बशीर बद्र का नाम उन शायरों में आता है, जिन्होंने ग़ज़ल को आम आदमी तक पहुंचाया। आसान शब्दों में उर्दू के लहज़े को हर किसी की ज़ुबान पर लाने में उनके शे,रों के बहुत मायने रहे हैं। हो सकता है यह पढ़ते हुए आपमें से कुछ को बशीर का ख्याल न आ रहा हो, लेकिन जब मैं उनका एक शे,र आगे लिखूंगा तो आप जरूर कहेंगे, अच्छा! वो वाले बशीर बद्र! उनका यह शे,र भला किसने नहीं सुना होगा - उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए। और बहुत से शे,र हैं जिन्होंने इतनी शोहरत बटोरी है, कि हर आम और ख़ास कभी न कभी या तो उन्हें कह चुका होगा, या सुन चुका होगा। कभी-कभी तो लगता है कि जितने मशहूर उनके शे,र हुए हैं, शायद ही किसी के हुए होंगे। निदा से पहले मैं बशीर को सबसे ज्यादा पसंद करता था। हालांकि बशीर की शायरी का मैं अब भी कायल हूं। शायरी की सबसे पहली किताब शायद उनकी ही पढ़ी थी। निदा फाज़ली द्वारा संपादित उस किताब का नाम था -बशीर बद्र, नई ग़ज़ल का एक नाम। यह इतनी अच्छी लगी थी कि आधी से ज्यादा बुक मुझे याद हो गई। इसके कोई साल छह महीने बाद (करीब 10 साल पहले) बशीर को आमने-सामने देखने का भी मौका मिला। बशीर बद्र की ग़ज़लगोई को एक शाम समर्पित की गई थी। गिने-चुने लोग ही उस छोटे से हॉल में थे। मुझे याद है, उस वक्त वे ग़ज़ल पढ़ रहे थे, तो उनकी हर ग़ज़ल मुझे पहले से याद थी। एक-दो दोस्तों से इसका जिक्र कर मैं इतराया भी था। बहुत-सी वजहों से वह शाम मैं कभी भूलता नहीं। बशीर के जिक्र में बहुत कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन उनकी एक ग़ज़ल फिलहाल ब्लॉग पर डाल रहा हूं। उनकी शायरी की इस झलक से ही उनके कद का अंदाज़ा आप लगा लेंगे।
अगर तलाश करुं तो कोई मिल ही जाएगा,
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा।
तुम्हें जरूर कोई चाहतों से देखेगा,
मगर वो आंखें हमारी कहां से लाएगा।
न जाने कब तेरे दिल पे नई सी दस्तक हो,
मकान खाली हुआ है तो कोई आएगा।
मैं अपनी राह में दीवार बनके बैठा हूं,
अगर वो आया तो किस रास्ते से आएगा।
तुम्हारे साथ ये मौसम फरिश्तों जैसा है,
तुम्हारे बाद ये मौसम बड़ा सताएगा।
इलस्ट्रेशन : गिरीश
Saturday, May 29, 2010
Tuesday, May 18, 2010
नाराज़गी
जेहन में नाराज़गी लिए जीना और फिर भी खुद को ना बदलने की जिद पाले रखना दो ऐसी स्थितियां हैं, जिन्हें सोचने भर से दिल में ऐसे शख्स के लिए सहानुभूति पैदा होने लगती है। हो सकता है किसी के दिल में उसके लिए गुस्सा या क्षोभ भी पैदा हो, लेकिन यह तय है कि ऐसे हालात बेहद विचित्र होते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि अपने आप से नाराज़गी और फिर भी खुद को न बदलने की जिद, दोनों ही विरोधाभासी बातें हैं। विडंबनाएं हैं। खुद को ना बदलना किसी और के लिए अडिय़लपना हो सकता है, लेकिन ऐसा सोचते वक्त इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि ये अहसास हालात से उपजते हैं और हालात शर्तों पर नहीं बदला करते। वे तो बस बदल जाते हैं। किसी भी वक्त। ऐसे दौर में भी किसी और के लिए दुआ करना, जरूरी नहीं कि बेबसी हो। दुआएं सिर्फ बेबसी से नहीं निकलतीं... निदा फाज़ली की इस गज़ल को पढ़कर आपको भी शायद ऐसा ही लगे :
बदला ना अपने आप को, जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से, मगर अजनबी रहे
दुनिया ना जीत पाओ तो हारो ना खुद को भी
थोड़ी बहुत तो जेहन में नाराज़गी रहे
अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे
गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल, वो डाली हरी रहे
फोटो-मुकेश मंडल
बदला ना अपने आप को, जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से, मगर अजनबी रहे
दुनिया ना जीत पाओ तो हारो ना खुद को भी
थोड़ी बहुत तो जेहन में नाराज़गी रहे
अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे
गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल, वो डाली हरी रहे
फोटो-मुकेश मंडल
Saturday, May 15, 2010
आखिर है तो अपना ही देश
