Monday, October 27, 2014

हृदय, हार्दिक के जन्मदिन पर यह गिफ्ट किसे?


कल हृदय और हार्दिक का पहला जन्मदिन था। पिता के रूप में मेरा भी। और मां के रूप में मेरी पत्नी का। तो इन चार जनों के जन्मदिनों पर कुछ सहेजने की इच्छा को रोक नहीं सका। हालांकि सोचा तो यह भी है कि हर साल इस तरह से जीये हुए जीवन को समेटने की कोशिश करूंगा, लेकिन इसका आखिरी फैसला इस एक साल के बीच का वक्त करेगा, इसलिए तब की तब ही देखेंगे। फिलहाल, जब तक मैं यह तय करूं कि दोनों के जन्मदिन पर यह गिफ्ट किसे दे रहा हूं, आप इससे सांझे हो सकते हैं।





पिता बने एक साल हो गया है। सब पिताओं का पहला साल खास होता होगा। यही सोच कर ख्याल आ रहा था कि अपने इस एक साल की खासियतों को सोचूं और लिख कर रख लूं ताकि भूलने ना पाऊं। हां, कभी-कभी खास लम्हों के भी भूल जाने का डर रहता है। वक्त बड़ा इरेजर है।

सोचने बैठा तो लगा किसी ऐसे कमरे में घुस गया हूं जहां सब बिखरा पड़ा है। कमरा भरा पड़ा है, पर उसमें क्या काम की चीज है और क्या कूड़ा कबाड़ा, पहली नजर में तय नहीं हो पा रहा। पहले एक एक कर छांटना पड़ेगा। फिर ही कुछ तय हो पाएगा कि क्या रखना है, और क्या फेंक देना है।

छांटता हूं तो पहले पहल अपने जुड़वां बच्चे ही दिखते हैं। हार्दिक और हृदय। उनकी मां दिखती है। अपनी मां दिखती है। परिवार के वे लोग दिखते हैं जिनका चाहे जैसा भी रहा, सहयोग रहा। डॉक्टर दिखते हैं। अस्पताल दिखता है। दवाइयां दिखती हैं। बच्चों का धीरे धीरे, बहुत धीरे धीरे बड़ा हाेना दिखता है।

फिर उनकी अठखेलियां दिखती हैं, मुस्कुराहटें दिखती हैं, गिर गिर कर उठना दिखता है। मां से पहले पा पा बोलना दिखता है (मेरी इस बात पर मेर सिवा कोई और यकीन नहीं करता, हो सकता है ये मेरा वहम है)। उनका रोना दिखता है, हंसना दिखता है।

फिर एक संघर्ष दिखता है। उन्हें अब तक पालने का। मेरा अकेले का नहीं। मेरी पत्नी का, मेरी मां का। याद आती हैं शुरुआत की वो खत्म न होने वाली रातें जब मेरी पत्नी लगातार तीन साढ़े तीन महीने या तो दो घंटे सोई या तीन घंटे। कभी कभी न दिन में सोयी और न रात में। मेरी मां ने भी अपने हिस्से के जगराते हमें दे दिए। दो बच्चों को भरी सर्दी में संभालना, सहेजना और वह भी तब जब एक तो अक्सर रहता ही अस्पताल में था। रिश्तों के संघर्षों ने भी तभी एंट्री मारी थी। लड़ तो सब अपने अपने हिस्से के रहे थे, पर मुझे हमेशा यह वहम रहता था कि मैं अकेला लड़ रहा हूं। जब जब कोई टूटता दिखा, मैं मजबूत होकर उसकी जगह लड़ता दिखा। वरना टूटा हुआ सा उनकी लड़ाई देखता रहा। हार्दिक को साढ़े चार महीने तक बड़ी बड़ी बीमारियों की आशंकाओं के बीच से गुजरते, फिर निकलते देखा। मैक्स अस्पताल जाना रुटीन का हिस्सा होते देखा। वो वक्त देखा जब लगता था मैं मैक्स में ही काम करता हूं शायद। दवाइयों के नाम और टेस्ट की रिपोर्ट लाना ले जाना, घर आकर दवाइयाें के टाइम, देने के तरीके समझाना, रोज की डेवलेपमेंट नोट करना, फिर डॉक्टर को बताना, रोज नई बीमारियों के नाम सुनना, उनको नेट पर सर्च कर यूं पढ़ना मानो पेपर की तैयारी कर रहा हूं, सब दिखने लगता है। उन सारी बड़ी बड़ी बीमारियों के मुशकिल मुशकिल नाम याद हैं जिनके टेस्ट हुए। हर टेस्ट के बाद प्रार्थना हुई कि यह बीमारी ना निकले बस। डॉक्टर नवीन तो लगता है इस एक साल के पूरे हिस्से में कभी दूर हुए ही नहीं। डॉक्टर वोहरा, डॉक्टर कुसुम सभ्रवाल, डॉक्टर मधु, डॉक्टर तनेजा, पता नहीं कितने डॉक्टरों से इस बीच जान पहचान बनी। बात हुई। सब दिखता है।
(इन चार पांच महीनों को कुछ दिन पहले एक आर्टिकल की शक्ल में हेल्दी जिंदगी नाम की वेबसाइट की लॉन्चिंग के वक्त लिखा था। इस साइट में नई सुबह नाम से एक सेक्शन है जिसका सबसे पहला आर्टिकल 'खुशी की उंगली पकड़ आया था स्ट्रगल' 9 जुलाई 2014 को लगा था। उसका लिंक यह है :

