Friday, December 23, 2016

तीन साल : बच्चे दौड़ने लगे, हमने कुछ-कुछ खड़ा होना सीखा

हृदय हार्दिक तीन साल के हो गए। तीसरी बर्थ डे पोस्ट लिखना शुरू किया तो पिछले साल के बजाय शुरुआती दो साल पहले याद आए। फिर तीसरा साल। पिछली पोस्ट के अंत में लिखा था कि जन्मदिन के तीन दिन बाद फिर बच्चे नानी के पास चले गए। बुआ-मम्मी घर चली गईं। और मैं अपनी दिनचर्या में लग गया, इस उधेड़बुन के साथ कि बच्चों को फिर घर लाना है इसलिए कैसे कोई तरकीब करनी है।
तो यह उधेड़बुन चलती रही अगले दो महीने। सर्दी ज्यादा हो चुकी थी तो सोचा कुछ दिन बच्चों को वहीं रहने दूं, लेकिन जनवरी आते-आते हालात ऐसे बनने लगे कि एक टारगेट बनाना पड़ गया। दरअसल, पूजा के जेहन में यह ख़याल तेजी से आने लग गए कि वह बच्चों को मेरे साथ नहीं रख पा रहीं। इससे डिप्रेशन बढ़ना शुरू हो गया। मुझे पता था कि इस पिल्लर पर ही सब टिका हुआ है। इसलिए जरूरी था कि यह डिप्रेशन कम करूं। मैंने सोचा किसी तरह शुरुआत हफ्ते-दो हफ्ते से ही सही, बच्चों को घर लाकर अकेले ही संभालने की करनी चाहिए। टारगेट यह कि हर बार अपने पास रखने का टाइम डबल करूंगा। इससे धीरे धीरे प्रैक्टिस होने लगेगी।
तो जनवरी में बच्चे एक हफ्ते के लिए पालम आए। मैं ऑफिस से टाइम से निकल जाता। एक हफ्ते पूजा ने अकेले उनको संभाला। फिर डेढ़ महीने के लिए वापस चले गए। होली से पहले मार्च में फिर आए और इस बार 20 दिन रहे। एक हफ्ते भाई के घर और बाकी पालम। यह जो टाइम डबल हो रहा था, वही हौसला बढ़ा रहा था। 20 दिन से एक महीने, फिर दो महीने और फिर 3 महीने। और इस तरह बच्चों का नानी के घर रहने के दिन आधे होते चले गए। दो महीने से एक महीने, फिर 10 दिन, 7 दिन और फिर 2 दिन। प्रैक्टिस होती चली गई और अगले जन्म दिन तक का टारगेट अचीव कर लिया।

मुश्किलें
एक तरफ बच्चों को अकेले रखने की प्रैक्टिस चल रही थी, दूसरी तरफ कुछ मुश्किलें फिर आकर परीक्षा लेने में लग गईं। मार्च-अप्रैल में हृदय को नाक से खून आने लगा। मेरे भतीजे को यह प्रॉब्लम रही है, इसलिए मैंने इसे सीरियसली नहीं लिया। सोचा नकसीर है, गर्मी से आई होगी। लेकिन जब एक हफ्ते में दो बार और फिर एक ही दिन में दो बार नाक से खून आने लगा तो टेंशन बढ़ गई। डॉक्टर से बात की तो उन्होंने कहा कि कुछ दिन वेट कर लो और अगर फिर भी यह जारी रहे तो ईएनटी स्पेशलिस्ट को दिखाओ। जिस तरह की दिक्क्तें दो साल में देखी थीं, उसके बाद मैं डरपोक होने लग गया था। कुछ भी ऐसा वैसा हो तो उलटे खयाल ज्यादा आने लगते। हृदय की टेंशन तो दिमाग में थी ही, एक और तब आ टपकी। मेरे मुंह में जीभ पर ऐसा घाव हुआ कि कुछ दिन ठीक नहीं हुआ। आमतौर पर बीकासूल कैपसूल वगैरह से ऐसी चीजें ठीक हो जाती थीं। लेकिन जब यह दूसरे हफ्ते में पहुंचा तो डरे हुए मेरे दिमाग में खयाल आने लगे कि कहीं मुझे कैंसर तो नहीं। ऐसे खयाल बेफालतू के ज्यादा होते हैं, लेकिन मनोविज्ञान के जानकार कहते हैं कि जब दिमाग में खयाल आते हैं तो यह लगता नहीं कि यह बेफालतू हैं। तब तो खुद हम ऐसे तर्क गढ़ रहे होते हैं जो साबित करते हैं कि जरूर कोई बड़ी बीमारी ही होगी। वह भी तब जब मैं अक्सर पान मसाला चबा लिया करता था। (उस डर से फिर छोड़ दिया।) घर के पास ही स्कूल में कैंसर का फ्री चेकअप कैंप लगा तो वहां भी जाकर चेकअप करा आया। डॉक्टर ने बोला, अरे ऐसा कुछ नहीं है। मस्त रहो। उसके बाद वह घाव अपने आप भर गया। मैं उस डर से निकला भी नहीं था कि तीसरी टेंशन ने दिमाग में घर कर लिया।