दो दिन पहले मेरे एक मित्र ने मुझे मेल भेजा था। इसमें कुछ बातें थीं, जो हमारे देश की व्यवस्था पर सवाल उठा रही थीं। आमतौर पर इस तरह की मेल को मैं बहुत सीरियसली लेता नहीं हूं, लेकिन इस मेल में कुछ था, जिसके चलते मैंने यह मेल अपने ज्यादातर दोस्तों को फॉरवर्ड कर दिया। तब एक बार के लिए मुझे भी लगा था कि वाकई हमारे देश में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जिनमें विरोधाभास हैं। बहुत से सवाल हैं, जो हमें कचोटते हैं। हालांकि अब इनमें से ज्यादातर के बारे में हम सोचना बंद कर चुके हैं। खैर, इस फॉरवर्ड किए गए मेल के रिप्लाई के बारे में मैंने सोचा नहीं था। वैसे भी, ज्यादातर फॉरवर्ड मेल हम लोग बस फॉरवर्ड ही करते हैं, लेकिन मेरे एक मित्र ने ऐसा नहीं किया। अश्वनी भारद्वाज इंडियन रेवेन्यू सर्विसेज के लिए सिलेक्ट हो चुके हैं, और इन दिनों ट्रेनिंग कर रहे हैं। आज जब मेल चेक किया, तो देखा उन्होंने मेरे भेजे मेल को बहुत बारीकी से पढ़ा है, और हर बात का जवाब लिखा है। हर बात में उस कटाक्ष का बेहतरीन जवाब था। मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गई। साथ ही, अहसास हुआ कि देश की कमियों पर बात करना या उन्हें लेकर मजाक बनाना हमें कितना आसान लगता है, लेकिन हम कभी उसकी गहराई में जाने की कोशिश नहीं करते। मैंने अश्वनी को फोन किया और मजाक में पूछा, अब प्रशासन का हिस्सा बन गए हो, इसलिए तुम्हें इस मेल से दुख हुआ होगा? अश्वनी ने हंसकर कहा, ऐसा नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि हम सब व्यवस्था का हिस्सा हैं, इसलिए सिर्फ बात करने से कैसे काम चलेगा। कमियों को दूर करने की जिम्मेदारी हम सबकी है। कम से कम देश के लिए अच्छा सोच तो सकते हैं। मुझे लगा अश्वनी की बात आप सब तक पहुंचनी चाहिए। इसलिए मैं हर कटाक्ष और उस पर अश्वनी के जवाब को यहां डाल रहा हूं। बोल्ड में जो लाइनें हैं, वह मेरे फॉरवर्ड किए गए मेल का हिस्सा थीं। बाकी जो कुछ लिखा है, वह अश्वनी ने लिखा है। उसे मेल की ही भाषा में यहां डाल रहा हूं, इसलिए आपसे अनुरोध है कि कृपया भाषा के बजाय, उसके मतलब पर गौर करें।
Mera Bharat Mahaan !!!
We live in a nation ,
where Pizza reaches home faster than Ambulance/police,
Yes because its paid by the individual directly not by the govt afterr collecting taxes from public so if u pay directly to pvt ambulence or police they will come immediately.
Where you get car loan @ 5% and education loan @ 12%,
Yes because when u required loan for education it means u r getting admission on management seat and not through merit. So if you cant get merit then be ready to pay money.
Where rice is Rs 40/- per kg but SIM card is free,
Yes because sim card is produced by millionares like ambani and sunil bharati mittal, But rice is produced by a farmer who cannot afford to sell it free.
Where a millionaire can buy a cricket team instead of donating the money to any charity,
Yes its true, because if u r doing charity it means u r scared of bad deeds u did in the past. If u are not flawed y to do charity. Even if they are buying a team definitely they are paying taxes on transaction. so whts the need of charity....
Where the footwear, we wear ,are sold in AC showrooms, but vegetables, that we eat, are sold on the footpath,
Absolutely, because if they are sold in AC showrooms like reliance fresh and wallmart the same socalled socialist make a hue and cry. So vegetable seller himself wants to sell it on footpath,.,
Where everybody wants to be famous but nobody wants to follow the path to be famous,
Its the law of nature, everybody needs a shortcut, and when u can get ur dues by smart work why to do hard work.
Where we make lemon juices with artificial flavours and dish wash liquids with real lemon.....
No lemon juices are made of citric acid that too is extracted fro lemon and we never know whether the real lemon we get in the dish wash soap. If its real lemon then we should feel happy about the genuine products available in india.
