
बिजी होने के कारण लंबे समय से ब्लॉग पर कुछ नहीं डाल सका। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस दौरान खुद से बातचीत का सिलसिला कभी थमा। उलटा, बातचीत की एक अजीब कड़ी बन गई, जिसका वर्णन अभी शायद ठीक से न कर सकूं। बहरहाल, एक संयोग का जिक्र जरूर करना चाहूंगा। पिछली पोस्ट के बाद सोचा था कि कुछ साल पहले 6 मई को भास्कर के रसरंग में पढी़ एक कविता पोस्ट करूंगा। एक डायरी में नोट विजयशंकर चतुर्वेदी की इस कविता को कंपोज़ करने का वक्त तो तभी मिल गया था, लेकिन उसके बाद से किसी न किसी वजह से इसे लाइव नहीं कर सका। इस करीब एक महीने के दौरान जो कुछ जिया और जो कुछ आसपास देखा, अब लग रहा है कि वह इसी कविता में कहीं छिपा हुआ था। इसे पढ़ता हूं, तो लगता है ज़िंदगी ज़ज्बात का एक दरिया ही तो है। देखने वाले इसे अपनी-अपनी नज़र से देखते हैं। किसी को यह बहता हुआ पानी लगता है, तो किसी को बहा कर ले जाता पानी। हममें से ज्यादातर शायद ऐसे होंगे, जिसे यह देखने की फुर्सत ही न मिलती हो कि ऊपर से बहते दिखते इस पानी के अंदर बहुत कुछ ठहरा हुआ होता है। पानी की यह पर्दादारी हममें से ज्यादातर की ज़िंदगी का हुनर बन चुकी है। ऊपर से बहता हुआ दिखने के लिए हम अपने भीतर ठहरी हुई किसी बूंद को अक्सर छिपाए रखते हैं। बेशक, कुछ ठहरी हुई बूंदें मोती भी बनती हैं, लेकिन अक्सर ये बूंदें किसी न किसी ज़ज्बात की अगुवाई करती हुई खुद ही सबके सामने आ जाती हैं। पर्दानशीं अक्सर बेपर्दा हो जाते हैं...
सयाने कह गए हैं
रोने से घटता है मान
गिड़गिड़ाना कहलाता है हाथियों का रोना
फिर भी चंद लोग रो-रोकर
काट देते हैं ज़िंदगी
दोस्तों, खुशी में भी अक्सर
निकल जाते हैं आंसू
जैसे कि बहुत दिनों के बाद मिली
तो फूट-फूटकर रोने लगी बहन
वैसे भी यहां रोना मना है
पर बताओ तो सही कौन रोता नहीं है?
साहब मारता है, लेकिन रोने नहीं देता
कुछ लोग अभिनय भी कर लेते हैं रोने का
लेकिन मैं जब-जब करता हूं
शादी की चर्चा
तो असल में रोने लगती है बेटी
आसान नहीं है रोना
फिर भी खुलकर रो लेता है आसमान
नदियां तो रोती ही रोती हैं
पहाड़ तक रोता है
अपनी किस्मत पर
लेकिन बड़ी मुश्किल है
मेरे रोने में
कभी मन ही मन रोता हूं
तो रोने लगती है मां ...
इलस्ट्रेशन : गिरीश