बड़ी टेंशन
पूजा को छाती में दर्द रहने लगा। मैं हर जरा सी बात पर डर रहा था इसलिए डॉक्टर कुसुम के पास भेजा कि एक बार चेक करवा लो। डॉक्टर ने हमारी टेंशन दूर करने के लिए टेस्ट लिख दिए। एक टेस्ट बड़े अस्पताल में ही हो सकता था, इसलिए फिर मैक्स का रुख किया। वहां बताया कि इस टेस्ट को हमारे यहां का डॉक्टर लिखेगा तभी करेंगे। यानी वहीं फिर चेकअप करवाओ। पता किया कि किसे दिखाएं तो नाम आया ऑन्कॉलोजी डिपार्टमेंट की डायरेक्टर डॉक्टर मीनू वालिया का। उन्होंने चेकअप किया और कहा, गांठ है तो सही, पर अभी दवाई दे रही हूं। 15 दिन में फर्क नहीं पड़ा तो देखेंगे। साथ में अल्ट्रासाउंड लिख दिया। अल्ट्रासाउंड में कुछ ''ज्यादा गंभीर'' नहीं होने का इशारा था पर हमारा मन टिक सके, यह भी नहीं था। एक महीने बाद एक और अल्ट्रासाउंड करवाया गया। इस बार अल्ट्रासाउंड करने वाली डॉक्टर ने हौसला दिया कि सेम यही प्रॉब्लम उनको थी, इसलिए घबराओ नहीं। दवाई से ठीक हो जानी चाहिए। उन्होंने कहा, गांठ तो है पर मुझे आसार लग रहे हैं कि यह हार्मोनल गांठ है जो दवाई से चली जानी चाहिए। खैर दवाइयां खाने के बाद भी दर्द और गांठ नहीं गई तो डॉक्टर मीनू ने एक सर्जन डॉक्टर से ऑपिनियन लेने को कहा, जो उनके सामने वाले ही कमरे में थीं। डॉक्टर ने चेकअप के बाद कहा कि 15 दिन की दवाई और लो, फर्क पड़ना चाहिए। यूं करते करते 2 महीने हम इस टेंशन में जीए, लेकिन आखिरकार यह टेंशन दूर हो गई। कहने को ऐसा सबके साथ होता है, लेकिन मुझे अब भी लगता है कि सही से समझ वही पाता है जो झेलता है। इस बीच दिमाग में जो लड़ाइयां चलीं थीं, उनको लिख पाना आसान नहीं। पर यह पता चल गया कि डर आपको कई बार सचाइयों से वाबस्ता करवा देता है। आप जान जाते हैं कि आपके लिए जिंदगी में ज्यादा जरूरी क्या है।

एक डरावना सपना
मनोस्थितयों के कुरुक्षेत्र में से एक डर इसलिए शेयर कर रहा हूं क्योंकि वह बहुत अजीब था। उससे यह भी लगता है कि वहम कितने खतरनाक होते हैं। बेशक पता ही हो कि यह वहम है। इसके मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के बजाय सीधे बताता हूं। एक दिन ऑफिस से घर जाते वक्त पूजा से रोज की तरह बात करने के लिए फोन किया। इधर उधर की बात के बाद पूजा ने बताया कि एक बात बतानी है, अगर आप चिंता न करो तो। वह जब भी ऐसा कहती हैं, मैं चिंता करना शुरू कर देता हूं। मुझे बेसब्री हुई। जल्दी बताओ क्या बात है। बच्चों को कुछ प्रॉब्लम तो नहीं। पूजा ने बताया कि आज सुबह सपने में एक बाबा दिखे। फकीर से दिख रहे थे। बोले मेरे साथ चलो। मैंने बोला, बाबा अभी तो बच्चे साथ हैं। तो बाबा ने बोला, कोई बात नहीं। अभी मत चल। लेकिन तेरे जन्मदिन से पहले तुझे लेकर जाना है।
मैं झूठा ही हंसा। कहा अरे मैं तो चिंता नहीं कर रहा, आप चिंता मत करो। सपनों का कोई मतलब नहीं होता। फिर सपनों के बारे में सिग्मंड फ्रायड के तमाम निष्कर्षों का ज्ञान बटोरकर भी कुछ कुछ समझाना चाहा। लेकिन फोन रखने के बाद खुद जिस भंवर में फंसा वह अजीब ही था। तब जन्मदिन को यही कोई 8-9 महीने दूर थे। पर जब जब यह सपना आया, मेरी नींद उड़ी। मैंने मन ही मन पता नहीं क्या क्या सोचा, किया। जब पूजा को छाती में दर्द की वजह से मैक्स ले जाना पड़ा, तब रोज रात को उस सपने ने नींद उड़ाई। ना चाहकर भी ये खयाल नहीं निकलते थे। 8 नवंबर को नोटबंदी हुई। उसी दिन पूजा का जन्मदिन था। मैं इन दोनों से अलग इस बात के लिए खुश था कि जन्मदिन मना लिया है। अब कुछ नहीं होगा।