Where people are standing at tea stalls reading an article about child labour from a newspaper and say,"yaar bachhonse kaam karvane wale ko to phansi par chadha dena chahiye" and then they shout "Oye chhotu 2 chaii laao....."
Yess because they know if they complain against it this CHHOTU will lose the job and tomorrow they will find him at traffic signal begging. Child labour is a crime but dont forget that its far better than begging. At least he can earn money to run the family.
So all the comments above just reflect the issues, not the reasons behind these issues. Please, find the reasons then write. My india is incredible and I have no reasons to complain against it. But I have high hopes from everybody. Whether he is delivering pizza, buying cricket teams or washing utensils at chai shop with genuine dish wash liquids. So stop kribbing about.
Incredible India :-)
Mera Bharat Mahaan !!!
We live in a nation ,
where Pizza reaches home faster than Ambulance/police,
Yes because its paid by the individual directly not by the govt afterr collecting taxes from public so if u pay directly to pvt ambulence or police they will come immediately.
Where you get car loan @ 5% and education loan @ 12%,
Yes because when u required loan for education it means u r getting admission on management seat and not through merit. So if you cant get merit then be ready to pay money.
Where rice is Rs 40/- per kg but SIM card is free,
Yes because sim card is produced by millionares like ambani and sunil bharati mittal, But rice is produced by a farmer who cannot afford to sell it free.
Where a millionaire can buy a cricket team instead of donating the money to any charity,
Yes its true, because if u r doing charity it means u r scared of bad deeds u did in the past. If u are not flawed y to do charity. Even if they are buying a team definitely they are paying taxes on transaction. so whts the need of charity....
Where the footwear, we wear ,are sold in AC showrooms, but vegetables, that we eat, are sold on the footpath,
Absolutely, because if they are sold in AC showrooms like reliance fresh and wallmart the same socalled socialist make a hue and cry. So vegetable seller himself wants to sell it on footpath,.,
Where everybody wants to be famous but nobody wants to follow the path to be famous,
Its the law of nature, everybody needs a shortcut, and when u can get ur dues by smart work why to do hard work.
Where we make lemon juices with artificial flavours and dish wash liquids with real lemon.....
No lemon juices are made of citric acid that too is extracted fro lemon and we never know whether the real lemon we get in the dish wash soap. If its real lemon then we should feel happy about the genuine products available in india.
Where people are standing at tea stalls reading an article about child labour from a newspaper and say,"yaar bachhonse kaam karvane wale ko to phansi par chadha dena chahiye" and then they shout "Oye chhotu 2 chaii laao....."
Yess because they know if they complain against it this CHHOTU will lose the job and tomorrow they will find him at traffic signal begging. Child labour is a crime but dont forget that its far better than begging. At least he can earn money to run the family.
So all the comments above just reflect the issues, not the reasons behind these issues. Please, find the reasons then write. My india is incredible and I have no reasons to complain against it. But I have high hopes from everybody. Whether he is delivering pizza, buying cricket teams or washing utensils at chai shop with genuine dish wash liquids. So stop kribbing about.
Incredible India :-)
Wednesday, May 5, 2010
कह लो सनकी