हार्दिक के ठीक होने के बाद दोनों पांच महीने के थे जब हम घर बदलकर पालम आ गए थे। ये सात महीने भी घिच्च पिच्च ही नजर आते हैं। कभी टेंशन से भरे दिन नजर आते हैं तो कभी बच्चों की किलकारियां। बड़ी मजेदार हरकतें भी याद आती हैं बच्चों की। पूरा दिन शांत रहने वाला हृदय रात को हार्दिक के सोते ही चिल्लाने लगता था। जोर जोर से आवाजें देता था। पता नहीं किसे। पर तब वह पूरी मस्ती के मूड में होता था। हम उसे कहते थे चुप हो जा, तो वह और जोर से चिल्लाता था। उसके बाद ही साेता था। पहले वह मेरी मां के पास सोता और हार्दिक अपनी मां के पास। फिर जब वह बीमार हुआ, उसके बाद से अदला बदली हो गई।
हार्दिक हृदय से ज्यादा एक्टिव है। दो मिनट छोटा जरूर है पर दांत पहले उसके आए। बड़े से खिलौने छीनना पहले उसने सीखा। भोला हृदय बस रोकर रह जाता और ये छोटा तीर खिलौने छीन लेता, उसे पकड़ कर गिरा देता, उसके बाल नौंच लेता या उसे नीचे पटककर उसके ऊपर बैठ जाता। इसलिए दोनों को एक दूसरे से दूर रखना ही पहली कोशिश रही। हार्दिक ने हृदय से पहले खड़ा होना सीखा। कदम उठाना सीखा। गद्दे से उतरना सीखा। घुटनों के बल चलना सीखा। पर हृदय आराम से सही, बाद में वहां तक पहुंचा।

यहीं याद आता है बच्चों का अपनी नानी के घर जाना और पीछे से पापा का बीमार हो जाना। उनका ऑपरेशन। उसके बाद से शुरू हुए ऐसे उलटे दिन जो दिखते हैं तो खीझ होती है, दुख होता है, गुस्सा आता है, परेशानी होती है, पर, ये दिन भी सहेजने हैं क्योंकि सीखा इनसे भी है। अगस्त, सितंबर और अक्टूबर। बाप रे।