बच्चे बीमार
कई बार कोई सिचुएशन सुनने में साधारण लगती है, लेकिन हम दोनों की इस दौरान जो मनोस्थिति थी, उस लिहाज से हर छोटी समस्या बड़ी बन जाती थी। जैसे हृदय के नाक से खून आने वाली टेंशन दूर हुई, और हमारी शुरू। फिर हमारी खत्म होते ही बच्चों की शुरू हो गई। जुलाई के आखिरी हफ्ते में हृदय हार्दिक को वायरल ने पकड़ लिया। हार्दिक फिर भी खेल में लगा रहता था पर हृदय ढीला पड़ता जा रहा था। एक दिन वह इतना सुस्त हो गया कि मैं उसे लेकर डॉक्टर तपीशा गुप्ता के पास पहुंच गया। उन्होंने देखा कि डेंगू का टाइम चल रहा है, इसलिए इतने दिन तक बुखार न जाने को हलके में नहीं लेना चाहिए। एक बार तो हृदय को एडमिट करने के लिए ही बोल दिया। मैं यह सोच कर परेशान था कि अगर हृदय को एडमिट किया तो हार्दिक कैसे रहेगा। ढाई साल का यह शरारती बालक तो अपनी मां और भाई से एक घंटे भी कभी दूर नहीं रहा था। और बुखार तो उसे भी था। फिर उसे किसके हवाले छोड़ेंगे। फिर अपने से ही डॉक्टर को कहा कि एक दो दिन देख लेते हैं। तब डॉक्टर ने दोनों के सब तरह के टेस्ट लिख दिए गए। मैक्स ले जाकर दोनों का ब्लड और यूरिन सैंपल दिया। एक्सरे करवाया। बच्चे अपनी मम्मी के साथ नानी के घर रहे। पर दुआ काम आ गई और हृदय को एडमिट करने की नौबत नहीं आई। एक हफ्ते बाद उसे बुखार उतर गया। कुछ सुकून मिला। मगर डॉक्टर तपीशा ने कहा कि हृदय को न्यूरोलोजिस्ट को दिखाए काफी दिन हो गए है, इस बीच यह काम कर लो। डॉक्टर रेखा मित्तल से अपॉइंटमेंट लेकर मैक्स पहुंचा। चेकअप के बाद उन्होंने कहा कि बाकी सब ठीक लग रहा है, पर मुझे लगता है एक बार फिर हृदय को ऑक्यूपेशनल थैरपिस्ट को दिखा लेना चाहिए। वह मुंह से पानी काफी गिराता था और जरा सा कूदना भी नहीं सीखा था। मेरा माथा ठनक गया। यह आसान काम नहीं था कि बच्चों को लंबे वक्त तक उनकी नानी के पास रखूं और ऑक्यूपेशनल थैरपी करवाऊं। हम दोनों ने काफी सोचने के बाद तय किया कि यह दोनों प्रॉब्लम कुछ दिन में दूर हो सकती है, इसलिए वेट करते हैंं, नहीं तो अगली बार आएंगे तब दिखा लेंगे। मैं बच्चों को लेकर घर आ गया।

