कोई तीन या चार साल पहले दैनिक भास्कर अखबार के रसरंग में सुशील कुमार 'शीलू' के नाम से छपी एक कविता पढी थी। बेहतरीन लगी। कई प्रभावशाली कविताएं पढ़ी हैं, लेकिन इससे हर बार अजीब सा खिंचाव महसूस होता है। जिस गुब्बारे का इसमें ज़िक्र है, वैसे गुब्बारे शायद आप भी कहीं न कहीं कभी न कभी जरूर देखते होंगे। आप भी ऐसे गुब्बारों से मिले होंगे या जानते होंगे। कैसे गुब्बारे? इस कविता को पढ़ लीजिए, उम्मीद है जरूर याद आ जाएंगे।
छत के पंखे से लटके गुब्बारे में
रंग बिरंगी कतरने भरकर
कभी होठों से लगाया था किसी ने
हवा भरने के लिए
और वह बेवकूफ फूलकर कुप्पा हो गया
जन्मोत्सव की शाम
फोड़ दिया गया उसे सरेआम
और उसकी मर्मांतक चीख
दब गई लोगों के हर्षनाद में
आज भी उस गुब्बारे की लाश
पंखे से लटकी
घूम रही है
दिन-रात ।
Saturday, February 20, 2010
Wednesday, February 17, 2010
खामोशी
खामोशी की भी अपनी ज़ुबां होती है, मतलब होते हैं, असर होता है, उम्र होती है। जरूरी नहीं शब्दों का होना, हर ज़ज्बात की तस्वीर बनाने के लिए। खामोशी की अपनी अदा होती है। उदास लम्हों को बेपरवाही से थपथपाते हुए यह उसे एक शक्ल दे देती है। फिर उसके चेहरे पर एक कहानी लिख देती है। फिर उसकी आंख में नमी और फिर ...। खामोश झील की उदासी तोडऩे के लिए जरूरी नहीं, पत्थर ही उछाला जाए। उसके कंधे पर हाथ धर दीजिए। हौले से। बस। वह खुद-ब-खुद बोल उठेगी। हां, खामोशी खुद-ब-खुद बोल उठेगी। उसकी अपनी ज़ुबां होती है।
Subscribe to:
Posts (Atom)