Saturday, January 12, 2019
जब पांच साल के हो जाएंगे तो...
चौथे साल की पोस्ट लिखते वक्त कहा था कि उस साल यह फर्क दिखने लग गया था कि अब यादें उतनी कठोरता से जेहन में नहीं लौटतीं, जितनी शुरू के तीन साल पहले लौटती थीं। पांचवां साल भी कुछकुछ ऐसा ही था। पोस्ट के बारे में इस साल दो तीन बार तो यही खयाल आया कि इस बार लिखूंगा क्या। हालांकि लिखने बैठता हूं तो लगता है कि वक्त बदलता रहता है। बाकी तो जिंदगी अपनी थीम पर ही चलती है। थोड़े थोड़े सुख, थोड़े थोड़े दुख, कुछ स्वादिष्ट अनुभव तो कुछ कसैले किस्से। यानी घालमेल। हर चीज को अलग अलग करना उतना ही मुश्किल है जितना राई-सरसों और जीरे-सौंफ के दानों को अलग अलग करना। पर कोशिश करूंगा इस साल को भी एक पोस्ट में समेटने की।
शुरुआत पिछले पोस्ट से। उस पोस्ट में भी जैसे तैसे मैक्स का जिक्र आ गया था। पर साल बीतते बीतते सोचा था अगली पोस्ट में कम से कम अस्पताल का जिक्र नहीं होगा। हालांकि पिछले पोस्ट लिखते वक्त ही तय हो गया कि मैक्स से पीछा छूटेगा नहीं क्योंकि तब पूजा के वहां जाने का सिलसिला शुरू हुआ था। तनाव की वजह से उनके सिर में भयंकर दर्द की शिकायत शुरू हुई थी जो माइग्रेन या सर्वाइकल जैसा लग रहा था। नजदीकी डॉक्टरों के समझ नहीं आया था। नजरें चेक करवाकर चश्मा भी लगवा दिया था पर यह नई बीमारी अब ज्यादा परेशान करने लगी थी। खैर, वहां जाना शुरू हुआ और अगले 3 महीने जैसे तैसे आराम मिलना शुरू हो गया। उसके बाद पूरा साल मैक्स से पीछा छूटा रहा।
दिसंबर जाते जाते मुझे निमोनिया हो गया और ऐसा कि शुरुआत में एंटीबायोटिक्स ने असर ही नहीं किया। एक महीने तक झंझावात चले और दो बार हॉस्टिपटल एडमिट होते होते टला। उस वक्त अजीब तरह की नेगेटिविटी दिखी जब खुद का खयाल रखने की चाहत बढ़ी। बच्चे होने के बाद ही मुझमें खुद को लेकर यह डर दिखना शुरू हुआ था वरना कभी परवाह नहीं की थी। खुद को बच्चों से दूर रखना चाहता था कि कहीं निमोनिया उनको न छू ले। पर बच्चे भरी पूरी झप्पियां डालकर अपना प्यार जताते थे। अजब कशमकश का टाइम था और तब ये खयाल अक्सर आते थे कि मुझे कुछ हो गया तो....। :) यहीं पता चलता है मोह का सही मतलब।
दिसंबर में हृदय हार्दिक का एनुअल फंक्शन था। यह सुनकर मन खुश हो गया कि अकेला हार्दिक परफॉर्म नहीं करेगा। इस बार हृदय को भी मंच पर आने का मौका मिलेगा। हार्दिक को अपनी क्लास को ग्रुप डांस में लीड करना था तो हृदय को रैंप वॉक करनी थी। हार्दिक की परफॉर्मेंस को लेकर मैं तो श्यौर था कि लड़का मस्त परफॉर्म करेगा। उसने किया भी। टयूबलाइट फिल्म के गाने खुशखबरी ऐसी मिली है, उछलने लगे हम हवा पर।
पर हृदय ने पूरे कॉन्फिडेंस के साथ जब रैंप वॉक किया और नीचे मुझे देखकर हाथ हिलाया, तो समझ आया कि बाप लोग क्यों ऐसे मौकों को अपनी लाइफ का सबसे यादगार मौका बताते हैं। यह वही हृदय था जिसकी ऑक्यूपेशनल थैरपी करवा करवाकर पैरों पर खड़ा होना सिखाया था। जिम बॉल पर कुदवा कुदवाकर बैलेंस बनाना सिखाया था और ओरो मोटर थैरपी से मुंह की लार को कंट्रोल करना सिखाया था। वह अब रैंप वॉक कर रहा था और वह भी मजे से। इस सुकून को सही से व्यक्त करना अभी आया नहीं मुझे।