अभी कुछ ही दिन बीते थे। दिल्ली में डेंगू का असर खत्म हो गया था। अब चिकनगुनिया ने सिर उठा लिया था। मुझे भी तब बुखार था। पर अपने बुखार की कभी मैंने परवाह की नहीं थी। तभी एक दिन हृदय को फिर फीवर हो गया। हर बार की तरह मैंने दो तीन दिन वेट करने को कहा। लगा कि वायरल है। पर बुखार दो दिन लगातार चढ़ा और पहली बार 104 तक गया। मैंने जनकपुरी में डॉक्टर विकास वर्मा को फोन किया। उन्हाेंने तीसरे दिन भी वेट करने को कहा और बोले मेफ्टाल देनी बंद कर दो। तीसरे दिन शाम तक फीवर नहीं उतरा तो मैं हार्दिक को ऊपर किराए पर रहने वालीं भाभी के पास छोड़कर डॉक्टर वर्मा के क्लिनिक पर गया। उन्होंने बुखार की ही दवाई देते रहने को कहा और बोले पांच दिन बुखार न उतरे तो ये टेस्ट कराना। लेकिन लकिली घर आते ही हृदय खेलने लगा और उसे फिर बुखार नहीं चढ़ा। लेकिन पांचवें दिन वाइफ का फोन आया कि हृदय को चिकन पॉक्स हो गया। मैने पूछा आपको क्या पता तो बोली नीचे वाली आंटी बता रही हैं क्योंकि उसके शरीर पर दाने निकल आए हैं। मैंने ऑफिस से घर तक का सफर बामुश्किल तय किया। और हृदय को डॉक्टर यादव के पास लेकर गया। बहुत अनुभवी डॉक्टर यादव ने देखते ही कहा, यार कोई माता वाता नहीं निकली, इसको चिकनगुनिया हुआ है। मैं चिकनगुनिया का नाम सुनते ही घबराया। (इस साल दिल्ली में चिकनगुनिया कितने लोगों के लिए जानलेवा साबित हुआ, सबको पता है) पर डॉक्टर ने कहा घबराने की जरूरत नहीं, उतरते वक्त दाने निकलते हैं। ठीक हो जाएगा। ठीक हुआ भी, पर तीसरे दिन फिर बुखार हो गया। अब और घबराहट। फिर डॉक्टर के पास गए तो उन्होंने कहा, टाइफाइड हो सकता है, टेस्ट करवाओ। पहले तो सोचा कि मैक्स ही ले चलूं, फिर सोचा कि टेस्ट तो करवाऊं। टेस्ट का रिजल्ट अगले ही दिन आ गया। टाइफाइड नहीं था। और फिर बुखार भी उतर गया। सब नॉर्मल बाते हैं, पर एक अकेले दो बच्चों को संभाल रहीं उनकी मम्मी से पूछिए, ये 15 दिन उसने कैसे निकाले होंगे।
आज जब यह लिख रहा हूं, तो बता दूं कि हृदय की ऑक्यूपेशनल थैरपी फिर शुरू हो गई है। उसके जन्म दिन के अगले कुछ दिनों में यह सब दिक्कत शुरू हुई। और बहुत से टेस्ट हुए हैं। कल गिर जाने से सिर में लगी। तीन टांके आए हैं। एक और परीक्षा शुरू हो चुकी है। पर इस बारे में अगले साल लिखूंगा।

यूं बदली जिंदगी

@ यह साल कई ऐसी शुरुआतों का भी था, जिनको आने वाली पूरी जिंदगी की नींव कहते हैं। पूजा के लिए सबसे बड़ा चैलेंज था कि बच्चों को पूरा दिन अकेले संभालने में उनको एक मिनट भी अपने नहीं मिलता था। इसका कोई समाधान नहीं था, लेकिन मेरे दिमाग में एक ही तरीका था कि बच्चे ढाई साल के हो जाएं तो उनको प्ले स्कूल में डाला जाए। मुझसे ज्यादा पूजा को इस दिन का इंतजार था और 5 जुलाई आते आते यह दिन भी आ गया। गली में ही स्कूल है कंवल भारती। नजदीक होने के चलते उसे चुन लिया। स्कूल में दोनों का पहला दिन। मैं खूबसूरत से दो बैग लाया। बच्चे खुश थे। पर मुझे डर था कि कहीं रोएं न। मैं पूजा को बोलकर ऑफिस आया था कि बस आधे घंटे में ले आना। पर बच्चों ने पहला दिन इंजॉय किया। पूरा डेढ़ घंटा। और जब उनकी मम्मी लेने आई तो बोले, नहीं जाना घर। और भाग गए झूला झूलने। हालांकि इसके दो तीन दिन बाद हृदय ने थोड़ा रोना शुरू किया, पर कुछ कुछ दिन बाद सब ठीक होता गया। पूजा को भी दो-तीन घंटे का वक्त काम निपटाने के लिए मिलने लगा। उनकी जिंदगी में यह राहत डूबते को तिनके का सहारा जैसी थी।

