जेहन में नाराज़गी लिए जीना और फिर भी खुद को ना बदलने की जिद पाले रखना दो ऐसी स्थितियां हैं, जिन्हें सोचने भर से दिल में ऐसे शख्स के लिए सहानुभूति पैदा होने लगती है। हो सकता है किसी के दिल में उसके लिए गुस्सा या क्षोभ भी पैदा हो, लेकिन यह तय है कि ऐसे हालात बेहद विचित्र होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि अपने आप से नाराज़गी और फिर भी खुद को न बदलने की जिद, दोनों ही विरोधाभासी बातें हैं। विडंबनाएं हैं। खुद को ना बदलना किसी और के लिए अडिय़लपना हो सकता है, लेकिन ऐसा सोचते वक्त इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि ये अहसास हालात से उपजते हैं और हालात शर्तों पर नहीं बदला करते। वे तो बस बदल जाते हैं। किसी भी वक्त। ऐसे दौर में भी किसी और के लिए दुआ करना, जरूरी नहीं कि बेबसी हो। दुआएं सिर्फ बेबसी से नहीं निकलतीं... निदा फाज़ली की इस गज़ल को पढ़कर आपको भी शायद ऐसा ही लगे :
बदला ना अपने आप को, जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से, मगर अजनबी रहे
दुनिया ना जीत पाओ तो हारो ना खुद को भी
थोड़ी बहुत तो जेहन में नाराज़गी रहे
अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे
गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल, वो डाली हरी रहे
फोटो-मुकेश मंडल
1 comment:
very nice fact but hard to accept...
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