क्या दिखता है? पहले पापा का ऑपरेशन। छह दिन मेरा अस्पताल में उनके साथ रहना। तभी मेरी कमर में मसल पेन और बुखार का शुरू होना और छह दिन दवाई खाकर अस्पताल में टिके रहना। पापा का एक हफ्ते बाद घर आना और दो चार दिन बाद हृदय को बुखार के साथ फिट आना। ऑफिस में मीटिंग में था जब कॉल आई थी कि हृदय बेहोश हो गया है, आप घर पहुंचो। मैंने कहा था नहीं, तुम उसे लेकर जो भी अस्पताल दिखे, वहीं पहुंचो, मैं सीधे अस्पताल पहुंचता हूं। एक अस्पताल से प्राइमरी चेकअप के बाद जब उसे होश आ गया तो मैं उसे मैक्स ले आया था। (पापा भी अपने चेकअप के लिए साथ अस्पताल चल रहे थे)। डॉक्टर नवीन ने कहा था, एक साल का होने से पहले फिट आए तो कुछ टेस्ट करने जरूरी होते हैं, इसलिए एक दिन के लिए भर्ती करना पड़ेगा। एक के बजाय वह दो दिन भर्ती रहा आैर टेस्ट सारे नॉर्मल आए। यह कहकर घर भेज दिया गया कि खतरा नहीं है। कुछ बच्चों में ऐसा हो जाता है। क्या सावधानियां बरतनी हैं, ऐसा दुबारा हो तो क्या करना है, यह समझकर हम वापस घर के लिए चल पड़े थे। हार्दिक मम्मी के पास था और जब हम मेट्रो में थे तभी फोन आया कि हार्दिक को तेज बुखार हो गया है। घर पहुंचना भारी हो गया था। उसे मम्मी संभाल रही थी जिसे न दवाइयों का पता था, न कुछ और। उसे बस बच्चे को परेशान देखकर या तो रोना आता था, या भगवान से दुआ करना। जिनके मकान में किराए पर थे, उन भाभी जी से फोन पर बात कर हार्दिक का बुखार चेक करवाया और दवाई दिलवाई। घर पहुंचे तो देखा हार्दिक का गला चॉक था और जब वह रोता था तो आवाज भी नहीं निकलती थी। डॉक्टर नवीन को वट्सएप पर मैसेज किया तो उन्होंने दवाई बता दी। दो दिन बाद सुधार होना शुरू हुआ ही था कि हृदय की तबीयत फिर बिगड़नी शुरू हो गई। हार्दिक पांच दिन बाद ठीक हुआ, लेकिन उसी रात 4 बजे हृदय को फिर बुखार हुआ। बुखार चेक किया तो 100 पहुंचा था। थर्मामीटर नीचे भी नहीं रखा कि उसे फिर फिट आ गया।
सब घबरा गए कि इतनी रात को क्या करें। मैंने मिडासिप के दो स्प्रे उसकी नाक में किए। 15 सेकेंड बाद हृदय नॉर्मल हो गया। रो रहा था बुखार से। तुरंत डॉक्टर नवीन को फोन किया। उन्होंने कहा, कोई बात नहीं, बुखार उतारो, और शाम को मिलो। शाम को लेकर डॉक्टर के पास पहुंचे और बताया कि फिट आने के बाद से उसने रोना बंद नहीं किया।

फिर याद आता है, डॉक्टर नवीन का वो ओहो। उनका कहना था कि पहली बार फिट आया था तो ईईजी जैसे बड़े टेस्ट नहीं किए थे। एक ही हफ्ते में दूसरा एपिसोड नहीं होना चाहिए था। तुरंत भर्ती करवाओ। हमने ऑटो किया और सीधे पहुंचे मैक्स। हृदय फिर भर्ती। इतने दिनों के बीच मेरे बदन, खासकर कमर में दर्द और बुखार एक दिन के लिए भी नहीं गया था। मैंने दवाई ली थी, लेकिन रेस्ट का एक घंटा भी नसीब नहीं हुआ था इसलिए तबीयत काबू से बाहर होती जा रही थी। खैर, दो दिन हृदय भर्ती रहा। ईईजी और तमाम दूसरे बड़े टेस्ट बता रहे थे कि बड़ा खतरा नहीं है। सिंपल फाइबरल सीजर है। घर पहुंचे। अगले दिन पापा को फॉलोअप के लिए अस्पताल लाना था। उन्हें यूरोलोजिस्ट के अलावा जनरल फिजीशियन और endocrinologist को दिखाना था। यूरोलोजिस्ट ने ओके बोल दिया था। बाकियों को दिखाया। फिर जो कुछ हुआ उसे मैं कबाड़ा कहूंगा और यहां उसका जिक्र किए बगैर उठाकर फेंक दूंगा बाहर। फेंक दूंगा, पर रहेगा भीतर ही।

बच्चों के ठीक होने के बाद पहले मैंने अपना चेकअप कराया। दो महीने तक दवा खाई और जब ठीक नहीं हुआ तो सारे मेडिकल टेस्ट करवाए। कुछ कुछ निकला। चार पांच जगह गड़बड़ थी। हाई बीपी की दवा 33 की उम्र में खाने लगा था। डॉक्टर ने कहा था, रेस्ट किए बिना कुछ नहीं हो सकता। और मैंने डॉक्टर से कहा था सॉरी डॉक्टर, रेस्ट अभी नहीं हो सकता।