@ इसी साल दोनों ने कुछ शब्द सीखे। बोलना बढ़ा। हार्दिक हालांकि थोड़ा साफ और तेज बोलता रहा और हृदय कम। पर बच्चों के मुंह से कुछ भी सुनना बेहतरीन होता है। खास तौर से जब कभी वह बिना कहे आपसे कोई ऐसी वैसी बात कह दे, तो लगता है इससे खूबसूरत पल दुनिया में हो ही नहीं सकता। बाप के तौर पर मेरा तो सीना यूं फूलता कि बोलना सीख जाएंगे तो दुख तकलीफ और इच्छा अनिच्छा कह कर बता पाएंगे। एक खयाल भी अक्सर आता था कि अब इनको बोलना सीखते देख इतना सुखद लगता है, फिर कभी ऐसा भी होता है जब मां बाप को औलाद के बोल ही दुख दे रहे होते हैं। पर ऐसे खयाल अनियंत्रित होते हैं। आते भी मर्जी से हैं और जाते भी।
@ हम सोचते थे कि ये थोड़ा बड़े हो जाएंगे तो समस्याएं कम होने लगेंगी। पर बच्चे शरारतें करने लगें तो समस्या बढ़ जाती है। खासकर जब दो एक उम्र के बच्चे हों। यही होने लगा। जो शरारत कुछ देर के लिए चेहरे पर मुस्कान लाती थी, वहीं दिन बीतते बीतते परेशानी पैदा कर देती। दोनों ने एक दूसरे के साथ खेलते कम, झगड़ते ज्यादा।
@ हार्दिक हर वह खिलौना छीन लेता जो हृदय के हाथ में होता। और हृदय तब तक रोना बंद नहीं करता जब तक खिलौना वापस न मिल जाए।
धीरे धीरे यह भी होने लगा कि हृदय हर उस खिलौने की जिद करने लगा जो हार्दिक के हाथ में होता। उलटा हम हार्दिक को कहते कि बेटा तू दे दे, तू समझदार है। हृदय बेशक बड़ा कहलाता है, पर हार्दिंक पहले समझने लगा।
दोनों की कुछ शरारतें डराती थीं। पूजा वॉशरूम जाती तो हार्दिक बाहर से कुंडी लगा देता। उधर, मेन गेट के अंदर से ताला लगा होता। तो डर यह रहता कि अगर वॉशरूम का दरवाजा खोल नहीं पाया तो क्या होगा। जैसे तैसे हार्दिक को दरवाजा खोलना सिखाया।
@ मेन गेट को तो ताला लगाकर रखना ही पड़ता था, नहीं तो दोनों कब गली में निकल जाएं, पता हीं न चले।
@ बालकनी के दरवाजे की कुंडी तक खोलने लगे। बालकनी की ग्रिल इतनी चौड़ी थी कि पूरा बालक जरा सी चूक पर नीचे जा गिरे। तब एक और चिटकनी दरवाजे पर लगाई।
@ कहीं घूमने नहीं जा सकते, पार्टी नहीं जा सकते, फोन पर बात नहीं कर सकते। फोन आते ही दोनों चिल्लाते थे कि पहले हम बात करेंगे। फ्रस्टेशन बढ़ने लगी, पूजा को सोने नहीं देते थे। यानी आपको जरा सा भी टाइम तब ही मिलेगा जब वे दोनों सो जाएंगे। तब खुद को नींद आ रही होती, इसलिए जरा जरा से काम भी कई कई दिन टले रहते।
@ मैं अक्सर बच्चों के बाल्टी में डूबने की खबरें, करंट लगने की खबरें, या ऐसे दूसरे खतरों की खबरें पढ़ता। इसलिए डरा हुआ ही रहता। वॉशरूम बंद रखो। टॉयलेट बंद रखो, पावर पॉइंट्स टेप से सील कर दो, प्रेस मत लगाओ, पानी गरम करने की रॉड ऊंची रखो, पता नहीं क्या क्या। कितनी भी कोशिश कर लो, घर में हो तो भी और बाहर हो तो भी, चिंताएं दिमाग से निकल नहीं पातीं।
@ फ्रस्ट्रेशन में मैं और पूजा खूब झुंझलाते। कई बार जरा जरा सी बात पर भी झगड़ जाते। पर फिर अहसास कर लेते कि ये वक्त ही ऐसा है। और इंतजार करते कि कभी तो हम नॉर्मल लाइफ में लौटेंगे।






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