चीजें नॉर्मल होती दिखने लगीं थी। मैंने सोचा कि जो 4 साल से नहीं कर सके, अब उसकी तरफ बढ़ना चाहिए। पहली बार दोनों बच्चों के साथ छोटे से ट्रिप पर घूमने जाने की शुरुआत की। ट्रेन से रेवाड़ी, फिर गाड़ी से हुड़िया जैतपुर। पूजा का पुश्तैनी गांव जहां के बारे में कहा जाता है कि महाभारत काल में जब भगवान कृष्ण ने बर्बरीक से उसका शीश मांगा था, तो शीश खाटू श्याम में स्थापित हुआ और धड़ जैतपुर में। बाबा श्याम के मंदिर से बच्चों की धार्मिक यात्राएं शुरू हुईं। संकट से निकलते दिखते हैं तो वक्त धन्यवाद का होता है। मंदिरों में जाकर उसकी शुरुआत हो रही थी। मेले में हृदय खिलौने देखकर जो बिदका था कि याद ही रहेगा। उसे सब चाहिए। और कुछ नहीं दिलाने पर कहता कि आप मेरे को प्यार नहीं करते। मुझे कुछ भी नहीं दिलाते।
मसूरी गए। वहां खूब इंजॉय किया सबने। हृदय ने वहां भी सुपरमैन लेने की जिद का जो रूप दिखाया वह डरावना था। खैर, दीदी बुआ के पास भी टूअर किया। साल जाते जाते घूकांवाली के गोरा गुरमुख बाबा के डेरे में भी हो आए। सालभर खूब शॉपिंग की। जो जो काम पिछले पांच साल में नहीं किए थे, वे सब किए।
खैर, अब वक्त और आगे बढ़ने का था। बच्चों को अब बड़े स्कूल में भेजने की तैयारी शुरू करनी थी। इसलिए तय किया कि तन्मय प्रांशु वाले स्कूल में भेजें। एक तो स्कूल का 7 साल से सही सुन रहा था और दूसरा गाड़ी में जाते वक्त तन्मय का साथ। दो तीन तरह के खयाल थे कि नजफगढ़ लौटने का प्लान फाइनल कर लिया। शादी नजफगढ़ में हुई थी और उसके 2 महीने बाद वहां से मैं आ गया था। यह 5-6 साल बाद हो रही वापसी थी। इस पूरी प्लानिंग के बीच कई कशमकश सामने आईं जाे कभी धर्मयुद्ध सा रूप धर लेती थीं तो कभी मन में खिन्नता पैदा करती थी। लेकिन यह तय हो चुका था कि खुद के लिए सोचना अब ऑप्शन नहीं था। बच्चों के लिए जो सही लग रहा था उसके बीच में मैं अपने अहम को आने नहीं देना चाहता था। नजफगढ़ में ऐसी जगह मकान मिल गया जहां से स्कूल की गाड़ी पास में ही छोड़ती थी।
इससे दो महीने पहले ही स्कूल में एडमिशन के लिए गए थे। दोनों के टेस्ट हुए। प्रिंसिपल के शब्द याद आते हैं, कॉन्गरेचुलेशन, मैंने आपके बच्चों का एडमिशन अप्रूव कर दिया है। साथ ही हृदय की स्पीच को लेकर कहा था कि मुझे कुछ गड़बड़ लग रही है। बच्चा साफ नहीं बोलता।
उस बात ने फिर से दिमाग खराब कर दिया था। मैंने चाइल्स बिहेवियर स्पेशलिस्ट से कंसल्ट किया तो उन्होंने कहा कि ज्यादा प्रॉब्लम लग नहीं रही, पर आप स्पीच थैरपिस्ट से एक बार कंसल्ट जरूर करिए। पहले वाले स्पीच थैरपिस्ट को ही फोन कर घर बुलाया। एक घंटे बाद उसने कहा कि ज्यादा प्रॉब्लम नहीं है। कुछ स्वरों में दिक्कत है, प्रैक्टिस करवाइए, हो जाएगा।
सुकून तो मिला लेकिन अंदर से मजा नहीं आ रहा था। वह आज भी कुछ शब्द साफ नहीं बोलता, पर हर कोई यही कहता है कि इतना सब बच्चों के साथ होता है, वक्त के साथ ठीक हो जाएगा। बाकी चीजें भी तो इंप्रूव हुई हैं। जैसे पहले गद्दे की ऊंचाई से भी नहीं कूद पाता था और अब 3 फीट से कूद लेता है। उसके अपने शौक हैं। अपनी भावनाएं। वह हार्दिक से खुद को कम नहीं अंकवाना चाहता। कभी हार्दिक का लाड लड़ा दो और उससे न कहो तो नाराज हो जाता है। रो पड़ता है। कार्टून करैक्टर पसंद हैं। हल्क, स्पाइडर मैन, ही मैन, आयरन मैन उसके फेवरिट हैं। हर मौके पर यही कहता है कि मुझे लाके दो। हार्दिक को डांट भी ज्यादा पड़ी है और पिटाई भी। हृदय को उसकी दिक्कत की वजह से थोड़ी छूट मिली है, लेकिन यही फर्क कई बार ग्लानि पैदा करता है। हार्दिक की तरफ से सोचकर।