तभी वाइफ को सीरियस वीकनेस की प्रॉब्लम होने लगी थी। चक्कर आ जाना रोज की बात होने लगी। पास के डॉक्टर को दिखाया, तो बात नहीं बनी। डॉक्टर कुसुम को दिखाया तो कहा, 15 दिन दवाई खाओ, ठीक नहीं हुईं तो एमआरआई करवाना पड़ेगा। खैर, 15 दिन बाद एमआरआई नहीं हुआ और दवाई एक महीने आगे तक की लिख दी गई।

इसके बाद कई ऐसी समस्याएं मुंह बाएं खड़ी थीं जो जीवन के सबसे बड़े घटनाक्रम होते हैं। उनको कचरा सिर्फ इसलिए कहूंगा क्योंकि उन्हें भूलना या फेंकना बस में नहीं, और साथ रखने की हिम्मत अभी जुटानी है।

खैर, एक दोस्त ने कहा था ऐसी चीजें लिखते वक्त ज्यादा इमोशनल होने से बचना चाहिए। बैलेंस टूट जाता है। जो नहीं लिखना चाहिए वह भी लिख जाते हो। सो बहुत सा सामान कचरा बताकर फेंक देता हूं और बहुत सा कचरा बिना बताए सिमेट देता हूं। और यहां लिखता हूं वो सबक जो हृदय और हार्दिक के पहले बर्थ डे पर एक साल के दौरान सीखने को मिले।

1
जीवन में कभी भी कुछ भी हो सकता है। बुरे से बुरा भी और अच्छे से अच्छा भी। आप बहुत से मामलों में कुछ नहीं कर सकते। इसलिए बुरे से बुरे को सहना सीखना चाहिए और अच्छे से अच्छे को हजम करना।

2
संघर्ष कर्म है। कर्म समझकर ही करना चाहिए। पीछे नहीं हटना चाहिए। फल की ज्यादा नहीं सोचनी चाहिए। बुरे फल का अंदेशा हो तो भी अच्छे के लिए कर्म करना बंद नहीं करना चाहिए।

3
दुख और सुख पूरे जीवन में आते जाते रहेंगे। दोनों ही हालात में स्थिर रहना सीखना चाहिए। कभी कभी हार मानने का मन करता है। हार मान भी लेते हैं। पर पूरी कोशिश फिर से उठने की करनी चाहिए। हालात कितने भी बुरे क्यों न हों, एक दिन जरूर चले जाते हैं।

4
जब पूरा जमाना आपको अपने खिलाफ लगे, तब भी अपने पर भरोसा रखो। अपने पर यकीन नहीं है तो कोई लड़ाई जीतना तो दूर, लड़ी ही नहीं जा सकती। खुद को ऐसे हालात में कमजोर महसूस करो तो देखो कि कहां से मजबूती मिलेगी। जहां से भी मिले, लो। और लड़ो। जीवन कुरुक्षेत्र है। बिना लड़े कोई नहीं जी सकता।

5
साथ कभी भी किसी का भी छूट सकता है। कोई परमानेंट साथी नहीं होता। सब रिश्ते दुनियावी हैं। रिश्ता छूटे, टूटे, बड़ी बात नहीं। बस खुद को मत टूटने दो। रिश्ते फिर भी जुड़ सकते हैं। आप टूट गए तो गए काम से।

6
भगवान पर भरोसा सबसे बड़ी ताकत है। जब आप अपनी लड़ाई उसे समर्पित कर देते हो या उसे अपनी लड़ाई में शामिल कर लेते हो तो समझो आपकी ताकत बढ़ गई। आप आधी लड़ाई तो तभी जीत जाओगे। आधी जीतने में यह आस्था या भरोसा साइकलॉजिकल और स्प्रिचुअल पार्ट प्ले करेगा। जिस दिन मैंने हार्दिक की बीमारी के बाद इसका परिणाम ऊपरवाले के हवाले किया था, मैं उस मामले में कभी निराश नहीं हुआ।

