ब्लॉग पर आए बहुत दिन हो गए। व्यस्तताओं ने नहीं आने दिया। बहुत मन था निदा फाजली का कुछ शेयर करने का। उनके लिखे इस आर्टिकल को आखिर आज ब्लॉग तक लाने में कामयाब हो गया। ज्यादा कुछ कहे बगैर इसे आप तक ला रहा हूं। इतना जरूर है कि 4 जुलाई 2007 को इसे जब दैनिक भास्कर के संपादकीय पन्ने पर पढ़ा था तो इसे सहेजने में एक मिनट भी नहीं लगा। मुहब्बत पर इतनी बारीक और संवदेनशील नजर सीधे दिल तक दस्तक देती है। आप भी पढि़ए
अक्सर प्रेमी जोड़े पति-पत्नी बनने के बाद प्रेमी नहीं रहते, खरीदी हुई जायदाद की तरह एक-दूसरे के मालिक हो जाते हैं। दोनों एक-दूसरे की कानूनी जायदाद होते हैं, जिसमें तीसरे का दाखिला वर्जित होता है, समाज में भी, अदालतों में भी और नैतिकता के ग्रंथों में भी। वह आकर्षण जो शादी से पहले एक-दूसरे के प्रति नजर आता है, कई बार के पहने हुए वस्त्रों की तरह बाद में मद्धिम पड़ता जाता है। मानव के इस मनोविज्ञान से हर घर में शिकायत रहती है। कभी-कभी यह शिकायत मुसीबत बन जाती है। दूरियों से पैदा होने वाला रोमांस जब नजदीकियों के घेरे में आकर हकीकत का रूप धर लेता है तो रिश्तों से सारी चमक-दमक उतार लेता है। इसके बाद न पति आकाश से धरती पर आया उपहार होता है और न पत्नी का प्यार खुदाई चमत्कार होता है... मेरी एक गजल का शे’र है:
देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद
वो कौन है, जिससे तेरी सूरत न मिलती...
हिंदी कथाकार शानी की एक कहानी है, जिसका शीर्षक है ‘आंखें’। इसमें ऐसे ही एक प्रेम विवाह में फैलती एकरसता को विषय बनाया गया है। दोनों पति-पत्नी बासी होते रिश्ते को ताजा रखने के लिए कई कोशिशें करते हैं। कभी सोने का कमरा बदलते हैं, कभी एक-दूसरे के लिए गिफ्ट लाते हैं, कभी आधी रात के बाद चलने वाली अंग्रेजी फिल्मों की सीडी चलाते हैं... मगर फिर वही बोरियत... अंत में कथा दोनों को एक पब्लिक पार्क में ले जाती है। दोनों आमने-सामने मौन से बैठे रहते हैं। इस उकताहट को कम करने के लिए पति सिगरेट लेने जाता है। मगर जब वापस आता है तो उसे यह देखकर हैरत होती है कि पत्नी से जरा दूर बैठा एक अजनबी उसकी पत्नी को उन्हीं चमकती आंखों से देख रहा होता है, जिनसे विवाह पूर्व वह कभी उस समय की होने वाली पत्नी को निहारता था। अर्थशास्त्र का एक नियम है : वस्तु की प्राप्ति के बाद वस्तु की कीमत लगातार घटती जाती है। प्यास में पानी का जो महत्व होता है, प्यास बुझने के पश्चात वही पानी उतनी कशिश नहीं रखता। मेरी एक कविता है:
पहले वह रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फिर...
