चांद, लहरें, कहानी, नाता, परवरिश, रिश्ते, सिंचाई, पौधा, ग़म, बरस, आजमाइश, बेटा, सबक, बेईमानी, बादल, मरुस्थल, ख़ुदा, मां-बाप। ज़िंदगी इन सब शब्दों से परे क्या होती होगी भला? और देखिए, एक-दूसरे से कितने ख़फा-ख़फा से हैं ये सारे शब्द। कितने जुदा-जुदा हैं, फिर भी एक-दूसरे के बिना शायद कोई वज़ूद नहीं इनका। कितनी उलझन है ना इन्हें समझने में। सबको एक साथ सोचें तो घबराहट सी होने लगती है जेहन में। अज़ीब से जलजले का आभास होने लगता है। फिर भी, यही सब सोचते हुए ज़िंदगी बीतती है। यही सब जीते हुए दिन गुजरता है और इन्हीं को नज़रअंदाज़ करते-करते रात उजली हो जाती है। इन्हीं में सुकून भी है, इन्हीं में तड़प भी। किसे क्या मिलेगा, यह इस पर निर्भर है कि इनमें से किसे वह ज्यादा जीता है और किसे कम। सच में, एक-साथ होकर भी ये ख़ूबसूरत हो सकते हैं। लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की यह ग़ज़ल जब पढ़ी थी, तो ऐसा ही कुछ लगा था। हर पंक्ति में नया आभास, नया अहसास। हर शे’र मुकम्मल कहानी। आप भी पढि़ए कई कहानियों से बनी इस एक कहानी को। वाजपेयी जी का आभार जताते हुए इसे अपने ब्लॉग का हिस्सा बना रहा हूं।
न जाने चांद पूनम का ये क्या जादू चलाता है
कि पागल हो रही लहरें, समुंदर कसमसाता है
हमारी हर कहानी में तुम्हारा नाम आता है
ये सबको कैसे समझाएं कि तुमसे कैसा नाता है
जरा सी परवरिश भी चाहिए हर एक रिश्ते को
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है
ये मेरे ग़म के बीच में किस्सा है बरसों से
मैं उसको आजमाता हूं, वो मुझको आजमाता है
जिसे चींटी से लेकर चांद सूरज सब सिखाया था
वही बेटा बड़ा होकर सबक मुझको सिखाता है
नहीं है बेईमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है
मरुस्थल छोड़कर जाने कहां पानी गिराता है
ख़ुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यूं मिटाता है, मिटाकर क्यूं बनाता है
वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने को
पता मां-बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है।
5 comments:
very nice
सारे शेर एक से बढ़कर एक हैं ! क्या खूब गज़ल पढ़वायी है आपने !
आभार ।
very touching...
अद्भुद गजल है.... मै तो फैन हो गया... दुबारा आता हूँ आपके ब्लॉग पर... शुक्रिया
मोंटी, हिमांशु, नीरज और पद़म सिंह, ब्लॉग पर आने और इसे पसंद करने के लिए धन्यवाद
Post a Comment