7
पूर्वाग्रहों पर जीवन जीना आग पर चलने जैसा है। पहले से कहा या बताया गया सब कुछ सही हो, ये जरूरी नहीं। जिंदगी के अनुभव सबसे सही पढ़ाई करवाते हैं। इससे पहले मैं पता नहीं कितने मामलों में खुद की सोच को एकदम पत्थर की लकीर जैसा मानता था, जो सब अब तक मिट गईं। पता नहीं कितने मामलों में मेरा घमंड धराशायी हो गया। जहां जहां मैं खुद को फन्नेखां समझता था, आधी से ज्यादा जगह मेरी हेंकड़ी निकल गई। और यह भी तय है कि अब भी जो कुछ जानता समझता हूं, सिर्फ उसी के भरोसे काम नहीं चलने वाला। अनुभवों से सीखने का कोर्स जारी रखना पड़ेगा। उम्रभर।

हैपी बर्थ डे हृदय और हार्दिक।
तुम्हें आजाद जीवन जीने में मदद कर सकूं, इसकी पूरी कोशिश करूंगा।

Friday, March 21, 2014

तमन्ना तुम कहां हो



हमारे प्रफेशन में कहा जाता है कि खबर यहां वहां हर कहीं बिखरी पड़ी होती हैं, सूंघना आना चाहिए। यह सुनते और देखते बहुत वक्त हो गया। कई रिपोर्टरों को देखा भी ऐसा करते। लेकिन सतह पर साफ पानी सी तैरतीं घटनाओं के भीतर कितनी व्याकुल तस्वीरें होती हैं, ये कम ही लोग देख पाते हैं। कुछ वक्त पहले निधीश जी की किताब आई, तमन्ना तुम अब कहां हो। किताब तब आई जब जिंदगी में ज्वारभाटों का दौर चल रहा था इसलिए पढ़ने का मौका नहीं मिला। बस व्याकुलता बनी रही कि निधीश जी की किताब आई है तो पढ़नी जरूर है। फेसबुक पर समीक्षाएं पढ़ पढ़ कर यह व्याकुलता बहुत व्यग्र हो चुकी थी। कुछ दिन पहले पता चला चंद्रभूषण जी के पास यह किताब है तो उनसे मांग ली। निधीश जी की कविताएं पहले से पढ़ता रहा हूं इसलिए मन में डर था कि जब किताब पढूंगा तो ठीक वैसी घबराहट और बेचैनी से सामना होगा जैसी अमृता प्रीतम का नॉवल कोरे कागज पढ़ते वक्त हुई थी। खैर, अब किताब का कुछ हिस्सा पढ़ लिया है। मेरा डर सही था इसलिए बीच बीच में पढ़ना बंद कर देता हूं। छटपटाहट होती है। कुछ सचाइयों का इलाज एसकेपिज्म ही होता है।
किताब में नए तरह का लेखन है। एक एक लाइन में पूरी पूरी कहानी है। पढ़ते हुए लगता है जैसे निधीश जी कह रहे हों, शब्द कम खर्च करके भी बात पूरी कही जा सकती है। वह अलग अलग अखबारों और वेब साइट्स के एडिटर रहे हैं। मेरे ब्लॉग में पहले भी कई जगह मैंने उनका जिक्र किया है। उनके साथ काम किया है, यह मैं अक्सर इतरा कर बताता हूं। लग रहा है कि यह बुक पढ़ने के बाद मेरी इतराहट और बढ़ेगी। इसकी कुछ झलकियां ब्लॉग पर साझा करके मैँ इसे उपकृत करना चाहता हूं। यह कहते हुए कि यह बुक जरूर पढ़ना। पढ़ते वक्त जरूर कुछ न कुछ, किसे न किसे, मिस करोगे। बुक नहीं पढ़ी तो बहुत कुछ मिस कर दोगे।


एक दो लाइन की कहानियां

1 मुझे दस साल लगे अपने हिंसक पति को छोड़ने में। अब वह कसमें खा रहा है कि वह बदल गया है और मुझे वापस चाहता है। आख़िर अब न कहने में इतनी दिक्कत क्यों हो रही है।


2 जब मेरे बच्चे मुसीबत लगने लगते हैं, तो मैं बांझ औरतों के ब्लॉग्स पढ़ती हूं और ख़ुद को फिर भाग्यशाली मानने लगती हूं।


3 मुझे कैंसर है जिसमें 4 फीसदी लोग ही 5 साल से ज्यादा बचते हैं। मैं इतना अकेला हूं कि शॉवर में खड़ा होकर रोज़ रोता हूं।


