मेरा मानना है कि साहित्य का हर हिस्सा कहीं न कहीं अपने आप से बातचीत की ही उपज होता है। कविता को खा़स तौर से मैं इसी नजरिए से देखता हूं। सलिलक्वि की इस खूबसूरत तस्वीर (कभी-कभी नहीं भी) में एक रंग उन बातों का होता है, जो अक्सर हम तक सीमित न रहने की जिद पाल लेती हैं, लेकिन आखिरकार ऐसा कर नहीं पातीं। आसान शब्दों में कहूं तो, वे बातें जो अक्सर जु़बां पर आते-आते कहीं खो जाती हैं। ऐसा नहीं है कि इन खो चुकी बातों का कोई अर्थ नहीं होता। मुझे तो लगता है कि कभी-कभी इनके मायने कही गई बातों से भी ज्यादा होते हैं। कभी-कभी ये इतनी खू़बसूरत होती हैं कि इन्हें याद कर बरबस ही होंठों पर मुस्कान तैर जाती हैं। इन बातों की एक और खा़स बात होती है और यह उन्हें बाकी बातों से अलग करती हैं। जो बातें हम अपने आप से ही करते हैं, अक्सर उनका पता किसी और को नहीं चलता, लेकिन जो बातें जु़बां तक आते आते रुक जाती हैं, अक्सर दूसरे भी उन्हें पढ़ लेते हैं। और वे सदा-सदा के लिए हमारे जेहन में कैद होकर रह जाती हैं। बात कुछ उलझी हुई सी लग सकती है। अगर ठीक से समझा नहीं पाया होऊं, तो माफी चाहूंगा। निदा फाज़ली की एक नज्म़ इस बात को ज्यादा बेहतर ढंग से समझा सकती है। मुझे यह बहुत पसंद है। इसे आपसे शेयर कर रहा हूं। मित्र वरुण वशिष्ठ ने इसके लिए यह खू़बसूरत इलस्ट्रेशन बनाया है।
उसने
अपना पैर खुजाया
अंगूठी के नग को देखा
उठ कर
खाली जग को देखा
चुटकी से एक तिनका तोड़ा
चारपाई का बान मरोड़ा
भरे पूरे घर के आंगन में
कभी-कभी वह बात
जो लब तक
आते आते खो जाती है
कितनी सुंदर हो जाती है।
इलस्ट्रेशन : वरुण वशिष्ठ
4 comments:
bhai ek baat bolun,
aaz raat maine pura blog padha. tum patrakar bankar ham logon ka nuksan kar rahe ho. hamein ek eiseee pratibhaaa se wanchit kar rahe ho jise sahitya kee duniya men sammaan ke saath pratishtha bhee miltee aur hamen garv hota ki yah mera dost hai. bhai ab bheebahut der nahin hui.
agar kuchh galat lag gaya ho to maaaf karna.
excellent vision...
i am impressed
excellent vision....
impressive (Neeraj)
excellent vision...
impressive
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