नजफगढ़ आए कुछ ही दिन हुए थे कि एक रविवार जब मैं बाजार गया हुआ था, पता चला कि हृदय ने हार्दिक को धक्का दे दिया। उसका सिर फर्श की उसी कनोर से लगा जिससे दो साल पहले क्रिसमस के आसपास हृदय का पालम में लगा था। हार्दिक का सिर फट गया। खूनमखून। चाचा जी को कॉल किया तो पता चला वह बाहर गए हुए हैं। भाई को कॉल किया तो वह बच्चों को घुमाने लेकर जा रहा था। मैंने गीला गमछा उसके सिर पर बांधा और अकेले ही बाइक पर आगे बिठाकर अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने चार टांके लगाए। रास्ते में उसने नई टोपी खरीदी। अकेले जूस पीकर बहुत खुश हुआ। घर आकर दोनों ने प्रॉमिस किया कि फिर एक दूसरे को धक्का नहीं देंगे।
मसूरी जाने की प्लानिंग हुई तो हार्दिक को माता निकल आई। चिकनपॉक्स का वैक्सीन लग चुकने के बावजूद ऐसा हुआ, मैं डॉक्टर को कोस रहा था। कुछ दिन वह परेशान रहा। हम इसलिए ज्यादा परेशान रहे कि वह हृदय को गले लगाए बगैर नहीं मानता था। पर शुक्र है हृदय को कुछ नहीं हुआ। कुछ दिन में उसका चिकनपॉक्स ठीक हो गया। हम मसूरी जाकर लौट आए। कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन उनकी शरारत झेल करके पूजा जबरदस्त फ्रस्ट्रेट हो गईं और हाथ में आया स्टील का गिलास सोफे की तरफ फेंका। वहीं हार्दिक खड़ा था। गिलास गद्दी से टकराकर उछला और हार्दिक के होंठ चीर गया। मैं उस वक्त भी बाजार था। आया तो देखा कि दोनों होंठ कट गए हैं। अस्पताल पहुंचा तो डॉक्टर ने कहा यहां टांके नहीं लगाएंगे। वेट करना पड़ेगा। हो सकता है निशान न पड़े। लंबे अरसे में वह ठीक हुआ। अब भी जब यह पोस्ट लिख रहा हूं तो हृदय का होंठ एक हफ्ते में ठीक हुआ है। हार्दिक के धक्का देने से वह फ्रिज से टकरा गया था और अंदरसे पूरा होंठ कट गया था। ठीक होने के तुरंत बाद हार्दिक सिर के बल रसोई की स्लैब से गिर गया। शुक्र है एक दो दिन में उसके सिर और कमर का दर्द चला गया।
इस साल उनकी भावनाओं में आ रहे बदलाव और खुद की भावनाओं से चल रहे द्वंद्व भी साथ साथ चले। पांच साल के हो जाएंगे तो सब ठीक हो जाएगा, यही वह लाइन थी जो हर किसी से सुनने को मिलती थी। पर यह कोई पांच साल का सफर था नहीं। बच्चे बड़े होते हैं तो उनके व्यवहार में तरह तरह के बदलाव होते हैं। उसके ख्वाहिशों में बदलाव होते हैं, उनकी जरूरतों में बदलाव होते हैं। इन्हीं सब को समझने और निभाने की कोशिश हम दोनों का सफर बना रहा। खुद को भूलकर ही यह सफर जी सकते थे। लेकिन खुद को इग्नोर करना अपने आप में बड़ा खतरा होता है। हम भी मशीनें नहीं होते, इंसान होते हैं। आज बतौर बाप यह लिख रहा हूं, कभी बतौर बेटा यह समझ नहीं सका।
खैर, उनकी ख्वाहिशों को पूरा करने की बेस्ट कोशिश करना, उनको अच्छा इंसान बनाने की कोशिश करना और उनके हिस्से का प्यार उन्हें देने की कोशिश करना ही अब बाकी रहा है। हम दोनों अपने अपने स्तर पर उसे करने में लगे हैं। सही गलत में पड़े बगैर। बीज रोप रहे हैं, पौधे सींच रहे हैं... अपनी तरफ से जो सबसे सही लग रहा है, वह कर रहे हैं।
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