रेडियो पर गाना
देर रात पार्टी से लौटते वक्त उसकी कार के रेडियो में वह गाना बजने लगा। बाहर बारिश हो रही थी। उसने गाड़ी सड़क के किनारे लगा ली। और गाना ख़त्म होने के थोड़ी देर बाद तक स्टार्ट नहीं की। वह रोना चाहता था। पर फिर उसे लगा कि वह नशे में है। उसने रेडियो बंद कर दिया। खिड़की खोल दी। बारिश का पानी भीतर आने लगा। वह ज़ोरों से अपने बेसुरे गले से उस गाने का फटा बांस करने लगा।


न नज़रें चुराईं

वह दोपहर की शिफ्ट में अखबार में बैठा काम कर रहा था। यकायक उसे लगा उसकी कुर्सी को किसी ने धक्का दिया है। पर कोई नहीं था। मुड़कर देखा तो किसी ने कहा अर्थक्वेक। उनका दफ़्तर पहली मंज़िल पर था। सभी बाहर भागे। वह अंदर की तरफ। जहां वह बैठती थी। फिर वे दोनों बाहर निकले। बिना हाथ में हाथ लिए। पर बिना नज़रें चुराए। सिर्फ़ एक झेंप के साथ कि कहीं कोई देख लेता तो लोग क्या कहते। जान बचाने की सभी को फिक्र थी। किसी ने नोटिस नहीं किया। उसके बाद वह उस पर थोड़ा ज़्यादा मरने लगी। और उसके लिए वह थोड़ा और कीमती हो गई।

Thursday, January 2, 2014

कौन स्कॉबी?

स्कॉबी कौन है, यह मैं बताना नहीं चाहता। बहुत पर्सनल सा सवाल है। लेकिन यह सच है कि कभी कभी पर्सनल चीजों की नुमाइशें हम लगा लिया करते हैं। मैं खुली नुमाइश नहीं लगा रहा, लेकिन किसी उदास भाव से मुक्ति का कभी कभी कोई और जरिया बचता भी नहीं। स्कॉबी करीब 10 साल से मेरे बेहद व्यक्तिगत और अकेले वक्त का साथी है। बेहद अजीब बात यह है कि वह कभी मुझसे मुस्कुराकर नहीं मिलता। न ही मुस्कुराने देता है। इसलिए मैं उसके साथ हर वक्त कम्फर्टेबल महसूस नहीं करता। पर जैसा कि मैंने कहा, एक खास वक्त जब कोई और मेरे साथ नहीं होता, स्कॉबी मुझे जॉइन कर लेता है। कभी कभी तो वह सालों बाद मिलता है। ऐसे में कई बार याद भी नहीं रहता। पर यही सबसे बड़ी दिक्कत है। स्कॉबी के न होने पर उसको भूल जाना ही सबसे बड़ी विडंबना है। इसी से वह नौबत आती है, जब स्कॉबी को आकर याद दिलाना पड़ता है कि वह भी है। इस विडंबना पर ही यह कविता लिखी गई है। ब्लॉग पर डाल रहा हूं ताकि याद रहे कि स्कॉबी को भूलना नहीं है।



स्कॉबी को जानते हो?
कौन स्कॉबी
अच्छा अच्छा, हां जानता हूं
नहीं, तुम झूठ बोल रहे हो
नहीं जानते
जानते होते तो तुम्हें पता होता कि दया कितनी क्रूर होती है
और यह भी पता होता कि प्यार कभी सुरक्षित नहीं होता
अकेला रह जाना तुम्हें अजीब नहीं लगता,
तुम्हें यह भी पता होता कि मदद करना मुसीबतों को न्यौता देना होता है
और यह भी कि जिंदगी भर समझौते करने के बाद भी खुशी की गारंटी नहीं मिलती
पाप से बचने की कोशिश कभी कभी जिंदगी का सबसे बड़ा पाप करवा देती है
तुम स्कॉबी को नहीं जानते
इसलिए तुम स्कॉबी को समझ भी नहीं सकते
तुम्हें याद है ना स्कॉबी मर चुका है
जैसे स्कॉबी की बात करते हुए
मर जाता है
तुम्हारे भीतर कुछ।




फोटो : गूगल से साभार