अक्सर हम अपने व्यवहार को लेकर दूसरों से शिकायतें सुनते हैं। दूसरों के व्यवहार से हमें भी बहुत शिकायतें रहती हैं। कई बार हमें लगता है कि हमसे जो शिकायतें दूसरों को होती हैं, वे नाजायज होती हैं, ठीक नहीं होतीं। इसी तरह कई बार जिनसे हम शिकायत कर रहे होते हैं, वे भी हमसे कहते हैं कि हम गलत समझ रहे हैं। ऐसे में यह असमंजस होना लाजमी है कि आखिर सही व्यवहार किसे कहा जाए। व्यवहार कुशलता की जो कसौटियां बनाई गई हैं, कैसे हम उन पर खरा उतर सकते हैं या कैसे उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए हम दूसरों को कोई सलाह दे सकते हैं। मुझे लगता है कि न तो कभी ऐसा हो सकता है कि हमारे व्यवहार को लेकर कोई हमसे शिकायत न करे, और न ही ऐसा हो सकता है कि हमें हमेशा दूसरों का व्यवहार पसंद आए। बस, यह हो सकता है कि हम अगर व्यवहार बनने और उसमें ढलने की प्रक्रिया को समझ लें, सीख लें तो काफी हद तक हमारी शिकायतें कम हो सकती हैं। 25 जून 2007 को मैंने दैनिक भास्कर में जयप्रकाश चौकसे का एक लेख पढ़ा था। उन्होंने बेहद सटीक अंदाज़ में इस पहलू पर प्रकाश डाला था। अगर मैं ज्यादा नहीं भूल रहा तो शायद यह लेख उन्होंने सलमान खान के विषय में लिखा था। हो सकता है ऐसा न भी हो, लेकिन यह सही है कि इसमें जो कुछ कहा गया, वह हम सबके लिए गौर करने लायक है। साभार यह लेख आपके लिए ब्लॉग पर डाल रहा हूं।
दूसरों से हम एक ख़ास किस्म के सदाचरण की उम्मीद रखते हैं, लेकिन जब वह हमारी अवधारणा के विपरीत कुछ करता है, तो हम उसे बुरा या सनकी मान लेते हैं। यह सोच दोषपूर्ण और एकपक्षीय है। आखिर कोई व्यक्ति कब तक अपने बारे में बनाई गई दूसरों परिभाषा को जबरन जीता रहे, ढोता रहे। भीतर जैसा है, वैसा ही उजागर होने की इच्छा को असाधारण या सनक मान लेना भी दोषपूर्ण है। सभी सनकी सच्चे या सफल सिद्ध नहीं होते, लेकिन ऐसा कोई जीनियस भी नहीं हुआ है, जिसे पहले सनकी न समझा गया हो। सदियों तक धरती को सपाट मानने वाले लोगों ने धरती को गोल बताने वाले को सनकी समझा। कुछ लोग ज़िंदगी को खंडित आइने में देखकर टूटी हुई छवि को पूरा सच मान लेते हैं। उन्हें अपनी समझ पर इतना यकीन होता है कि उनकी पूरी ज़िंदगी ही नासमझी में बीत जाती है। जब हम तथाकथित स्वयंसिद्ध अवधारणा के खिलाफ कोई विचार सुनते हैं, तो हमारी अन्तर्निहित असुरक्षा का भाव हमें उसकी ओर आक्रामक बना देता है। यह वैचारिक हिंसा दूसरे से ज्यादा खु़द के लिए घातक सिद्ध होती है। इसकी वजह बुद्धि का लचीला होना है, न कि पत्थर की तरह सख्त या अपरिवर्तनीय। दरअसल, समझदार और सनकी होने के बीच की रेखा अत्यंत क्षीण है। संयत बने रहने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है। मनुष्य का मूल्यांकन अच्छाई-बुराई से ज्यादा उसकी छवि से होता है। इसके निर्माण में दुनियादारी के साथ अन्य लोगों की आंकलन क्षमता भी जुड़ी होती है। अपनी स्वतंत्रता की रक्षा आप दूसरों की स्वतंत्रता के प्रति सम्मान दिखाकर ही कर सकते हैं।
दूसरों से हम एक ख़ास किस्म के सदाचरण की उम्मीद रखते हैं, लेकिन जब वह हमारी अवधारणा के विपरीत कुछ करता है, तो हम उसे बुरा या सनकी मान लेते हैं। यह सोच दोषपूर्ण और एकपक्षीय है। आखिर कोई व्यक्ति कब तक अपने बारे में बनाई गई दूसरों परिभाषा को जबरन जीता रहे, ढोता रहे। भीतर जैसा है, वैसा ही उजागर होने की इच्छा को असाधारण या सनक मान लेना भी दोषपूर्ण है। सभी सनकी सच्चे या सफल सिद्ध नहीं होते, लेकिन ऐसा कोई जीनियस भी नहीं हुआ है, जिसे पहले सनकी न समझा गया हो। सदियों तक धरती को सपाट मानने वाले लोगों ने धरती को गोल बताने वाले को सनकी समझा। कुछ लोग ज़िंदगी को खंडित आइने में देखकर टूटी हुई छवि को पूरा सच मान लेते हैं। उन्हें अपनी समझ पर इतना यकीन होता है कि उनकी पूरी ज़िंदगी ही नासमझी में बीत जाती है। जब हम तथाकथित स्वयंसिद्ध अवधारणा के खिलाफ कोई विचार सुनते हैं, तो हमारी अन्तर्निहित असुरक्षा का भाव हमें उसकी ओर आक्रामक बना देता है। यह वैचारिक हिंसा दूसरे से ज्यादा खु़द के लिए घातक सिद्ध होती है। इसकी वजह बुद्धि का लचीला होना है, न कि पत्थर की तरह सख्त या अपरिवर्तनीय। दरअसल, समझदार और सनकी होने के बीच की रेखा अत्यंत क्षीण है। संयत बने रहने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है। मनुष्य का मूल्यांकन अच्छाई-बुराई से ज्यादा उसकी छवि से होता है। इसके निर्माण में दुनियादारी के साथ अन्य लोगों की आंकलन क्षमता भी जुड़ी होती है। अपनी स्वतंत्रता की रक्षा आप दूसरों की स्वतंत्रता के प्रति सम्मान दिखाकर ही कर सकते हैं।
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