
कुछ चीज़ों की भूमिकाएं नहीं होतीं। उन्हें कहने से पहले चुप होना पड़ता है। खामोश।
फरवरी 2008 में लिखे कुछ शब्दों को आज जब पढ़ रहा था, तो यही लगा। हो सकता है अपने ही लिखे इन शब्दों की भूमिका लिख नहीं पा रहा था, इसलिए ऐसा लगा हो। या शायद लगा कि चुपचाप भी तो कुछ कहा जा सकता है।
मित्र गिरीश ने बिना शब्दों के कुछ कहा है इस बारे में। अपने मन से। अपनी कला की ज़ुबान में। आप उसे देख सकते हैं। चाहें तो सुन भी सकते हैं और महसूस भी कर सकते हैं। जिन शब्दों के जरिए मैंने अपनी बात कभी लिखी थी, इस इलस्ट्रेशन से उसने वह बात कहनी चाही है।
सबका कुछ नाम होता है
तुम्हारा
मेरा
चांद का
नदी का
ज़मीं का
लेकिन पता नहीं क्यों
कभी-कभी लगता है
जिनका नाम नहीं होता
वे भी जीते हैं
हमारे साथ-साथ
हमेशा
जब तक जीते हैं हम
जैसे कुछ रिश्ते
बेनाम