कोई तीन या चार साल पहले दैनिक भास्कर अखबार के रसरंग में सुशील कुमार 'शीलू' के नाम से छपी एक कविता पढी थी। बेहतरीन लगी। कई प्रभावशाली कविताएं पढ़ी हैं, लेकिन इससे हर बार अजीब सा खिंचाव महसूस होता है। जिस गुब्बारे का इसमें ज़िक्र है, वैसे गुब्बारे शायद आप भी कहीं न कहीं कभी न कभी जरूर देखते होंगे। आप भी ऐसे गुब्बारों से मिले होंगे या जानते होंगे। कैसे गुब्बारे? इस कविता को पढ़ लीजिए, उम्मीद है जरूर याद आ जाएंगे।
छत के पंखे से लटके गुब्बारे में
रंग बिरंगी कतरने भरकर
कभी होठों से लगाया था किसी ने
हवा भरने के लिए
और वह बेवकूफ फूलकर कुप्पा हो गया
जन्मोत्सव की शाम
फोड़ दिया गया उसे सरेआम
और उसकी मर्मांतक चीख
दब गई लोगों के हर्षनाद में
आज भी उस गुब्बारे की लाश
पंखे से लटकी
घूम रही है
दिन-रात ।
3 comments:
सुशील कुमार 'शीलू' की यह कविता पढ़वाने के लिए शुक्रिया आपका। एक भाव में, दीवार में लगी एक कील में, एक सुराख में घुस कर कैसे संवेदनाएं तलाश ले जाते हैं शीलू जी जैसे लोग! वाकई टचिंग कविता।
बहुत मार्मिक कविता है ........ अपने आप में तमाम तरह की फीलिंग्स को समेटे हुए ........ शायद हर पढने वाले के लिए अलग अलग ............
nice but depressing..
Post a Comment