सपाट मानने वाले लोगों ने धरती को गोल बताने वाले को सनकी समझा। कुछ लोग ज़िंदगी को खंडित आइने में देखकर टूटी हुई छवि को पूरा सच मान लेते हैं। उन्हें अपनी समझ पर इतना यकीन होता है कि उनकी पूरी ज़िंदगी ही नासमझी में बीत जाती है। जब हम तथाकथित स्वयंसिद्ध अवधारणा के खिलाफ कोई विचार सुनते हैं, तो हमारी अन्तर्निहित असुरक्षा का भाव हमें उसकी ओर आक्रामक बना देता है। यह वैचारिक हिंसा दूसरे से ज्यादा खु़द के लिए घातक सिद्ध होती है। इसकी वजह बुद्धि का लचीला होना है, न कि पत्थर की तरह सख्त या अपरिवर्तनीय। दरअसल, समझदार और सनकी होने के बीच की रेखा अत्यंत क्षीण है। संयत बने रहने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है। मनुष्य का मूल्यांकन अच्छाई-बुराई से ज्यादा उसकी छवि से होता है। इसके निर्माण में दुनियादारी के साथ अन्य लोगों की आंकलन क्षमता भी जुड़ी होती है। अपनी स्वतंत्रता की रक्षा आप दूसरों की स्वतंत्रता के प्रति सम्मान दिखाकर ही कर सकते हैं।
1 comment:
सही है ना...
जो मन खोजा आपना मुझसे बुरा ना कोय.
Post a Comment