जिस्म से बिस्तर बनके
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको कमरे में घुटा सन्नाटा
वक्त-बेवक्त उठा लेता है
खोल लेता है बिछा लेता है।
बूढ़े गालिब के युग के जवाब शायर दाग देहलवी थे। उनके पिता नवाब शम्सुद्दीन ने ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी को गोली से उड़ा दिया था। नवाब साहब को फांसी दी गई और उनकी पत्नी अपने पांच साल के बेटे को रामपुर में अपनी बहन के हवाले करके, जान बचाने के लिए इधर-उधर भागती रहीं। जहां-जहां उन्हें मदद मिली, वहां-वहां इसकी कीमत उन्हें अपने शरीर से चुकानी पड़ी, जिसके नतीजे में दाग के एक भाई और बहन अंग्रेज नस्ल से भी हुए। यह अभागिन महिला आखिर में, आखिरी मुगल सम्राट के होने वाले जानशीन मिर्जा फखरू की निगाह में आई। यह 1857 से पहले का इतिहास है। महल में आने के बाद मां को रामपुर में छोड़े हुए बेटे की याद आई और किस्मत-बदकिस्मत बेटे को रामपुर से लालकिले में ले आई, 1857 से एक साल पहले मिर्जा फखरू का देहांत हुआ - और उसके बाद मां और बेटा दोनों फिर से बेघर हो गए। दाग उस वक्त 23-24 वर्ष के थे... वह शायर बन चुके थे - मशहूर हो चुके थे। शायरी ने उस समय के रामपुर नवाब को उन पर मेहरबान बनाया और उन्होंने फिर से घर बसाया... रामपुर में हर साल एक मेला लगता था, जिसमें देश की मशहूर तवायफें अपने गायन और नृत्य का प्रदर्शन करती थीं, उन तवायफों में एक नवाब साहब के भाई की मंजूरेनजर (प्रेमिका) थी। दाग का दिल उसी पर आ गया। उसका नाम था मुन्नीबाई हिजाब। दिल की दीवानगी में अक्ल शामिल नहीं होती।
इस दीवानगी में वह घर से बेघर भी हो सकते थे - जान भी खतरे में पड़ सकती थी, लेकिन मुहब्बत की दीवानगी, पत्नी के मना करने के बावजूद, उनसे नवाब साहब के नाम एक खत लिखवा देती है। खत में लिखा गया था, ‘नवाब साहब आपको खुदा ने हर खुशी से नवाजा है, मगर मेरे लिए सिर्फ एक ही खुशी है और वह है मुन्नीबाई...।’ नवाब, दाग की शायरी के प्रशंसक थे... उन्होंने मुन्नीबाई के द्वारा ही उत्तर भिजवाया। उत्तर में लिखा था - दाग साहब, हमें आपकी गजल से ज्यादा मुन्नीबाई अजीज नहीं हैं। मुन्नीबाई दाग साहब की प्रेमिका के रूप में उनके साथ रहने लगी, लेकिन जब मन में धन का प्रवेश हुआ तो मन बेचारा बंजारा बन गया और मुन्नीबाई उन्हें छोड़ कर चली गई - दाग का शे’र है:
तू जो हरजाई है अपना भी यही तौर सही
तू नहीं और सही और नहीं, और सही...
यूरोप में रिश्तों की इस उकताहट को कॉनजुगल बोरडम कहते हैं - पति-पत्नी के संबंध की इस तब्दीली ने ही कोठों या तवायफ की संस्कृति को जन्म दिया था। कुछ साल पहले तक पत्नी के होते हुए किसी वेश्या से संबंध रखने को बुरा नहीं समझा जाता था। इस्मत चुगताई ने इस परंपरा के विरोध में ‘लिहाफ’ नामक कहानी लिखी, जिसमें पत्नी का एकांत उसे लेसबियन बना देता है। देश-विदेश की जितनी भी बड़ी प्रेम कथाएं हैं, जिन पर महान काव्यों की रचना हुई है, उनमें कोई कथा पति-पत्नी के पात्रों में नजर नहीं आती। हीर-रांझा हो, लैला-मजनू हो, सोहनी-महिवाल हो या शीरी-फरहाद, इन सबका अंत मिलन पर नहीं, वियोग पर होता है। मुगल शासनकाल में केवल दो अपवाद नजर आते हैं - एक जहांगीर और नूरजहां का प्यार... और दूसरा खुर्रम और अरजुमन्द बानो का प्रेम, लेकिन जहांगीर और उसके सुपुत्र शाहजहां के इश्क में एक अंतर भी है - नूरजहां शेर अफगन की पत्नी थी, जो बाद में जहांगीर की मलिका बनी। नूरजहां से जहांगीर की कोई संतान भी नहीं है।
खुर्रम (जो बादशाह बन कर शाहजहां के नाम से जाने जाते हैं) और अरजुमन्द (जो बाद में मुमताज महल बनी) का इश्क भी पति-पत्नी का इश्क है, लेकिन वह शाहजहां के 13 बच्चों की मां बनकर भी बरकरार रहा। यह प्रेम संसार का एक अजूबा है, मुमताज महल का निधन चौहदवें बच्चे के जन्म के समय हुआ था। वह बुरहानपुर में मरी थी। वहीं उन्हें दफन भी किया गया था, लेकिन मरी हुई मुमताज से शाहजहां की मुहब्बत को मौत भी खत्म नहीं कर पाई। वह मुमताज की कब्र को भी अपने करीब ही रखना चाहता था। इसीलिए उसे बुरहानपुर में उसकी कब्र से निकलवा कर जमना के किनारे ताजमहल में दोबारा सुलाया गया...। औरंगजेब ने जब शाहजहां को कैद कर लिया था तो वह कैदखाने की एक खिड़की से मुमताज के ताजमहल को ही देखा करता था, शाहजहां और मुमताज जैसी मुहब्बत की आज हमारे संसार को ज्यादा जरूरत है।
फोटो - साभार गूगल