गुलाब की कली को फूल बनते आपने भी देखा होगा। फिर उसे खू़ब खिलते हुए भी देखा होगा। क्या कभी गौर किया कि जब वह सबसे ज्यादा खिला हुआ होता है, तब उसकी पंखुड़ियां सबसे ज्यादा नाज़ुक होती हैं। कई बार तो हाथ लगाते ही झड़ जाती हैं। कई बार अपने आप भी। कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं। मेरे सबसे पसंदीदा शायरों में से एक निदा फाज़ली की एक नज़्म है जिसमें उन्होंने इस बात को बेहद खूबसूरत और सटीक अंदाज़ में कहा है। जब पहली बार यह नज़्म पढ़ी थी, तो इससे इतना जुड़ाव हो गया कि कई साल से यह मेरे मोबाइल में सेव है। आसान भाषा और साफगोई से जटिल से जटिल, गहरी से गहरी बात साफ-साफ कहने का निदा का स्टाइल मुझे उनका कायल कर गया। उन्हें जितना पढ़ा, उतना ही यह खिंचाव बढ़ता चला गया। शायद इसलिए लग भी रहा है कि आगे भी उनकी रचनाओं को ब्लॉग पर डालने से ख़ुद को नहीं रोक सकूंगा। फिलहाल यह नज़्म आपकी नज़र कर रहा हूं। मुझे लगता है यह जीवन की वह सचाई है जिसे देखते और महसूस तो आप भी करते होंगे, लेकिन इस तरह से कह नहीं पाते होंगे।
यूं तो हर रिश्ते का अंजाम यही होता है
फूल खिलता है
महकता है
बिखर जाता है।
तुमसे वैसे तो नहीं कोई शिकायत
लेकिन,
शाख़ हो सब्ज़
तो नाज़ुक फ़िज़ां होती है,
तुमने बेकार ही मौसम को सताया वरना,
फूल जब खिल के बहक जाता है,
ख़ुद-ब-ख़ुद शाख़ से गिर जाता है।
4 comments:
बहुत सच... कहीं सुना था, हर रिश्ते की एक उम्र होती है। इन पंक्तियों से जोड़ते हुए यही कि हर फूल के खिलते रहने की भी एक उम्र होती है और वजह भी, जब दोनों ही खत्म हो जाते हैं तो...खुद ब खुद शाख से गिर जाता है...
आगे भी तुमसे ऐसी ही सुंदर रचनाएं पढ़ने को मिलेंगी, उम्मीद है।
BAHUT SUNDAR!
इस नज़्म को बहुत दिनों से खोज रहा हूँ... ओशो की एक प्रवचन मे सुना था... आज पता चला यह निदा फाजली जी की नज़्म है। लेकिन मै आपको बताना चाहता हूँ इस नज़्म की एक लाइन शायद आपसे छूट गयी है मै उसे ठीक लिखने की कोशिश करता हूँ...
ये लाइनें मेरे पूरे जीवन की सबसे पसंदीदा लाइनों मे से एक हैं...
यूं तो हर रिश्ते का अंजाम यही होता है
फूल खिलता है
महकता है
बिखर जाता है।
तुमसे वैसे तो नहीं कोई शिकायत
लेकिन,
शाख़ हो सब्ज़
तो हस्सास फ़िज़ां होती है,
हर कली जख्म की सूरत ही ज़ुदा होती है
तुमने बेकार ही मौसम को सताया वरना,
फूल जब खिल के बहक जाता है,
ख़ुद-ब-ख़ुद शाख़ से गिर जाता है।
@ पदृम, अच्छा लगा आपने इस रचना पर अपनी फीलिंग्स शेयर कीं। और आपने जो लाइन एड की उसके लिए भी शुक्रिया। मैं बताना चाहूंगा कि यह नज्म मैंने ,सफर में धूप तो होगी, नाम की बुक से लीं थीं। इसे शीन काफ़ निज़ाम ओर नंदकिशोर आचार्य ने संयुक्त रूप से संपादित किया है। वाग्देवी पॉकेट बुक्स ने इसे छापा है। उसमें इस लाइन का ज़िक्र नहीं है। लेकिन फिर भी आपने जिस लाइन को इस नज़्म के छूट गये हिस्से के तौर पर यहां एड किया है, उसके लिए आपका आभार।
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